Tuesday 16 October 2018

तेल : जनता अर्थशास्त्र की बारीकी नहीं जानती

पेट्रोल-डीजल के दाम घटने पर पूरे देश ने राहत की सांस ली थी। ऐसा लगा मानों रोज बढऩे वाली कीमतों से जनता को राहत मिल जाएगी। केंद्र के साथ-साथ पेट्रोलियम कंपनियों और भाजपा शासित राज्यों ने भी उसमें सहयोग किया। लेकिन अगले दिन से ही मूल्यवृद्धि रूपी घड़ा बूंद-बूंद फिर भरने लगा। और धीरे-धीरे केंद्र सरकार द्वारा की गई मेहरबानी पर पानी फिर गया। दाम छोटी-छोटी छलांग लगाते हुए जैसे थे की स्थिति में पहुंच रहे हैं। यह सिलसिला जारी रहा तो मूल्यों में कमी का कर्मकांड निरर्थक होकर रह जाएगा। दूसरी तरफ अंतर्राष्ट्रीय पस्थितियां और भी खतरनाक संकेत दे रही हैं। अमेरिका के सनकी लगने वाले राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने ईरान से तेल न खरीदने का दबाव बनाकर भारत सदृश देश के लिए नया संकट उत्पन्न कर दिया है जो अपनी जरूरत का 84 फीसदी कच्चा तेल आयात करता है। विश्व में चीन और अमेरिका के बाद भारत तीसरा सबसे बड़ा तेल आयातक है।  व्यापार असंतुलन की वजह से ये आयात समूची अर्थव्यवस्था पर बोझ बन गया है। विदेशी मुद्रा भंडार का बड़ा हिस्सा उस पर खर्च होने से भारतीय रुपये की विनिमय डर डॉलर के मुकाबले लगातार कमजोर होने से ऊंची विकास दर के दावे हवा-हवाई हो रहे हैं। ईरान पर तरह-तरह के प्रतिबंध थोपने के बाद अब राष्ट्रपति ट्रम्प ने अरब जगत में अपने सबसे निकटस्थ मित्र सऊदी अरब पर निगाह टेढ़ी कर दी है। उस पर जिस तरह दबाव बनाया जा रहा है उससे नाराज होकर सऊदी अरब ने कच्चे तेल का उत्पादन घटाने की धमकी देना शुरू कर दिया है। इसका दुनिया पर जो असर होगा सो होगा किन्तु भारत का तो तेल निकल जायेगा। ऐसे में पेट्रोल-डीजल के दाम कम होने की उम्मीदें लगभग शून्य हैं। हाल ही में हुए एक सर्वेक्षण के अनुसार भारत का कच्चा तेल आयात घटने की बजाय बढ़ता ही जा रहा है। वाहनों की बिक्री में भी वृद्धि देखी जा रही है। भारत सरकार ने हालांकि 2020 के बाद से बैटरी चलित वाहनों के उत्पादन की अनिवार्यता तय कर दी है किन्तु अभी तक इस दिशा में जो प्रगति हुई है उसे देखकर कोई उम्मीद पाल लेना गलत होगा। ई-रिक्शा रूपी प्रयोग भी अपेक्षित परिणाम नहीं दे पा रहा। देश में बैटरियों का उत्पादन भावी जरूरतों के मद्देनजर कितना हो पायेगा ये बताने के स्थिति में कोई भी नहीं है। सबसे बड़े तेल आयातक होने के बाद भी चीन ने वैकल्पिक ऊर्जा से चलने वाले वाहनों के उत्पादन और उपयोग में समय रहते जो वृद्धि की उसकी वजह से वह भारत जैसी स्थिति से बचने में सफल हो गया। मौजूदा परिवहन मंत्री नितिन गड़करी  ने जरूर बेहद पेशेवर और व्यवहारिक दृष्टिकोण के साथ पेट्रोल में एथनॉल मिलाकर उसके दाम घटाने की कार्ययोजना पेश की है किंतु वह भी कितनी सफल होगी ये स्पष्ट नहीं हो पा रहा। ये सब देखते हुए ये कहा जा सकता है कि भारत पेट्रोलियम वस्तुओं के बढ़ते दामों को लेकर जबरदस्त संकट में फंसने वाला है। चुनावी वर्ष में सत्तारूढ़ गठबन्धन के लिए ये स्थिति दूबरे में दो आसाढ़ जैसी है क्योंकि भारतीय जनमानस को अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों के मद्देनजर वस्तुस्थिति से अवगत करवाना बेहद कठिन है। पहले ये उम्मीद लगाई जा रही थी कि जीएसटी लागू होने के बाद पेट्रोलियम वस्तुएं भी उसके दायरे में आ जाएंगी जिससे उनके दाम भी अन्य पड़ोसी देशों के समकक्ष हो जाएंगे किन्तु वित्तमंत्री अरुण जेटली ही नहीं राज्य सरकारें भी इसके लिए तैयार नहीं हुईं जिससे पेट्रोल-डीजल पर सरकारी मुनाफाखोरी जारी रही। सरकार को उम्मीद रही होगी कि तेल उत्पादक देश उत्पादन बढ़ाकर दाम गिराने में सहयोगी बनेंगे किन्तु अमेरिका के साथ चल रहे तनाव ने उस संभावना पर पानी फेर दिया। ताजा खबरों के मुताबिक सऊदी अरब को जिस तरह की धमकी राष्ट्रपति ट्रम्प दे रहे हैं और उसका जैसा जवाब सऊदी शाही घराना दे रहा है उससे कच्चे तेल में और उबाल आने की आशंका से भारत की चिंता बढऩा स्वाभाविक है। चूंकि मोदी सरकार और उसकी देखासीखी राज्य सरकारों ने भी पेट्रोल-डीजल को अपनी अतिरिक्त कमाई का जरिया बनाकर उसके बलबूते विकास का ढांचा खड़ा करने की नीति अपना रखी है इसलिए जीएसटी में उन्हें शामिल करने या अन्य तरीके से जनता को राहत देने जैसी कोई सम्भावना भी दूरदराज तक नजर नहीं आ रही। ये सब देखते हुए आने वाले कुछ महीने भारी उथलपुथल भरे रहेंगे। पांच राज्यों की विधानसभाओं के बाद लोकसभा और उसी के संग कुछ विधानसभाओं के चुनाव होने हैं। ऐसे में केंद्र की मोदी सरकार किस तरह से जनता का गुस्सा शांत करेगी ये सोचने वाली बात है क्योंकि लगभग रोज बढऩे वाले दामों से आम उपभोक्ता की नाराजगी भी बढ़ती जा रही है। सत्ता में बैठे महानुभावों को ये नहीं भूलना चाहिए कि देश का आम नागरिक अर्थशास्त्र और अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों को नहीं समझता। उसकी चिंता उसकी खाली होती जेब है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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