Tuesday 23 October 2018

सबरीमाला : ये टकराव अच्छा नहीं

केरल के सुप्रसिद्ध सबरीमाला मंदिर के पट बंद हो गए। सर्वोच्च न्यायालय ने एक याचिका पर निर्णय देते हुए इस पूजा स्थल में सदियों से चली आ रही उस परंपरा को रद्द कर दिया था जिसके अंतर्गत 10 से 50 वर्ष तक की महिलाओं के प्रवेश पर प्रतिबंध था। उक्त फैसले का प्रगतिशील तबके ने तो स्वागत किया लेकिन केरल ही नहीं वरन दक्षिण के अन्य राज्यों के हिन्दू धर्मावलंबियों को न्यायपालिका का हस्तक्षेप पसंद नहीं आया। विगत दिनों जब मंदिर के पट दर्शनार्थ खुले तब महिलाओं के प्रवेश को रोकने के लिए पुजारीगण और स्थानीय नागरिक ही नहीं अपितु बड़ी संख्या में महिलाएं भी खड़ी हो गईं। कुछ महिलाओं ने सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के परिप्रेक्ष्य में मंदिर में प्रवेश का प्रयास भी किया लेकिन उन्हें भी रोक दिया गया। केरल की वामपंथी सरकार भले ही न्यायालयीन फैसले को लागू करवाकर राज्य में तेजी से प्रभाव बढ़ा रहे हिन्दू संगठनों को दबाना चाह रही थी किन्तु ये कहने में कुछ भी गलत नहीं है कि वह भी जनसैलाब के विरुद्ध जाने का साहस नहीं कर सकी। प्रगतिशील तबका भी मौके की नजाकत को भांपकर किनारे हो गया और इस तरह से सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को जनता की अदालत ने नकार दिया। वैसे तो यह अदालत की अवमानना के साथ कानून के राज की अवधारणा को रद्दी की टोकरी में फेंकने जैसा ही है लेकिन सबरीमाला में आम जनता ने ही मोर्चा संभाला। राजनीतिक ताकतें बेशक उसके पीछे रही हों किन्तु यदि आम जन विशेष रूप से महिलाएं निडर होकर मोर्चा न संभालतीं तब सर्वोच्च न्यायालय के फैसले की अवहेलना करने का साहस शायद ही और किसी का हुआ होता। अब पट बंद हो जाने के बाद मामला फिलहाल ठंडा पड़ सकता है। यद्यपि सर्वोच्च न्यायालय में पुनर्विचार की अर्जी लगी है किंतु सबरीमाला में बीते कुछ दिनों में जो कुछ भी हुआ उसने न्यायपालिका के सामने भी शोचनीय स्थिति पैदा कर दी है। सन्दर्भित फैसला देते समय सर्वोच्च अदालत ने महिलाओं और पुरुषों की समानता के विचार को अपने निर्णय का आधार बनाया था। और किसी बारे में इस सिद्धांत को स्वीकार करना उतना विवादास्पद सम्भवत: नहीं बना होता किन्तु सैकड़ों वर्षों से चली आ रही परंपरा को संविधान के दायरे में लाकर अवैध घोषित करने से सबरीमाला मंदिर में आस्था रखने वाले असंख्य लोगों को भावनात्मक दृष्टि से अस्वीकार्य लगा और इसीलिए उन्होंने बिना हिचके और डरे एक नई परिपाटी को जन्म दे दिया। सर्वोच्च न्यायालय निश्चत तौर पर मन ही मन क्रोधित हो रहा होगा लेकिन सबरीमाला के श्रद्धालुओं ने भी एक जनादेश न्यायपालिका को दे दिया है। हमारे देश में न्यायापालिका के प्रति लोगों की श्रद्धा बरकरार है। ये भरोसा भी कायम है कि सर्वोच्च न्यायालय विधायिका और कार्यपालिका की स्वेच्छाचारिता पर लगाम लगाकर जनता के हितों की सुरक्षा करने के प्रति सजग और सक्रिय है किन्तु दूसरी तरफ  ये भावना भी एक बड़े वर्ग में व्याप्त हो रही है कि सर्वोच्च न्यायालय कई मामलों में अपनी सीमाओं के बाहर जाकर फैसले करने लगा है। सरकार तो चाहे या न चाहे उन फैसलों को सिर झुकाकर मानने बाध्य है और जब वे उसे असहनीय लगते हैं तब विधायिका का सहारा लेकर उन्हें पलट भी देती है लेकिन कुछ फैसले ऐसे होते हैं जिनका संबंध और सरोकार सीधे जनता से होता है। विशेष रूप से धार्मिक आस्था एवं विश्वास से जुड़े विषयों पर न्यायपालिका का हस्तक्षेप एक हद के बाद असहनीय और अनुचित प्रतीत होता है। सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेेश पर प्रतिबंध संबंधी फैसला ऐसा ही था। न्यायालय ने जिन बातों का संज्ञान लिया वे निरर्थक कतई नहीं कही जा सकतीं। घर परिवार के बीच भले ही प्राचीन मान्यताएं शिथिल पड़ रही हों किन्तु व्यक्ति के निजी और सामूहिक आचरण में फर्क होता है और यहीं सर्वोच्च न्यायालय भूल कर बैठा। आगे क्या होगा ये फिलहाल तो अधर में है। सर्वोच्च न्यायालय अपने निर्णय को संशोधित करेगा या फिर उसे कड़ाई से लागू करवाने के लिए दबाव बनाएगा ये तो वही जाने लेकिन जिस तरह का प्रतिरोध सबरीमाला में देखने मिला वह अच्छा है या बुरा लेकिन एक संकेत तो है जिसे सर्वोच्च न्यायालय और समाज दोनों को गम्भीरता से समझना चाहिए वरना न्यायिक सक्रियता और उस पर समाज की रोषपूर्ण प्रतिक्रिया अराजकता की राह प्रशस्त करेगी।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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