Wednesday 29 March 2023

परदे के पीछे कांग्रेस मुक्त विपक्ष का खेल शुरू हो गया



संसद में जारी गतिरोध की वजह से इन दिनों विपक्षी पार्टियों के बीच भावनात्मक एकता का प्रदर्शन हो रहा है | हालाँकि गौतम अडानी प्रकरण पर जेपीसी के गठन की मांग पर कांग्रेस द्वारा किये जा रहे आन्दोलन में तो सारे विपक्षी दल साथ नहीं  दिखे लेकिन राहुल गांधी की लोकसभा सदस्यता खत्म किये जाने के मुद्दे पर तकरीबन सभी  विरोधी पार्टियों के नेताओं ने हम साथ - साथ हैं का नारा लगाने में संकोच नहीं किया | इस समय दो पार्टियां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से बेहद नाराज हैं | पहली आम आदमी पार्टी और दूसरी कांग्रेस | पहली का गुस्सा मनीष सिसौदिया की गिरफ्तारी पर है तो दूसरे की नाराजगी राहुल को सजा मिलने और सदस्यता खत्म होने पर है | हालाँकि इन दोनों के बीच सांप और नेवले जैसा बैर  है | आज कांग्रेस जिस दुरावस्था में है उसके लिये जितनी भाजपा जिम्मेदार है उतनी ही आम आदमी पार्टी भी | लेकिन इन  दिनों  दोनों एक साथ नजर आ रहे हैं | हालाँकि इसके पीछे किसी भी प्रकार का वैचारिक परिवर्तन न होकर आपातकालीन व्यवस्था है | यही वजह है कि तृणमूल कांग्रेस जो किसी भी स्थिति में राहुल के नेतृत्व को स्वीकार नहीं रही , वह भी सदस्यता समाप्ति पर श्री खड़गे  के यहाँ  भोजन और बैठकों में नजर आ रही है | यही हाल कमोबेश सपा , जनता दल ( यू ) और बीआरएस का भी है | कांग्रेस ने दिल्ली में आबकारी घोटाले को लेकर आम आदमी पार्टी को कठघरे में खड़ा किया था परन्तु श्री सिसौदिया लपेटे में आये तो उसे दबी जुबान उनकी गिरफ्तारी का विरोध करना पड़ा | यही सौजन्यता बदले में अरविन्द केजरीवाल ने दिखाई | दो दिन पहले ही उनको विधानसभा में ये कहते सुना गया कि भाजपा ने बीते 7 साल में कांग्रेस के 75 साल जितना लूटा | लेकिन उसके फौरन बाद उनकी पार्टी उसी कांग्रेस के साथ बैठक और भोजन में शामिल हो गयी | इसके बाद से ये उम्मीद बढ़ चली कि राहुल की सदस्यता छीनकर केंद्र सरकार ने कांग्रेस को आपदा में अवसर दे दिया क्योंकि जो विपक्षी पार्टियाँ उसके पास आने राजी नहीं थीं वे दौड़ी – दौड़ी चली आ रही हैं | भाजपा विरोधी यू - ट्यूबर पत्रकार भी ये प्रचारित करने में जुट गये कि विपक्षी एकता का जो काम राहुल की भारत जोड़ो यात्रा न कर सकी वह सूरत की अदालत से आये फैसले के बाद सांसदी छिन जाने से हो गया | राजनीति चूंकि संभावनाओं का खेल है इसलिए इस तरह के कयास लगाने गलत नहीं हैं | और जब भाजपा कश्मीर में महबूबा मुफ्ती से गठबंधन कर सकती है और कांग्रेस ने शिवसेना को गले लगा लिया तब सोचने के लिए कुछ बचता ही कहाँ हैं ? इसलिये जब अडानी मामले में आंशिक और राहुल के मुद्दे पर तकरीबन पूरी – पूरी विपक्षी एकता नजर आई तो किसी को आश्चर्य नहीं हुआ | बेमेल गठबंधन और सुविधा के साथ ही संकट के समय किये जाने वाले सियासी प्रबंधों को अब जनता भी स्वीकार कर ही लेती है | 2019 के लोकसभा चुनाव में मैनपुरी सीट पर  मायावती को मंच पर मुलायम सिंह के बगल में बैठे देखना किसी अजूबे से कम न था | हालांकि , ऐसे समझौते टिकाऊ नहीं होते क्योंकि जितने भी क्षेत्रीय या छोटे दल हैं वे सैद्धांतिक या वैचारिक के बजाय व्यक्ति , परिवार , भाषा या प्रांतवाद से प्रेरित और प्रभावित होते हैं | इसीलिये