Thursday 4 August 2022

मुफ्तखोरी रोकने सर्वोच्च न्यायालय को ही कुछ करना होगा



क्या होगा , क्या नहीं ये तो फिलहाल कह पाना कठिन है लेकिन संतोष का विषय है कि चाहे – अनचाहे ही सही ,  मुफ्त उपहारों के चुनावी वायदों का औचित्य कम से कम राष्ट्रीय विमर्श का विषय तो बनने लगा है | गत दिवस इस बारे में सर्वोच्च न्यायालय में प्रस्तुत याचिका पर हुई बहस के दौरान जो कुछ  सुनने मिला उससे तो लगता है कि सर्वोच्च न्यायालय और सरकार दोनों चाह रहे हैं कि चुनावों के दौरान किये जाने वाले मुफ्तखोरी के ऐसे वायदों पर रोक लगे जिनकी वजह से राजनीतिक दलों की झोली तो वोटों से भर जाती है लेकिन सरकारी खजाना खाली हो जाता है | आज केंद्र और राज्य दोनों ही सरकारों पर असाधारण कर्ज का बोझ है | उसका ब्याज चुकाने के लिए भी नया कर्ज लेने की मजबूरी बन जाती है | ऐसे में अर्थव्यवस्था का जो राजनीतिकरण हुआ उसकी वजह से चिंताजनक स्थितियाँ पैदा हो गई हैं | उल्लेखनीय बात ये है कि न्यायालय और केंद्र सरकार दोनों चाहते हैं कि चुनाव आयोग इस प्रवृत्ति पर रोक लगाए | इस याचिका में राज्यसभा सांसद और वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल , सालिसिटर जनरल तुषार मेहता और याचिका की सुनवाई कर रही प्रधान न्यायाधीश की अगुआई वाली पीठ ने संसद में इस मुद्दे पर विचार की बात कही | लेकिन न्यायालय ने ही ये सवाल कर दिया कि क्या आपको लगता है कि संसद में इस विषय पर चर्चा होगी क्योंकि आज हर कोई मुफ्त में कुछ पाना चाहता है और जहाँ तक बात गरीबों के कल्याण की है तो  इसकी भी सीमा होनी चाहिए | न्यायालय ने तल्ख़ लहजे में कहा कि चुनाव आयोग समय रहते  कदम उठा लेता तो ये नौबत न आती |  इसके बाद उसने केंद्र सरकार और चुनाव आयोग को निर्देश दिया कि वह इस मुद्दे पर  नीति आयोग , वित्त आयोग , रिजर्व बैंक , विधि आयोग एवं विभिन्न राजनीतिक दलों की बैठक बुलाए | निश्चित रूप से ये बहुत ही सामयिक  किन्तु संवेदनशील मुद्दा बनता जा रहा है | राजनीतिक दलों द्वारा चुनाव के दौरान किये जाने वाले मुफ्तखोरी के वायदों का एकमात्र उद्देश्य येन केन प्रकारेण चुनाव जीतना होता है | लेकिन  उनको अमल में लाने  के लिए आर्थिक संसाधन कहाँ से  आयेंगे इसका उत्तर किसी के पास नहीं रहता | इस बारे में एक बात अच्छी हो रही है कि राजनीतिक नेताओं को कठघरे में खड़ा करने की मुहिम जनता के बीच चल रही है | मसलन सरकार द्वारा रेल गाड़ियों में वरिष्ट नागरिकों को दी जाने वाली रियायत दोबारा शुरू न किये जाने के ऐलान के बाद सोशल मीडिया पर सांसदों और विधायकों की मुफ्त यात्रा पर भी रोक लगाने की मांग जोर पकड़ने लगी | इसी तरह उनको मिलने वाली पेंशन का भी जमकर विरोध होने लगा है | इसलिये  सर्वोच्च न्यायालय को भी ऐसे मसलों पर असमजंस त्यागकर कड़ा फैसला करना चाहिए | उदाहरण के लिए चुनावी वायदों को कानूनी शपथ पत्र मानकर उन्हें पूरा न किये जाने पर सम्बंधित राजनीतिक दल की मान्यता खत्म करने जैसा प्रावधान किया जावे  | ये सवाल