Tuesday 30 October 2018

राम मंदिर से ज्यादा प्राथमिकता और क्या है

सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई ने अयोध्या विवाद पर सुनवाई दो महीने टालते हुए जो टिप्पणी की उसके निहितार्थ को तो समझने वाले समझ ही गए होंगे । जिस आसानी से इस बहुप्रतीक्षित विवाद को उन्होंने आगे बढ़ा दिया उससे तो यही लगता है बीते तीन दशक से पूरे देश को आंदोलित करने वाले इस मुद्दे पर सर्वोच्च न्यायालय जरा भी गम्भीर नहीं है । उल्लेखनीय है सर्वोच्च न्यायालय ने ही इस प्रकरण की दैनिक सुनवाई करने की बात पूर्व में कही थी । पिछले मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के कार्यकाल के अंतिम महीनों में ऐसा एहसास हुआ था कि वे जाते-जाते इस प्रकरण को उसके अन्तिम मुकाम पर ले जाएंगे । दैनिक सुनवाई का निर्णय उसी दिशा में एक कदम था लेकिन उसमें अड़ंगेबाजी की गई । श्री मिश्रा की न्यायपालिका के भीतर ही घेराबंदी कर बदनाम करने का कुचक्र रचा गया । बात तो महाभियोग तक जा पहुंची थी । कांग्रेस नेता कपिल सिब्बल ने तो अदालत में ये मांग कर दी कि अयोध्या विवाद आगामी लोकसभा चुनाव तक टाल दिया जावे । कुल मिलाकर सर्वोच्च न्यायालय में इस मामले को जल्दी निपटाने की बजाय टांगकर रखने के प्रयास ही अधिक हुए। सेवानिवृत्त होने के पहले श्री मिश्रा की अगुआई में तय हुआ था कि 29 अक्टूबर से दैनिक सुनवाई शुरु होगी और शीघ्रातिशीघ्र इस प्रकरण का कानूनी निराकरण हो जायेगा  जिसे मानने की स्वीकृति वे हिन्दू और मुस्लिम संगठन भी दे चुके थे जो शुरुवात में इसे आस्था का प्रश्न मानकर अदालत के क्षेत्राधिकार से परे बताया करते थे ।  इसकी एक वजह ये भी है कि बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी और विश्व हिंदू परिषद सहित अन्य पक्षकारों के दिमाग में भी ये बात गहराई तक बैठ गई कि अदालती समाधान ही सबसे व्यवहारिक और सर्वमान्य होगा । और किसी तरीके से निर्णय करवा पाना लगभग नामुमकिन हो गया था क्योंकि आपसी बातचीत या लेनदेन के जरिये किसी सकारात्मक बिंदु तक पहुंचने की मानसिकता नहीं बन सकी वरना अलाहाबाद उच्च न्यायालय ने विवादित स्थल का तीन हिस्सों में बंटवारा करने संबंधी जो निर्णय दिया था उसके विरुद्ध सभी पक्ष सर्वोच्च न्यायालय में अपीलें लेकर नहीं गये होते।  बहरहाल ये कहने में कुछ भी अनुचित नहीं है कि जब तक श्री मिश्रा मुख्य न्यायाधीश रहे तब तक ये उम्मीद थी कि वे जाते-जाते इस बहुप्रतीक्षित विवाद को हल कर जाएंगे । और इसी वजह से उनको जबरदस्त विरोध का सामना भी करना पड़ा । उनके कार्यकाल के अंतिम महीनों में न्यायपालिका को लेकर इतने बवाल खड़े किये जाने के पीछे भी एक सोची- समझी रणनीति अवार्ड वापसी लॉबी की रही । इसके बावजूद भी चूंकि 29 अक्टूबर से नियमित सुनवाई का निर्णय हो चुका था इसलिए देश को उम्मीद थी कि उनके उत्तराधिकारी रंजन गोगोई इस विवाद को हल करने की दिशा में कदम आगे बढ़ाएंगे । लेकिन कल उस समय निराशा हुई जब मुख्य न्यायाधीश ने जल्द सुनवाई के आग्रह को ठुकराते हुए दो टूक कह दिया कि उनकी प्राथमिकताएं कुछ अलग हैं । अब जनवरी 2019 में नई पीठ ये तय करेगी कि इस प्रकरण की सुनवाई कब शुरू होगी? श्री गोगोई ने तो मार्च , अप्रैल