Wednesday 3 October 2018

सपाक्स : बहुत कठिन है डगर ......

मप्र में एक और पार्टी का उदय हो गया। सपाक्स (सामान्य पिछड़ा वर्ग अल्पसंख्यक समाज संस्था ) अब आंदोलन की बजाय एक राजनीतिक दल बन गया। चुनाव आयोग में इस हेतु विधिवत आवेदन कर दिया गया। अनु.जाति/जनजाति कानून को लेकर सवर्ण समुदाय बहुत नाराज है। पूरे प्रदेश में सपाक्स के नेतृत्व में सवर्ण समाज ने बंद करवाकर अपनी ताकत भी दिखाई। शुरुवात में बात नोटा से शुरू हुई थी लेकिन अब तो सपाक्स विधिवत राजनीतिक दल के तौर पर सामने आ गया है। उसने सभी 230 सीटों पर चुनाव लडऩे की घोषणा भी कर दी। सपाक्स के अध्यक्ष हीरालाल त्रिवेदी ने स्पष्ट किया कि पार्टी भाजपा या कांग्रेस की बी या सी टीम बनकर नहीं रहेगी। श्री त्रिवेदी के अनुसार उनकी पार्टी पिछड़े वर्ग को 27 फीसदी आरक्षण भी देगी। पहले लग रहा था कि सपाक्स को आरक्षित वर्ग के संग़ठन अजाक्स के मुकाबले खड़ा किया गया है। इसे आरक्षण के विरुद्ध सवर्ण जातियों की आवाज भी विश्लेषक मान रहे थे। कुछ लोगों का ये भी सोचना था कि सपाक्स एक दबाव समूह के तौर पर काम करेगा लेकिन वे सभी अनुमान और आकलन दरकिनार हो गए और अंतत: वह एक राजनीतिक दल की शक्ल में खुलकर सामने आ ही गया। लेकिन इसकी छवि एक जनाधार वाली पार्टी के तौर पर बनेगी इस पर अभी सन्देह के बादल मंडरा रहे हैं क्योंकि अभी तक जितने भी नाम उसके शीर्ष पदाधिकारियों के उजागर हुए उनमें अधिकतर या यूँ कहें कि लगभग सभी पूर्व शासकीय अधिकारी हैं और वह भी उच्च पदों पर रहे हुए। आम तौर पर हमारे समाज में सरकारी मुलाजिमों की छवि अच्छी नहीं मानी जाती। नौकरी में रहते हुए जनता के प्रति उनका रवैया सामान्यतया असम्वेदनशील ही रहता है। ऐसे में अफसरों के वर्चस्व वाली पार्टी आम मतदाता को कितना आकर्षित कर सकेगी ये बड़ा प्रश्न है। और फिर अपने साथ पिछड़ों और अल्पसंख्यकों को शरीक कर सपाक्स सवर्ण जातियों को कितना आकर्षित कर सकेगी ये भी पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता। जातिगत आरक्षण और पदोन्नति में आरक्षण का यदि सपाक्स विरोध करेगा तो उस सूरत में उसे पिछड़े वर्ग के मतों से हाथ धोना पड़ेगा और समर्थन करने की दशा में सवर्ण जातियां उससे दूरी बना लेंगीं। सपाक्स अध्यक्ष श्री त्रिवेदी यदि अरविंद केजरीवाल बनना चाह रहे हों तो उनकी सोच गलत है क्योंकि श्री केजरीवाल भ्रष्टाचार के विरुद्ध अन्ना हजारे द्वारा किए आन्दोलन से प्रकाश में आए थे। उस आंदोलन को समाज के हर वर्ग ने समर्थन दिया था। उस आधार पर देखें तो सपाक्स के गठन के पीछे वैचारिक पक्ष क्या है ये स्पष्ट किये बिना वह आम आदमी पार्टी जैसी किसी चमत्कारिक सफलता की उम्मीद तो नहीं कर सकती लेकिन वह भाजपा और काँग्रेस से निराश उन मतदाताओं के लिए अपनी नाराजगी व्यक्त करने का