Monday 15 October 2018

व्यापार बन गई चुनावी टिकिट

विभिन्न राज्यों के विधानसभा चुनाव घोषित होने के बाद राजनीतिक दल टिकिट वितरण में जुटे हुए हैं। राष्ट्रीय हो या क्षेत्रीय कमोबेश सभी पार्टियों में उम्मीदवारी हासिल करने के लिए जबरदस्त उठापठक चल रही है। नेताओं की परिक्रमा और पादुका पूजन दोनों जोरों पर है। टिकिट का कोई निश्चित फार्मूला किसी पार्टी में नहीं होने से योग्यता, वैचारिक प्रतिबद्धता और सेवाओं का मूल्यांकन करने की बजाय जातीय गणित और येन-केन-प्रकारेण चुनाव जीत लेने की क्षमता ही उम्मीदवार चयन का आधार बन गया है। एक जमाना था जब प्रत्याशी चयन करते समय जाति और आर्थिक संपन्नता अधिक मायने नहीं रखती थी किन्तु चुनाव दर चुनाव स्थितियां बदलती चली गईं और अब यह हालात हैं कि चंद अपवादों को छोड़कर टिकिटों की घोषणा ऐन वक्त पर की जाती है। हालांकि इसके पीछे पार्टियों की रणनीति भी रहती है किंतु  मुख्य वजह प्रतिद्वंदी पार्टी के प्रत्याशी का पता लगाना होती है। इसके चलते योग्य, कर्मठ और उजली छवि के व्यक्ति की तो उपेक्षा हो जाती है और जुगाड़ू किस्म के लोग टिकिट हासिल कर विधानसभा-लोकसभा सदस्य बन जाते हैं। मप्र, छत्तीसगढ़ और राजस्थान राजनीति की मुख्य धारा के प्रदेश हैं। इसलिए इन पर ज्यादा ध्यान जा रहा है जबकि मिज़ोरम और तेलंगाना पर कम। इन तीनों प्रदेशों में कांग्रेस और भाजपा में मुख्य मुकाबला होना है। एक साल से दोनों खेमे इसके लिए तैयारी करने में जुटे हैं। दोनों तरफ  से ये संकेत दिए गये थे कि  प्रत्याशियों की घोषणा काफी पहले कर दी जाएगी किन्तु चुनाव की तिथियां घोषित होने के बाद भी ये दल अभी तक वैसा नहीं कर सके। कांग्रेस लम्बे समय तक बसपा और सपा के साथ गठबंधन की प्रतीक्षा में बैठी रही किन्तु जब मायावती और अखिलेश यादव ने ठेंगा दिखा दिया तब उसने अपनी चयन प्रक्रिया तेज की। यही स्थिति भाजपा में भी है। संगठन पर आधारित यह पार्टी भी अब तक प्रत्याशियों को लेकर निर्णय नहीं कर पा रही। दोनों प्रमुख पार्टियां जिस तरह की धीमी गति से चल रही हैं उसे देखते हुए ये कहना गलत नहीं होगा कि उनके पास उम्मीदवारी तय करने का कोई ठोस और उचित आधार नहीं होने से उहापोह बना हुआ है। प्रत्याशियों की घोषणा को रोके रहने की एक वजह संभावित बगावत को रोकना भी बताया जाता है। खैर, जो भी हो लेकिन इतने बड़े-बड़े संगठन और दर्जनों नेताओं के होते हुए भी टिकिटों की घोषणा में इतने विलम्ब से यही लगता है कि दोनों दलों में ऐसे अच्छे उम्मीदवारों का नितांत अभाव हो गया है जिनकी पहिचान विचारधारा के आधार पर होती हो। यदि ऐसा नहीं होता तब चुनाव के कुछ दिन पहले दूसरी पार्टी से कूदकर आने वालों को टिकिट देने का चलन शुरू नहीं होता। इसकी वजह से सैद्धांतिक प्रतिबद्धता के कारण राजनीतिक दलों में कार्य करने वाले कार्यकर्ताओं के नसीब में केवल दरी फट्टा उठाना रह जाता है। एक समय था जब काँग्रेस में प्रत्याशी लादने का चलन था।  