उनकी सोच सीमित रहती है | इसके विपरीत राष्ट्रीय पार्टी को बहुत सी मर्यादाओं का पालन करना पड़ता है | देश में इस समय भाजपा के अलावा कांग्रेस और वामपंथी दल ही हैं जिनकी सोच और दायरा सही अर्थों में राष्ट्रीय कहा जा सकता है किन्तु जनता के बीच पकड़ कमजोर होने के कारण ये दोनों ऐसी क्षेत्रीय पार्टियों के साथ गठजोड़ करने बाध्य हैं जिनसे इनका वैचारिक मेल नहीं है | ऐसे गठबंधन कर तो भाजपा भी रही है लेकिन वह छोटे दलों को साथ लाकर अपना प्रभावक्षेत्र बढाने में सफल रही जबकि कांग्रेस और वामपंथी  क्षेत्रीय दलों को साथ लेने से अपनी जमीन गँवा बैठे | 1990 में लालकृष्ण आडवाणी की रथ यात्रा को लालू यादव द्वारा रोके जाने पर भाजपा ने केंद्र की वीपी सिंह के अलावा उ.प्र में मुलायम सिंह यादव और बिहार में लालू यादव की  सरकार से समर्थन वापस ले लिया | उसके बाद कांग्रेस ने इन दोनों को टेका लगाकर भाजपा के विरुद्ध जो मोर्चेबंदी की उसका ही नुकसान है  कि देश को 120 लोकसभा सीटें देने वाले इन दोनों राज्यों में कांग्रेस दयनीय स्थिति में जा पहुँची | यही हाल वामपंथियों का हुआ | आज हालत ये हो गयी कि जिन छोटे – छोटे क्षेत्रीय दलों ने कांग्रेस को हाशिये पर ला खड़ा किया वे ही उस पर अपनी शर्तें लादने की हिमाकत कर रहे हैं | इसका ताजा उदाहरण उद्धव ठाकरे ने राहुल गांधी के सावरकर विरोधी बयान पर गठबंधन तोड़ने की धमकी के रूप में पेश किया | उनके सुर में सुर मिलाते हुए शरद पवार ने भी कांग्रेस  को सावरकर के बारे में बोलते समय महाराष्ट्र के लोगों की भावनाओं का ध्यान रखने की समझाइश दे डाली | क्षेत्रीय दलों के सहारे मोदी विरोधी जमावड़ा खड़ा करने की कांग्रेसी योजना को उस समय धक्का लगा जब उसके साथ आन्दोलन कर रहे क्षेत्रीय दलों के नेताओं की ओर से ये संकेत मिले कि वे बजाय कांग्रेस के झंडे तले आये , एक दूसरे को उनके प्रभाव क्षेत्र में सहायता करेंगे | मसलन ममता कर्नाटक के बंगला भाषी  क्षेत्रों में जनता दल ( सेकुलर ) का प्रचार करेंगी  तो अखिलेश यादव और श्री केजरीवाल तेलंगाना में के.सी .राव  की पार्टी  के पक्ष में दौरे करेंगे | इसी तरह नीतीश भी अनेक क्षेत्रीय दलों के समर्थन में उनके राज्यों में जायेंगे | झरखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन आदिवासी क्षेत्रों में घूमकर वहां के क्षेत्रीय दल को सहायता देने राजी हैं | ये संकेत आने के बाद कांग्रेस को घबराहट हो रही है क्योंकि यदि क्षेत्रीय दलों ने उसके साथ आने की बजाय परस्पर एक दूसरे के पक्ष में प्रचार करने की रणनीति अपनाई तो उससे भाजपा का तो जो होगा सो होगा , लेकिन कांग्रेस की मुश्किलें और बढ़ जायेंगी तथा राहुल को प्रधानमंत्री बनाने का उसका सपना धरा रह जाएगा | 2014 में नरेंद्र मोदी ने कांग्रेस मुक्त भारत का नारा देकर कांग्रेस को इतने मनोवैज्ञानिक दबाव में ला दिया कि वह  क्षेत्रीय दलों के नखरे उठाने मजबूर हो गयी | लेकिन अब ऐसा लगता है कि वे भी उसकी  कमजोरी को भांपकर उसे दोबारा उठने देने के लिए राजी नहीं हैं | और इसीलिये भले ही तीसरा मोर्चा औपचारिक तौर पर न बने लेकिन कांग्रेस मुक्त विपक्ष की कल्पना को साकार करने की रूपरेखा परदे के पीछे बनने लगी है | यदि कांग्रेस इसे न समझ सके तो ये उसकी गलती है |


- रवीन्द्र वाजपेयी 

No comments:

Post a Comment