और मई तक की बात कहकर ये इशारा भी कर दिया कि लोकसभा चुनाव तक इस मामले में किसी फैसले की उम्मीद करना व्यर्थ है । गत दिवस ज्योंही सर्वोच्च न्यायालय का फैसला आया त्योंही मंदिर समर्थक लॉबी ने अध्यादेश के जरिये भूमि अधिग्रहण करते हुए मंदिर निर्माण की राह प्रशस्त करने का दबाव बनना शुरू कर दिया । असदुद्दीन ओवैसी तो केंद्र को चुनौती दे रहे हैं कि वह अध्यादेश लाकर दिखाए। अयोध्या आंदोलन से जुड़े साधु-संत भी कल के निर्णय से अधीर होते दिखे । भाजपा और संघ परिवार के बीच से भी केंद्र सरकार से मंदिर निर्माण के रास्ते से समस्त अवरोध हटाने हेतु अध्यादेश के जरिये विवादित भूमि अधिग्रहण का अनुरोध किया जाने लगा है । रास्वसंघ के स्थापना दिवस विजयादशमी पर नागपुर के वार्षिक आयोजन में भी संघ प्रमुख डॉ. मोहन भागवत ने केंद्र से मंदिर निर्माण हेतु कानून बनाने की मांग की थी । गत दिवस सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दैनिक सुनवाई टालकर मामला महीनों आगे खिसका देने के बाद भी ये स्पष्ट नहीं है कि आखिरकार इसकी सुनवाई कब शुरू होगी और कब तक चलेगी? सर्वोच्च न्यायालय चूंकि स्वतन्त्र है इसलिए सरकार उससे अनुरोध तो कर सकती है किन्तु दबाव नहीं डाल सकती । और फिर जिन परिस्थितियों में श्री गोगोई मुख्य न्यायाधीश बने वे भी सरकार के लिहाज से प्रतिकूल ही कही जावेंगी। ऐसे में श्री गोगोई ने यदि कह दिया कि उनकी प्राथमिकताएं अलग हैं तो इससे उन लोगों को तो कोई अचंभा नहीं हुआ जो बीते कुछ महीनों में सर्वोच्च न्यायालय में घटित घटनाचक्र से भली-भांति परिचित रहे किन्तु आम देशवासी को ये जानकर अटपटा लगा होगा कि न्याय की सर्वोच्च पीठ के सर्वोच्च महानुभाव को अयोध्या मुद्दा प्राथमिकता के आधार पर सुना जाने योग्य नहीं लगा। इन हालातों में 1990 और 1992 जैसे हालात बन जाएं तो कोई आश्चर्य नहीं करना चाहिए ।  बीते सप्ताह इसी सर्वोच्च न्यायालय ने सीबीआई विवाद की जांच करने हेतु सीवीसी को विशेष अनुरोध करने पर मात्र 15 दिन में जांच पूर्ण कर रिपोर्ट बन्द लिफाफे में सौंपने का हुक्म जारी किया। जब सरकारी वकील ने बीच में दीपावली अवकाश का मुद्दा उठाया तो अदालत ने ये कहकर फटकार लगाई कि सीबीआई और सीवीसी भी कहीं छुट्टियां मनाते हैं। लेकिन जो जानकारी सामने आ रही है उसके अनुसार आगामी दो महीने में सर्वोच्च न्यायालय में छुट्टियों का लम्बा दौर चलेगा। अच्छा तो तब होता जब सर्वोच्च न्यायालय अवकाश के दिनों में भी अयोध्या मसले पर सुनवाई कर राष्ट्र की चिंता को दूर करने में सहायक होता। मुख्य न्यायाधीश की इसे टाल देने के पीछे क्या सोच रही ये तो वे ही बेहतर जानते होंगे किन्तु उन्होंने जिस हल्के-फुल्के अंदाज में उसे अपनी प्राथमिकताओं से अलग बताया उसकी प्रतिक्रिया अच्छी नहीं हो रही। अब तक तो नेताओं पर इस मामले को टरकाते रहने का आरोप लगता रहा है लेकिन अब सर्वोच्च न्यायालय भी वही करता नजर आ रहा है । ये सवाल भी स्वाभाविक है कि अयोध्या विवाद से ज्यादा और महत्वपूर्ण क्या हो सकता है जो पिछले तीस सालों से देश की राजनीति के केंद्र में बना हुआ है ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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