शंकर गिरि को दमोह (मप्र), गुलाम नबी आजाद को महाराष्ट्र से चुनाव लड़वाने जैसे प्रयोग अतीत में हुए। भाजपा भी धर्मेंद्र को राजस्थान और हेमा मालिनी को मथुरा से लड़वा चुकी है। बंगारू लक्ष्मण की पत्नी को भी राजस्थान से भाजपा ने सांसद चुनवाया। कांग्रेस ने भी बूटा सिंह को वहीं से सांसद बनवाया था। 1980 में इंदिरा गांधी ने मप्र की छिंदवाड़ा सीट से संजय गांधी के मित्र कमलनाथ को टिकिट देकर स्थानीय नेताओं की उपेक्षा की। तबसे कमलनाथ वहीं जम गए। और फिलहाल प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष बने हुए हैं। कहने का आशय ये है कि राजनीतिक दलों में प्रत्याशी चयन की प्रक्रिया पूरी तरह बाजारवादी सोच पर आकर टिक गई है जिसमें येन-केन-प्रकारेण सफलता हासिल करना ही एकमात्र उद्देश्य रह गया है। टिकिट प्राप्त करने के लिए जिस तरह की लॉबिंग की जाती है वह साधारण व्यक्ति के बस की बात नहीं है। खुद्दार व्यक्ति नेताओं का चरण-चुम्बन नहीं कर पाने की वजह से अपने वाजिब अधिकार से वंचित रह जाते हैं और अवसरवादी तथा चाटुकार  उनकी जगह घुसकर महिमामंडित हो जाते हैं। क्षेत्रीय और जाति आधारित पार्टियों पर तो टिकिटें बेचने तक का आरोप खुले आम लगता है। यही वजह है कि अब राजनीति में जिन सिद्धांतवादी लोगों की जरूरत महसूस की जाती है उनकी जगह पेशेवर किस्म के ऐसे लोग घुस आते हैं जिनका मकसद सियासत को बतौर ढाल बनाकर अपनी स्वार्थपूर्ति करना मात्र होता है। यही कारण है कि लगभग हर पार्टी  तरह-तरह के नाटक करती हुई अन्त में उन प्रत्याशियों को मैदान में उतारती है जो किसी भी प्रकार चुनाव जीत सकें। यद्यपि कुछ अपवाद भी होते हैं लेकिन ज्यादातर टिकिटों का आधार सैद्धांतिक न होकर जाति, धन और बाहुबल हो गया है। इस प्रकार कतिपय मुद्दों को छोड़ दें तो सभी पार्टियां लगभग एक जैसी होती जा रही हैं। नीतियों का अंतर भी मिट गया है। कौन कब किसके साथ और किसके खिलाफ  हो जाए ये कहना मुश्किल है। शत्रुघ्न सिन्हा रोज भाजपा और नरेंद्र मोदी को गरियाते हैं लेकिन भाजपा में हैं। इसका दुष्प्रभाव राजनीति की गुणवत्ता पर पड़ता गया जिससे सियासत और नेता के प्रति सहज रूप से उत्पन्न होने वाला सम्मान धीरे-धीरे कम होता चला गया। ये सिलसिला कहां जाकर रुकेगा कहना कठिन है किन्तु ये कहना पूरी तरह सत्य है कि राजनीति की छवि का सत्यानाश करने में चुनाव टिकिट का व्यापार सबसे बड़े कारणों में से है। वामपंथी दलों को अपवाद मानकर भले छोड़ दें लेकिन वे भी सिद्धांतविहीन समझौते करने की वजह से अपना जनाधार खोते चले जा रहे हैं। स्नानागार में सभी निर्वस्त्र और हर शाख पे उल्लू बैठा होने जैसी कटाक्षनुमा उक्तियां ऐसी ही परिस्थितियों के मद्देनजर बनी होंगी ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

No comments:

Post a Comment