Monday 8 October 2018

गुजरात : इसके पहले कि आग और भड़के ....

चुनावी चर्चा के बीच गुजरात से आ रही खबरें चिंताजनक हैं।  मासूम बच्ची से दुष्कर्म के आरोप में एक बिहारी कामगार के पकड़े जाने के बाद अचानक उत्तर भारतीयों के विरुद्ध वैसा ही हिंसात्मक आंदोलन शुरू हो गया जैसा महाराष्ट्र में शिवसेना और मनसे समय-समय पर करती रही हैं। भयभीत उत्तर भारतीय परिवार गुजरात छोड़कर अपने गांव-देस लौट रहे हैं। यदि सोशल मीडिया और टीवी पर प्रसारित खबरें सही हैं तो कांग्रेस विधायक अल्पेश ठाकोर के संगठन ठाकोर सेना के सदस्य उत्तर भारतीय प्रवासियों पर हमले करने में आगे-आगे हो रहे हैं। यद्यपि अल्पेश ने इसका खंडन करते हुए सद्भाव यात्रा निकालने का ऐलान भी कर दिया किन्तु किसी एक व्यक्ति द्वारा किये गये घृणित कृत्य के लिए उसके समूचे समुदाय के विरुद्ध हिंसात्मक हो जाना देश के संघात्मक स्वरूप के लिए घातक है। कांग्रेस पार्टी को चाहिए कि वह तत्काल इस मामले का संज्ञान लेते हुए गुजरात में स्थितियां सामान्य करने सक्रिय हो वरना नवरात्रि महापर्व के अवसर पर आयोजित होने वाले गरबा के आयोजनों की भव्यता पर इसका असर पड़े बिना नहीं रहेगा। उल्लेखनीय है गरबा गुजरात की सांस्कृतिक पहिचान है जिसकी लोकप्रियता न सिर्फ भारत वरन पूरी दुनिया में अप्रवासी भारतीयों के जरिये फैल चुकी है। इस दौरान गुजरात में पर्यटकों का आगमन भी खूब होता है। दीपावली के पूर्व अन्य राज्यों से व्यापारी भी यहां खरीदी हेतु आते हैं। इन सभी कारणों से उत्तर भारतीयों के विरुद्ध शत्रुवत व्यवहार की घटनाएं गुजरात जैसे शांत और व्यवसायिक मानसिकता वाले राज्य के भविष्य पर विपरीत असर डाल सकती हैं। ये बात किसी से छिपी नहीं है कि गुजरात में उद्योग व्यापार की जबरदस्त तरक्की ने वहां बड़े पैमाने पर रोजगार के अवसर उत्पन्न किये जिसकी वजह से मप्र, उप्र और बिहार से बड़ी संख्या में श्रमिक एवं अन्य लोग वहां आकर काम करने लगे। ये संख्या जरूरत के मुताबिक बढ़ती चली गई। कहा जाता है कि गुजरात में अभी भी बड़ी संख्या में कामगारों की आवश्यकता है। आज तक कभी भी गुजरात में क्षेत्रीयता की भावना इस तरह सामने नहीं आई थी। लेकिन दुष्कर्म की एक घटना को बहाना बनाकर जिस तरह की आक्रामक वारदातें शुरू हुईं उससे उत्तर भारतीय समुदाय में भय व्याप्त हो गया। हजारों लोग परिवार सहित गुजरात छोड़ते नजर आ रहे हैं। यद्यपि हिंसा साबरकांठा के हिम्मतनगर से शुरू हुई किन्तु उसका अहमदाबाद सहित आधा दर्जन से ज्यादा जिलों में फैल जाना इस बात का संकेत है कि उसके पीछे कोई संगठित सोच काम कर रही है। इसका प्रमाण इस बात से मिला कि ठाकोर सेना ने लगे हाथ 85 फीसदी रोजगार स्थानीय लोगों को दिए जाने की मांग भी उछाल दी। हालांकि राज्य की पुलिस उपद्रवकारियों को पकड़ रही है लेकिन जैसा समझ आ रहा है उसके अनुसार तो महाराष्ट्र के भीमा कोरेगांव सरीखा कोई योजनाबद्ध षडयंत्र इस हिंसा के पीछे हो सकता है अन्यथा स्थानीय लोगों को रोजगार देने का मुद्दा दुष्कर्म की घटना से नहीं जोड़ा जाता।  