Friday 5 October 2018

पेट्रोल - डीजल  : मजबूरी में मेहरबानी

केंद्र सरकार द्वारा पेट्रोल-डीजल पर एक्साइज घटाने के साथ ही पेट्रोलियम कंपनियों पर दबाव डालकर कीमतें कम करवाई गईं। उसके बाद भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने अपनी पार्टी द्वारा शासित राज्यों को निर्देश दिए और इस तरह जो केंद्र सरकार कुछ दिन पहले तक खुद को असहाय बता रही थी उसके हरकत में आते ही पेट्रोल-डीजल के दाम तकरीबन ढाई रुपये प्रति लीटर कम हो गए। भाजपा शासित राज्यों द्वारा स्थानीय करों में राहत दिए जाने से उनके यहां दाम 5 रुपये प्रति लीटर तक गिर गये। इस आकस्मिक निर्णय से आम उपभोक्ता निश्चित रूप से खुश हुआ लेकिन उसी के साथ हर किसी के मन में ये सवाल भी उठ खड़ा हुआ कि जब सरकार को ही ये करना था तब जनता को इतना पेरने की क्या जरूरत थी। बीते कुछ महीने से अंतर्राष्ट्रीय कारणों से कच्चे तेल के दामों में बेतहाशा वृद्धि का असर भारत पर भी पड़ा और लगभग रोजाना दाम बढऩे का सिलसिला चल पड़ा। बीच-बीच में कीमतें कम हुईं किन्तु वे ऊंट के मुंह में जीरा के समान थीं। चौतरफा आलोचना के बाद भी केंद्र सरकार की तरफ  से सदैव यही जवाब मिला कि कच्चे तेल का पूरा खेल वैश्विक उठापटक पर चूंकि निर्भर है अत: उसके हाथ में कुछ भी नहीं है। पेट्रोलियम वस्तुओं पर लगने वाले टैक्स को घटाने की मांग पर आर्थिक स्थिति का रोना रोया जाता रहा। राज्यों ने भी केंद्र सरकार के नक्शे कदम पर चलते हुए जनता का तेल निकालने में कोई संकोच नहीं किया। मप्र के वित्त मंत्री जयंत मलैया का ही उदाहरण लें तो उन्होंने पेट्रोल-डीजल पर टैक्स घटाने की मांग को बड़ी ही बेरुखी से अस्वीकार कर दिया। इस वजह से केंद्र सरकार के साथ भाजपा की छवि भी निरन्तर खराब होती जा रही थी। मप्र, छत्तीसगढ़ और राजस्थान विधानसभा के चुनाव अगले महीने होने हैं। वहां से आ रहे सियासी संकेत भाजपा के लिए चिंता का कारण बनने लगे थे। हाल ही में भोपाल में आयोजित महाकुम्भ में दावे के विपरीत कम लोगों की उपस्थिति से भाजपा अध्यक्ष  अमित शाह भी असंतुष्ट होकर लौटे। इन परिस्थितियों में केंद्र सरकार, पेट्रोलियम कंपनियों और भाजपा शासित राज्यों ने मिलकर पेट्रोल, डीजल सस्ता करने की जो मेहरबानी की वह  मजबूरी ही कही जाएगी। इसके पीछे उद्देश्य तीन राज्यों के विधानसभा चुनाव ही मुख्य रूप से दिखाई दे रहे हैं। वरना अरुण जेटली हफ्ते भर पहले तक तो पूरी तरह बेरहम बने रहे। मप्र जैसे राज्य की भाजपा सरकार पेट्रोलियम वस्तुओं पर सबसे ज्यादा टैक्स वसूलने के लिए कुख्यात है। यहां के मुख्यमंत्री बड़े ही संवेदनशील माने जाते हैं किंतु जिस तरह का काइयांपन केंद्र में श्री जेटली दिखाते रहे ठीक वैसा ही रवैया मप्र के वित्तमंत्री श्री मलैया का भी रहा। अचानक केंद्र सरकार और भाजपा जनता की हमदर्द