Saturday 18 March 2023

क्षेत्रीय दल बन रहे कांग्रेस के लिए मुसीबत



कांग्रेस  के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी की  बहुचर्चित भारत जोड़ो यात्रा के पूर्ण होने के बाद ये माना जा रहा था कि इस यात्रा से उनका नया  अवतार हुआ है जो पूर्वापेक्षा ज्यादा परिपक्व , गंभीर और दायित्वबोध से परिपूर्ण है | मोदी विरोधी मीडिया विशेष रूप से यू ट्यूबर पत्रकारों ने तो उनमें भावी प्रधानमंत्री की छवि देखनी भी शुरू कर दी | यात्रा खत्म होने के बाद से कांग्रेस सुनियोजित तरीके से श्री गांधी को राष्ट्रीय राजनीति के केंद्र में लाने का प्रयास कर रही है | नागपुर में हुए कांग्रेस के 85 वें अधिवेशन में सोनिया गांधी ने राजनीति से सन्यास लेने का संकेत देने के साथ ही  उक्त यात्रा को राजनीति का टर्निंग प्वाइंट बताकर बाकी विपक्षी दलों को ये संकेत दे दिया कि अब उन्हें राहुल के नेतृत्व में ही कार्य करना होगा | सही मायनों में भारत  जोड़ो यात्रा का असली उद्देश्य था ही श्री गांधी को राष्ट्रीय राजनीति के केंद्र बिंदु में स्थापित करना, जिससे उन्हें 2024 के लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री पद हेतु नरेंद्र मोदी के मुकाबले विपक्ष के संयुक्त उम्मीदवार के रूप में पेश किया जा सके | यात्रा के बाद कुछ समय तो उसका असर दिखा किन्तु जल्द ही विपक्षी दलों  ने इस बात का आकलन करना शुरू कर दिया कि कांग्रेस के साथ जाने में फायदा होगा या दूर रहने में | विशेष रूप से वे क्षेत्रीय दल जो  कांग्रेस से निकलकर बने या फिर उनके प्रभावक्षेत्र में कांग्रेस की स्थिति बेहद कमजोर है ,उसे किसी भी प्रकार से महत्व  देने तैयार नहीं हैं | यही वजह है कि शरद पवार जैसे नेता भी , जिसने महाराष्ट्र में कांग्रेस को शिवसेना  के साथ मिलकर सरकार बनाने के लिये मजबूर कर दिया , कांग्रेस के नेतृत्व में चलने से बच रहे हैं | संसद में गौतम अडानी समूह को लेकर जो गतिरोध इस सत्र में बना हुआ है उसमें कांग्रेस के साथ एनसीपी , तृणमूल कांग्रेस , सपा , बीजद , वाईएसआर कांग्रेस , तेलुगुदेशम , बसपा जैसी पार्टियों के न आने से विपक्षी एकता का जैसा स्वरूप कांग्रेस चाहती है वह नहीं  बन पा रहा | इसका प्रत्यक्ष प्रमाण गत दिवस सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव द्वारा कोलकाता में ममता बैनर्जी से मिलकर क्षेत्रीय दलों का भाजपा और कांग्रेस विरोधी मोर्चा बनाने की घोषणा से हुआ | भले ही अभी बाकी क्षेत्रीय दलों की सहमति नहीं मिल पाई किन्तु ममता और अखिलेश ही यदि कांग्रेस को किनारे करने आगे आये तो प.बंगाल और उ.प्र में लोकसभा की 125  सीटों पर वह लड़ाई में नजर आने लायक तक  नहीं रहेगी | और यही ममता चाहती रही हैं जिससे प्रधानमंत्री के लिए मुकाबला राहुल  बनाम  मोदी बनाने की कांग्रेस की सोच कारगर न  हो सके | संसद में जो क्षेत्रीय दल कांग्रेस अध्यक्ष द्वारा बुलाई जा रही बैठकों से दूरी बनाये हुए हैं वे भी अपने फायदे के लिए सपा और तृणमूल द्वारा बनाये जा रहे तीसरे मोर्चे में आ सकते हैं | इस बारे में  उल्लेखनीय है कि उक्त दोनों नेता ये समझ गये हैं कि चुनाव पूर्व कांग्रेस के साथ गठबंधन से उसको  फायदा होगा क्योंकि वह उनके राज्यों में भी सीटें मांगेगी | लेकिन चुनाव बाद यदि किसी को बहुमत न  मिला तब 25 – 30 सांसदों वाले गुट के पास सत्ता की चाबी  होगी | जितने भी चुनाव सर्वे आ रहे हैं उनके अनुसार कांग्रेस किसी भी स्थिति में 100 का आंकडा छूने की स्थिति में नहीं है | और उससे कहीं ज्यादा ताकत क्षेत्रीय दलों के पास संयुक्त रूप से  रहेगी | जिससे भाजपा - कांग्रेस को पीछे छोड़कर ममता या वैसा ही अन्य कोई विपक्षी नेता प्रधानमंत्री बन सकेगा | देवगौड़ा और गुजराल जैसे प्रयोग को दोहराए जाने की सोच अखिलेश और ममता के मन में हैं | चाहते तो श्री पवार भी मन ही मन कुछ – कुछ ऐसा ही हैं परन्तु वे चुप रहकर काम करने वालों में से हैं | इसीलिये विपक्षी मोर्चे के सवाल पर उन्होंने ये प्रस्ताव दिया था कि जो विपक्षी पार्टी जहां ताकतवर है उसे उसके राज्य में  भाजपा से लड़ने दिया जाए | और चुनाव बाद आगे की राजनीति तय हो  | यद्यपि उनके सुझाव पर किसी ने भी प्रतिक्रया नहीं दी लेकिन इस सबसे एक बात साफ़ हो रही है कि भाजपा के विरोध में मोर्चा बनाने की बजाय कुछ विपक्षी दल कांग्रेस की राह में कांटे बिछाने सक्रिय हो उठे हैं | दरअसल 2017 में  कांग्रेस  के साथ  मिलकर उ.प्र विधानसभा चुनाव लड़ने का जो कटु अनुभव अखिलेश को है उसके  कारण वे राहुल के साथ खड़े होने राजी नहीं है | ममता भी इस बात से खार खाये बैठी हैं कि कांग्रेस उनके घोर शत्रु वामपंथियों के साथ प.बंगाल के साथ ही पूर्वोत्तर राज्यों में गठबंधन बनाये हुए है | ये सब देखते हुए  कहना पड़ रहा है कि श्री गांधी की भारत जोड़ो यात्रा का क्या लाभ उन्हें या कांग्रेस को हुआ ये तो फिलहाल कहना मुश्किल है लेकिन इतना जरूर समझ में आने लगा है कि वह पूरे  विपक्ष को भाजपा के विरुद्ध जोड़ने में विफल साबित हो रही है | अखिलेश और ममता की जुगलबंदी से एक बात शीशे की तरह से साफ है कि क्षेत्रीय दल अपने अस्तित्व के लिये भाजपा से भयभीत तो हैं लेकिन वे कांग्रेस को भी दोबारा उभरने का अवसर भी नहीं देना चाह रहे |

रवीन्द्र वाजपेयी 


No comments:

Post a Comment