भीमा कोरेगांव में गुजरात के एक अन्य युवा नेता जिग्नेश मेवाणी की भूमिका भी सामने आई थी। हार्दिक पटेल के आंदोलन से भी गुजरात अशान्त होता रहा है।  हिंसात्मक पाटीदार आंदोलन के दौरान भी अरबों-खरबों का नुकसान हुआ था। ताजा घटनाओं के संदर्भ में गुजरात के विभिन्न राजनीतिक दलों को एकजुट होकर हिंसा रोकने आगे आना चाहिए वरना इससे गुजरात के दूरगामी हित प्रभावित हुए बिना नहीं रहेंगे। गुजरात का मूल स्वभाव व्यवसायिक है। वहाँ के लोग पूरी दुनिया में फैले हुए हैं। गुजरात से सटे महाराष्ट्र विशेष रूप से मुंबई में व्यापार के क्षेत्र में गुजराती समुदाय की मौजूदगी अत्यंत प्रभावशाली है। ऐसे में गुजरात की घटनाओं का प्रतिक्रियात्मक असर दूसरे राज्यों में होने लगा तो इससे वहां रह रहे गुजरातियों को नुकसान उठाना पड़ सकता है। त्यौहारी सीजन में खरीदी करने गुजरात जाने वाले व्यापारी भी डर के मारे दूसरी जगहों को चुन सकते हैं। उससे भी बड़ी बात ये है कि उत्तर भारतीय समुदाय यदि गुजरात से पलायन कर गया तो वहाँ के कल कारखानों में कामगारों की कमी होने से उत्पादन प्रभावित होगा। सबसे चिंताजनक बात है गुजरात की उस छवि की जो उद्योग व्यापार के लिहाज से आवश्यक समन्वय और सामंजस्य से ओतप्रोत है। ताजा हिंसात्मक घटनाओं के मूल में चाहे कांग्रेस विधायक अल्पेश ठाकोर हों या कोई और लेकिन उन्हें ये नहीं भूलना चाहिए कि बिना किसी ऐतराज के उप्र के बनारस शहर ने गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को सिर-आंखों पर बिठाकर अपना लोकसभा सांसद चुना। यही नहीं उन्हें प्रधानमंत्री बनाने में उप्र और बिहार की निर्णायक भूमिका रही थी। जिस व्यक्ति ने एक नन्हीं बालिका के साथ अमानुषिक कृत्य किया वह तो मृत्युदंड से कम का पात्र नहीं है लेकिन उसकी घिनौनी करतूत के लिए गुजरात की औद्योगिक प्रगति में योगदान दे रहे उत्तर भारतीयों को निशाने पर लेना किसी भी दृष्टि से स्वीकार्य नहीं है। बेहतर हो गुजरात के सभी राजनीतिक दल इस बारे में तत्काल मिल बैठकर सद्भाव कायम करने मैदान में उतरें वरना हिंसा और विद्वेष की आग गुजरात की आर्थिक सेहत के साथ ही उसके बाहर रहने वाले गुजरातियों के लिए जी का जंजाल बने बिना नहीं रहेगी। मुंबई में दत्ता सामंत नामक श्रमिक नेता द्वारा कई दशक पूर्व कपड़ा मिलों में करवाई गई लंबी हड़ताल के दुष्परिणाम स्वरूप वहाँ का कपड़ा उद्योग धीरे-धीरे गुजरात के निकटवर्ती सूरत शहर में स्थानांतरित हो गया। इसी तरह ठाकोर सेना का पागलपन नहीं रुका तो गुजरात और गुजरातियों को भी अकल्पनीय नुकसान उठाने के लिए तैयार हो जाना चाहिए। वैसे गुजरात के अधिकतर लोग बेहद सुलझे हुए होते हैं जिनकी रुचि कारोबार के विस्तार में ज्यादा होती है। इस आधार पर ये उम्मीद करना गलत नहीं होगा कि गुजरात अपने शांत स्वभाव का परिचय एक बार फिर देते हुए इस संकट से निकल आएगा। लेकिन राजनीतिक दलों को भी उदासीनता छोडऩा होगी क्योंकि इस तरह की घटनाओं में कहीं न कहीं सियासत की भूमिका होती ही है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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