बन गईं तो इसके पीछे कोई सदाशयता नहीं वरन जनता के गुस्से से थोड़ा बहुत बचने का प्रयास है। यदि तीन राज्यों के विधानसभा चुनाव सिर पर नहीं होते और उनमें भाजपा की स्थिति नाजुक नहीं होती तब ये उपकार इस तरह न किया जाता। लगे हाथ जेटली जी ने ये भी बता दिया कि इस मेहरबानी से केंद्र को कितना नुकसान होगा लेकिन ज्यादा अच्छा होता अगर वे ये बताते कि अंतर्राष्ट्रीय बाजारों में जब कच्चे तेल के दाम धड़ाम-धड़ाम गिर रहे थे तब भारत की जनता को उसका लाभ न देकर केंद्र सरकार और पेट्रोलियम कम्पनियों ने किस निर्दयता से मुनाफाखोरी की। इसमें कोई दो मत नहीं हैं कि भारत में कच्चे तेल का आयात विदेशी मुद्रा का अधिकतम भाग खा जाता है। अपनी जरूरत का 80 फीसदी से ज्यादा आयात करने वाला भारत कच्चे तेल के सबसे बड़े खरीददारों में एक है। पेट्रोल-डीजल का विकल्प खोजने में समुचित प्रयासों के अभाव ने इस समस्या को और विकराल बना दिया। जब बहुत देर और नुकसान हो चुका तब जाकर इस दिशा में कोशिशें शुरू हुईं लेकिन वे भी नौ दिन चले अढ़ाई कोस वाली उक्ति का प्रतीक बन गई हैं। बैटरी चलित वाहनों को लेकर भी उतनी सक्रियता नजर नहीं आ रही। कुल मिलाकर कच्चे तेल के मामले में भारत की हालत अभी भी वैसी ही है जैसी पहले से चली आ रही है। ऐसे में आज हुई राहत की बरसात आगे भी जारी रहेगी या नहीं ये बड़ा प्रश्न है। क्या पता इसके बदले किन्हीं और वस्तुओं पर अधिभार बढ़ाकर इस हाथ दे उस हाथ ले वाली स्थिति बना दी जाए। बावजूद इसके जनता को जो राहत मिली वह न मामा से काना मामा भला वाली उक्ति को चरितार्थ करती है। बेहतर होता केंद्र सरकार ये दरियादिली हर हफ्ते दिखाती रहती तो उसे इतनी गालियां शायद नहीं पड़ी होतीं। देर आए दुरुस्त आए की तर्ज पर पेट्रोल-डीजल के दामों में लगभग 5 रुपये प्रति लीटर की कमी स्वागतयोग्य है। लेकिन इसके बाद भी जनता के मन में केंद्र और भाजपा के प्रति गुस्सा पूरी तरह ठंडा नहीं पड़ा क्योंकि कुछ महीनों से रोजाना हुई मूल्य वृद्धि ने केंद्र और भाजपा के प्रति जो रोष उत्पन्न कर दिया था वह इतने मात्र से मिटना मुश्किल है। मान भी लें कि सरकार की अपनी मजबूरियां हैं लेकिन दूसरी तरफ  ये भी उतना ही बड़ा सच है कि हमारे देश में पेट्रोल-डीजल को केंद्र और राज्य दोनों सरकारों ने दुधारू गाय बना रखा है। नोटबन्दी और जीएसटी से सरकारी खजाने में काफी धन जमा होने लगा है। यदि मोदी सरकार वाकई अच्छे दिन लाने के वायदे को मूर्तरूप देना चाहती है तब पेट्रोल-डीजल को भी बिना विलंब जीएसटी के दायरे में ले आना चाहिए वरना ये स्थिति सदैव बनी रहेगी। कर वसूलना शासन का अधिकार और दायित्व दोनों है लेकिन जनता का खून चूसने का हक कदापि नहीं ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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