एक जरिया जरूर बन सकती है जो अभी तक नोटा का बटन दबाने की मानसिकता से प्रभावित हो चले थे। राजनीतिक क्षेत्रों में इस बात पर भी मंथन चल पड़ा है कि सपाक्स दोनों प्रमुख पार्टियों में से किसे क्षति पहुंचाएगी ? प्रारंभिक आकलन के अनुसार अपने सवर्ण आधार के कारण ये संगठन भाजपा के परंपरागत जनाधार में सेंध लगाएगा लेकिन अब राजनीतिक पार्टी बनाकर सभी 230 सीटों पर लड़ऩे की घोषणा के बाद ये सवाल भी उठ खड़ा हुआ है कि सपाक्स इतने उम्मीदवार लाएगी कहां से? और जब वह अनु .जाति/जनजाति के लिए आरक्षित सीटों पर भी मुकाबले में आएगी तब वह सवर्ण जातियों की पसंद किस हद तक बनी रहेगी ये सोचने वाली बात है। दूसरी बात संगठन की है जो चुनाव जीतने की प्राथमिक आवश्यकता है। दिल्ली में आम आदमी पार्टी भले ही नई-नई थी लेकिन श्री केजरीवाल और उनके सहयोगी एनजीओ चूंकि पहले से सक्रिय थे इसलिए उन्हें जनता से संवाद स्थापित करने में दिक्कत नहीं आई। और फिर दिल्ली कुल मिलाकर है तो एक महानगर ही। उस दृष्टि से सपाक्स पूरे मप्र के बड़े इलाके में प्रत्याशी तय करने के बाद चुनावी माहौल कैसे बनाएगी ये फिलहाल स्पष्ट नहीं है। बेहतर हो यदि ये पार्टी कुछ सीमित इलाकों को अपना कार्यक्षेत्र बनाकर मैदान में उतरे। 2008 के चुनाव में पूर्व मुख्यमंत्री उमाश्री भारती ने भी अपनी पार्टी बनाकर भाजपा-कांग्रेस का विकल्प बनने की कोशिश की थी किन्तु वे भी सफल नहीं हो सकीं। उस अनुभव से सपाक्स सबक लेकर अपनी ताकत को कुछ सीटों पर केंद्रित कर मैदान में उतरे तो वह थोड़ा सा कुछ हासिल कर सकती है। वरना किसी बड़े दमदार और चर्चित चेहरे के अभाव में चुनाव जीतना बेहद कठिन है। सपाक्स अध्यक्ष के साथ जो पदाधिकारी घोषित हुए उनमें से अधिकांश पूर्व नौकरशाह हैं। पार्टी सोचती है उनके जरिये शासकीय कर्मचारियों को आकर्षित कर लेगी किन्तु ये भी उतना आसान नहीं दिखाई दे रहा। यदि श्री त्रिवेदी केवल उच्च कही जाने वाली जातियों को एकजुट करते हुए आरक्षण विरोधी मुहिम चलाते तब वे जनता के एक प्रभावशाली वर्ग को आकर्षित कर सकते थे लेकिन सभी वर्गों को साथ लेकर पार्टी बनाना और चलाना आज के दौर में उतना आसान नहीं है जितना समझा जाता है। कुल मिलाकर सपाक्स की स्थिति वोट कटवा की बनने की संभावना ही ज्यादा लगती है। कांग्रेस और भाजपा से रुष्ट मतदाता अपनी भड़ास निकालने के लिए जरूर सपाक्स को समर्थन दे सकते हैं वरना मप्र में तीसरी ताकत बनने में तो बसपा तक सफल नहीं हो सकी जबकि उसका जातीय आधार बेहद सुदृढ़ है। यही स्थिति गोंडवाना गणतंत्र पार्टी की भी हुई। सपाक्स कितना भी कहे कि वह भाजपा-कांग्रेस दोनों से दूर है लेकिन वह मप्र की राजनीति में किसी बड़े बदलाव का कारण बन सकेगी ऐसा सोच लेना जल्दबाजी होगी।

- रवीन्द्र वाजपेयी

No comments:

Post a Comment