Thursday 11 October 2018

आचार संहिता : चुनाव तक ही क्यों

चुनाव की अधिसूचना जारी होते ही प्रशासन किसी शक्तिवर्धक दवाई के असर की तरह फुर्ती दिखाने लगता है । इन दिनों सड़कों पर वाहन रोककर शीशों पर चढ़ी काली फिल्में , स्टिकर , पदनाम लिखी डिजायनर नंबर प्लेट वगैरह के चालान किये जा रहे हैं । राजनीतिक दलों द्वारा सार्वजनिक स्थलों पर जबरन टांगे गए झंडे , बैनर , फ्लेक्स भी उतारे जा रहे हैं । अन्य तरह की सख्तियां भी देखने में आ रही हैं । इसमें कुछ भी अनुचित नहीं है। कानून का पालन होना बहुत जरूरी है । लेकिन हमारे देश में कानून भी चेहरा और अवसर देखकर लागू किया जाता है। आचार संहिता प्रभाव में आते ही प्रशासन जिस तरह हरकत में आता है वह देखकर प्रसन्नता भी होती है और आश्चर्य भी। प्रसन्नता इसलिए क्योंकि कानून-व्यवस्था को सुचारू रूप से लागू करवाने पुलिस और प्रशासन दोनों मुस्तैदी से डट जाते हैं और आश्चर्य इसलिए कि ये वही अमला है जो सामान्य दिनों में यातायात और पार्किंग व्यवस्था तक नहीं सुधार पाता । चुनाव के दौरान छोटी - छोटी बातों का संज्ञान लेने वाली प्रशासनिक व्यवस्था उसके पहले और बाद में उदासीन क्यों बनी रहती है ये बड़ा और विचारणीय प्रश्न है । आचार संहिता लगते ही नेता और अन्य प्रभावशाली शख्सियतों के कुर्ते का कलफ  ढीला पड़ जाता है जबकि शेष समय में इनकी शान में गुस्ताखी होने पर  सरकारी मुलाजिम को उसकी औकात बता दी जाती है । वाहनों के कागजातों की जांच , नगदी की आवाजाही पर नजर , शराब बाँटने वालों की धरपकड़ , देर रात तक लाउड स्पीकरों की कानफोड़ू आवाज पर रोक जैसे कदम न सिर्फ  उठाये जाते अपितु पूरी कड़ाई से लागू भी किये जाते हैं । सरकारी संपत्ति के विरुपण को रोकने के लिए भी प्रशासनिक अमला मैदान में उतर पड़ता है । नेताओं से सरकारी वाहन छीन लिया जाता है । और भी बहुत कुछ ऐसा होता है जो निष्पक्ष और स्वतंत्र चुनाव के नाम पर वही सरकारी अमला करता देखा जा सकता है जो अन्यथा अपने कर्तव्यों के निर्वहन में  उदासीनता की पराकाष्ठा का प्रदर्शन करने के लिए कुख्यात है । चुनाव आयोग की ये सख्ती टी . एन. शेषन के मुख्य चुनाव आयुक्त बनने के बाद शुरू हुई। यद्यपि उनके सख्त रवैये से नाराज होकर राजनीतिक बिरादरी ने एक सदस्यीय चुनाव आयोग को बहुसदस्यीय बनाते हुए उसमें दो आयुक्त और नियुक्त कर दिए लेकिन उससे श्री शेषन की कार्यशैली और दबंगी में कोई अंतर नहीं आया । लेकिन एक बात साबित हो गई कि व्यवस्था को सुधारने के लिए किसी नए कानून की जरूरत नहीं अपितु प्रशासकीय दृढ़ता , ईमानदारी और  निडरता की जरूरत ह। श्री शेषन ने चुनाव आयोग की एक अलग छवि बनाकर उसकी अन्तर्निहित क्षमताओं को जिस तरह  जगजाहिर किया उसी का परिणाम है कि आचार संहिता लगते ही छोटे बड़े सभी को कानून के राज का एहसास होने लगता है। इसे आदर्श आचार संहिता नाम दिया गया है । इस संदर्भ में विचारणीय मुद्दा ये है कि क्या देश में कानून के पालन के लिए अचार संहिता लगाना जरूरी है ? और ये भी कि यदि चुनाव के दौरान शासन , प्रशासन , जनता , नेता सभी नियमों कानूनों का पालन करने बाध्य कर दिए जाते हैं तब शेष समय में ऐसा क्यों नहीं हो सकता और चुनाव सम्बन्धी विषयों को छोड़कर कानून व्यवस्था से जुड़े बाकी सामान्य प्रावधानों को लागू किये जाने में कोताही क्यों बरती जाती है ?  समय आ गया है जब इस विषय पर राष्ट्रीय बहस होनी चाहिए क्योंकि लोकतंत्र को भीड़तंत्र और ठोकतंत्र बनाने पर आमादा राजनीतिक बिरादरी और उनके साथ गठजोड़ किये हुए प्रशासनिक अमला देश को जिस तरह हाँक रहा है उसमें साधारण नागरिक तो कदम -कदम पर धक्के खाने मजबूर है वहीं विशिष्ट बन बैठा तबका नव सामन्तवाद का प्रतीक बन गया है। राजनीतिक पार्टियों के बीच सैद्धांतिक अंतर घटा है और सत्ता में बैठकर सभी नेताओं की कार्यशैली तकरीबन एक जैसी हो चुकी है जिसके कारण समाज में राजनीति और शासन के प्रति घृणा और गुस्सा बढ़ता जा रहा है। वक्त की मांग है कि आचार संहिता जैसे हालात चुनाव के बाद भी बनाकर रखे जाएं और कानून के सामने कोई भी वीआईपी न रहे । वैसे आचार संहिता के उल्लंघन पर मिलने वाला दंड भी सन्देह के घेरे में है लेकिन ये तो मानना ही पड़ेगा कि इस दौरान स्थिति काफी कुछ बदल और सुधर जाती है। काश, चुनाव के दौरान आचार संहिता के लागू होते ही आने वाला सुधार स्थायी हो जाये तो देश मौजूदा दुरावस्था से निकलकर उस स्थिति में पहुंच सकता है जिसे वाकई आदर्श कहा जा सकेगा।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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