Saturday 6 October 2018

अर्थव्यवस्था पर अनिश्चितता का साया

अर्थशास्त्र का संबंध यूँ तो सीधे आम आदमी से होता है लेकिन रोचक बात ये है कि वह आम आदमी के पल्ले नहीं पड़ता। उसके सिद्धांत और व्यवहारिक पक्ष के बीच सदैव द्वंदात्मक स्थिति बनी रहती है। भारतीय अर्थव्यवस्था इन दिनों जिस दौर से गुजर रही है उसे देखते हुए कोई ये बताने की स्थिति में नहीं है कि आने वाले समय में  उसकी दशा और दिशा क्या होगी? गत दिवस रिजर्व बैंक ने ब्याज दरें स्थिर रखने का फैसला किया है। रुपये की विनिमय दर डॉलर के मुकाबले गिरते हुए 74 रु. तक जा पहुँची। अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के उछलते दामों ने भारत के विदेशी मुद्रा भंडार पर जबरदस्त दबाव बढ़ा दिया है। बीते कुछ माह से कुलांचे भर रहा शेयर बाजार बीते कुछ दिनों से औंधे मुंह गिरता जा रहा है। बावजूद इसके रिजर्व बैंक को उम्मीद है कि इस वित्तीय वर्ष में विकास दर 7 फीसदी से ऊपर ही रहेगी। दूसरी तरफ  वित्त मंत्री अरुण जेटली भी चिंता की कोई बात नहीं की रट लगाए हुए हैं। जनता के गुस्से से बचने के लिए केंद्र सरकार ने परसों ज्योंही पेट्रोल-डीजल सस्ता किया और एनडीए शासित राज्यों से भी करवाया त्योंही पेट्रोलियम कम्पनियों के शेयर लुढ़कने लगे। इस तरह शेयर बाजार में निवेशकों के अरबों-खरबों रु. देखते-देखते डूब गए। अचानक ये हालात क्यों उत्पन्न हो गए ये किसी को समझ नहीं आ रहा। त्यौहारी सीजन सिर पर है लेकिन कुछ सेक्टर छोड़कर मांग वैसी नहीं जिससे बाजार गुलज़ार हो सकें। रिजर्व बैंक नगदी की समस्या दूर करने में भी जुटा हुआ है। थोक महंगाई भी नियंत्रण में बताई जा रही है। फिर भी अच्छे-अच्छे विशेषज्ञ ये नहीं बता पा रहे कि आखिर ऐसा क्या हो गया जिससे बुलेट ट्रेन की गति से भाग रही अर्थव्यवस्था अचानक पैसेंजर की तरह छुक-छुक करने मजबूर हो गई। आने वाले दिन कैसे रहेंगे इसका अनुमान और अंदाज बड़े-बड़े तुर्रम खाँ भी नहीं लगा पा रहे। पिछले कुछ महीनों तक शेयर बाजार का सूचकांक किस वजह से बढ़ता गया और विदेशी निवेशकों का भारत की अर्थव्यव्यस्था में भरोसा किस आधार पर सुदृढ़ हुआ ये भी रहस्यमय है। डॉलर के मुक़ाबले रुपये का लगातार नीचे जाना कच्चे तेल के दाम बढऩे का परिणाम बताया जा रहा है क्योंकि इससे डॉलर की मांग बढ़ी और वह महंगा होने लगा किन्तु लाख टके का प्रश्न ये है कि इन परिस्थितियों का पूर्वानुमान लगाकर आपातकालीन व्यवस्था क्यों नहीं की गई? भारत का विदेशी मुद्रा भंडार लबालब होने के कारण अर्थव्यव्यस्था में जिस आत्मविश्वास का संचार हुआ था वह एकाएक खतरे में पड़ता नजर आने लगा। हालांकि इसके लिए अमेरिका के ट्रम्प प्रशासन द्वारा ईरान पर लगाए प्रतिबंध मुख्य वजह हैं जिसके कारण भारत को मिलने वाले सस्ते कच्चे तेल की आपूर्ति में अवरोध आ जायेगा। लेकिन ये भी सच है कि  अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियां हमेशा एक समान नहीं रह सकतीं। इस आधार पर अपेक्षित था कि समय रहते जरूरी उपाय किये जाते। रुपये की गिरावट को रोकने के प्रति भी अपेक्षित प्रयास न सरकार की तरफ  से दिखाई दिए और न ही रिजर्व बैंक ने ऐसा कुछ किया जिससे उसकी गंभीरता प्रगट होती। और यदि कुछ किया भी गया तो उसका प्रभाव नहीं दिखा। पेट्रोलियम वस्तुएँ महंगी होती गईं और रुपया गिरता गया लेकिन केंद्र सरकार ने उसे जिस सरलता से लिया उसकी वजह से  अच्छी भली चलती अर्थव्यवस्था अचानक लडख़ड़ाने के स्थिति में आ गई। इसके बाद भी यदि विकास दर 7 फीसदी से ऊपर रहने का अनुमान रिज़र्व बैंक में बैठे विशेषज्ञ लगा रहे हैं और कतिपय विदेशी रेटिंग एजेंसियां उसकी पुष्टि कर रही हैं तब ये बड़ा ही पेचीदा सवाल है कि जब सब कुछ प्रतिकूल है  तब अनुकूलता की उम्मीद का आधार क्या है? शुरू में ही कहा गया है कि अर्थशास्त्र जिस आम आदमी पर सीधा असर डालता है वही उसके तकनीकी और व्यवहारिक पक्ष से अनजान बना रहता है। और इसीलिए जो तथाकथित जानकार कह देते हैं उसे मानने के सिवाय कोई चारा नहीं रहता। लेकिन थोड़ा सा भी सामान्य ज्ञान रखने वाला ये बता सकता है कि अर्थव्यस्था पर अनिश्चितता का जो साया है उसे अच्छा संकेत नहीं कहा जा सकता क्योंकि किसी स्वस्थ मनुष्य के अचानक अस्वस्थ होने से जिस तरह की चिंता होती है ठीक वैसी ही भारतीय अर्थव्यस्था को लेकर इस समय पैदा हो गई है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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