भी उठ रहा है कि क्या खाद्य सुरक्षा के अंतर्गत मिलने वाला मुफ्त अनाज भी बंद किया जाना चाहिए तो इस बारे में सर्वोच्च न्यायालय ने ही वर्ष 2010 में केंद्र सरकार को आदेश दिया था कि अनाज को सरकारी गोदामों में सड़ाने की बजाय गरीबों में बाँट देना चाहिए | इस पर जब तत्कालीन कृषि मंत्री शरद पवार ने संसद में ना - नुकुर की तब सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट तौर पर कहा कि वह उसका आदेश है , सुझाव नहीं | लेकिन गत दिवस संदर्भित याचिका पर विचार करते हुए उसने कहा कि गरीबों के कल्याण के कार्यक्रमों की भी सीमा होनी चाहिए | उसका ये कहना भले ही सांकेतिक लगता हो लेकिन ये एक तरह से नीति - निर्देशक बन सकता है | मुफ्त अनाज वितरण का आदेश देते हुए न्यायालय ने ये भी कहा था कि उसे सड़ाने  से अच्छा है गरीबों को दे दिया जाए | अर्थात ये अतिरिक्त  उत्पादन और भंडारण की स्थिति पर निर्भर है |  गरीबों को दी जाने वाली सुविधाओं के साथ ये भी देखा जाना चाहिए कि उससे उनमें उद्यमी प्रवृत्ति तो खत्म नहीं हो रही | देश की अर्थव्यवस्था में बड़ा योगदान देने वाले कृषि क्षेत्र में रोजगार की अपार संभावनाएं हैं लेकिन मजदूरों की कमी के कारण कृषि का रकबा कम होता जा रहा है | दूसरी तरफ इस बात को लेकर चिंता व्यक्त की जाती है कि ग्रामीण क्षेत्रों में बेरोजगारी बढ़ रही है | यह विरोधाभास जिस तरह स्थापित सत्य बना  दिया गया वह  सही मायनों में चिंता का विषय है | चुनाव जीतने के लिए राजनीतिक दलों द्वारा दिखाई जाने वाली दरियादिली ने समाज के एक बड़े हिस्से को निकम्मा बनाकर रख दिया | निजी क्षेत्र में भले ही स्थायी रोजगार और ज्यादा सुविधाओं की गुंजाइश न हो लेकिन  कोई व्यक्ति काम करना चाहे तो उसके सामने पेट भरने की समस्या नहीं हो सकती | बेहतर हो मुफ्तखोरी के वायदों पर रोक लगाने पर विचार करते समय केवल सरकारी खजाने पर बढ़ने वाले बोझ को ही न देखा जाये , अपितु उसके कारण  कार्य संस्कृति के लुप्त होने पर भी ध्यान दिया जाए | ये बात सौ फीसदी सही है कि आज के माहौल में मुफ्त चुनावी घोषणाओं पर रोक लगाने की मांग किसी भी दल के लिए शेर के दांत गिनने जैसा आत्मघाती कदम होगा | इसलिए समस्या का समाधान सर्वोच्च न्यायालय को ही आदेशात्मक लहजे में निकालना होगा क्योंकि जिस तरह की राजनीतिक शैली देश में विकसित होती जा रही है वह धीरे – धीरे  अजगर करे न चाकरी , पंछी करे न काम | दास मलूका कह गए सबके दाता राम | वाली सोच को और पक्का बना रही है | लोक कल्याणकारी शासन व्यवस्था में शिक्षा और स्वास्थ्य निश्चित रूप से मुफ्त और सस्ता होना चाहिए लेकिन बिना कुछ किये खाने मिलता रहे तो निकम्मों की जो फ़ौज खड़ी होगी  वह समाज में नए किस्म के वर्ग संघर्ष का कारण बने बिना नहीं रहेगी |  आर्थिक और सामाजिक विषमता को समाप्त करने के लिए जरूरी है कि शारीरिक दृष्टि से स्वस्थ हर व्यक्ति कुछ न कुछ काम करे | 

- रवीन्द्र वाजपेयी

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