Friday 26 October 2018

सावजी ढोलकिया का अनुकरणीय कृत्य

दुनिया के सबसे रईस रहे वारेन बफेट ने एक मर्तबा भारतीय धनकुबेरों की कंजूसी पर तंज कसते हुए कहा था कि वे परोपकार और दान से बहुत दूर रहते हैं। दरअसल  बफेट और उन्हीं के देश के बिल गेट्स सदृश अन्य धनपतियों द्वारा जिस दरियादिली का परिचय देते हुए अपनी संपत्ति और कमाई का बड़ा हिस्सा परोपकार हेतु दान किया जाता रहा है उसकी तुलना में वाकई भारतीय उद्योगपतियों का योगदान इस दिशा में नगण्य ही रहा है। हालांकि मंदिर, धर्मशालाएं, विद्यालय और अस्पताल आदि बनवाने के लिए ये वर्ग अपनी तिजोरी से धन निकालता रहा लेकिन सही मायनों में  जिसे परोपकार कहा जाता है उस मद में उनका योगदान बहुत ज्यादा नहीं कहा जा सकता। बड़े औद्योगिक घरानों ने बीते कुछ दशक से शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में कदम रखा किन्तु इक्का-दुक्का छोड़कर उनके अधिकांश प्रकल्प व्यावसायिक उद्देश्य से ही संचालित हैं  जिनमें परोपकार का दिखावा होता है। यही नहीं अपने कर्मचारियों का हितचिंतन करने के प्रति भी औद्योगिक घरानों का रवैया प्रशंसनीय नहीं रहा। हालांकि बीते कुछ सालों में परिदृश्य थोड़ा बदला है। विप्रो के अध्यक्ष अज़ीम हाशिम प्रेमजी ने अपनी कमाई का काफी बड़ा हिस्सा दान कर दिया। उनकी देखासीखी कुछ और धनकुबेर भी सामने आए। यद्यपि इस जमात में बहुत से ऐसे भी हैं जो दान का ढिंढोरा नहीं पीटते। टाटा घराने का नाम इनमें अग्रणी है। लेकिन जिस तरह की दानशीलता वारेन बफेट, बिल गेट्स और विकसित देशों के अन्य उद्योगपति दिखाते हैं वह हमारे देश में बिरली ही नजर आती है। कुछ लोग ऐसे हैं जिनकी उदारता प्रशंसा बटोरने के लिए होती है या उसके पीछे किसी स्वार्थसिद्धि का मकसद निहित होता है। आजकल राजनीतिक नेताओं के अलावा सरकारी अधिकारियों की पत्नी एवं अन्य परिजन स्वयंसेवी संगठन (एनजीओ) बनाकर उनके लिए जो दान बटोरते हैं वह भी अप्रत्यक्ष रूप से चंदा या रिश्वत ही होती है। जैसा सन्दर्भित है उस तरह की दानशीलता भारतीय औद्योगिक घरानों में कम ही नजर आती है। लेकिन बीते कुछ वर्षों में गुजरात के हीरा व्यापारी सावजी ढोलकिया ने दीपावली पर अपने कर्मचारियों को बतौर बोनस महंगे उपहार देने का जो चलन शुरू किया वह अपने आप में अनूठा है। कभी कार तो कभी फ्लैट बतौर बोनस बांटकर वे चर्चा में रहते हैं। इस वर्ष भी अपने 600 कर्मचारियों को कारें और कुछ को रिहायशी फ्लैट दीपावली पर उपहार के तौर पर वे देने जा रहे हैं। पिछले वर्षों की तरह इस वर्ष भी सावजी की ये उदारता समाचारों की सुर्खियां बन गई। यद्यपि हीरों के व्यापार में अरबों-खरबों का मुनाफा होता है इसलिए कहने वाले कह सकते हैं कि सावजी की उदारता सामान्य बात है लेकिन हीरे के अंतर्राष्ट्रीय कारोबारी नीरव मोदी और मेहुल चौकसी बैंकों का अरबों-खरबों डकारकर विदेश भाग गये वहीं सावजी अपनी मोटी कमाई का बड़ा हिस्सा अपने कर्मचारियों में बांटकर उनको प्रोत्साहित करते हुए मालिक और कर्मचारी सम्बन्धों के आत्मीय संबंधों का सकारात्मक रूप प्रस्तुत कर रहे हैं जो अन्य व्यवसायियों और उद्योगपतियों के लिए भी अनुकरणीय है। हीरे के कारोबार में हस्तकौशल बेहद महत्वपूर्ण होता है। उसी के साथ ईमानदारी  भी मायने रखती है। उस लिहाज से जैसी जानकारी मिली सावजी हीरे तराशने वालों की कार्यकुशलता के अनुरूप उन्हें पुरस्कृत करते हैं जिनसे उनमें अपनी कार्यक्षमता और गुणवत्ता बढ़ाने की प्रवृत्ति विकसित हो सके। सावजी के इस व्यवहार को भारत की महाजनी परंपरा का निर्वहन माना जा सकता है। यदि अन्य व्यवसायी और उद्योगपति भी ऐसी ही दरियादिली का प्रदर्शन करने लग जाएं तो देश में कार्यसंस्कृति का विकास अंतर्राष्ट्रीय मानकों के अनुरूप हो सकता है। कर्मचारियों में कार्यकुशलता और उद्यमशीलता बढ़ाने के लिए केवल जुबानी प्रशंसा ही नहीं अपितु आर्थिक लाभ भी मिलना चाहिए। सरकारी अनुदान ने हमारे देश में उद्यमशीलता का सत्यानाश कर दिया है। सावजी  जैसे उद्योगपति देश में कार्यसंस्कृति का समुचित विकास करने के प्रेरणास्रोत बन सकते हैं। बशर्ते उद्योग जगत उनका मजाक उड़ाने के बजाय उनका अनुसरण करे। श्रमिक की गरिमा का जो सिद्धांत विकसित देशों में है वह मुफ्तखोरी की बजाय कार्यकुशलता को प्रोत्साहित करने से ही बनी रह सकती है ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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