Wednesday 31 August 2022

गोर्वाचोव : बिना युद्ध के दुनिया का भूगोल बदल गए



दुनिया में आने वाला हर शख्स आखिरकार इतिहास बन जाता है | लेकिन आने वाली पीढ़ियां उन्हीं को याद रखती हैं जो इतिहास बना जाते हैं | उन्हीं में से एक थे सोवियत संघ के अंतिम राष्ट्रपति मिखाइल गोर्वाचोव जिनका बीती रात निधन हो गया | 1985 में सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव बनने के बाद उन्होंने साम्यवादी व्यवस्था में सुधार की प्रक्रिया शुरू करने का दुस्साहस किया | जिसमें सबसे पहले अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के तहत सरकार की आलोचना के अलावा साहित्य और कला जगत को स्टालिनवादी जंजीरों से आजादी देना था | दूसरे महायुद्ध के बाद शुरू हुए शीतयुद्ध ने भले ही सोवियत संघ को एक महाशक्ति के तौर पर स्थापित कर  दिया लेकिन जिस साम्यवाद के नाम पर दुनिया को दो ध्रुवीय बनाने का प्रयास हुआ उसका प्रभाव  सीमित होने से वह एक ऐसी दीवार के भीतर सिमटकर रह गया जिसके भीतर झाँकने की अनुमति किसी को न थी और जो खुद के पैदा किये खतरों से ही सहमी रहा करती थी | 1949 में जब चीन में माओ त्से तुंग के नेतृत्व में साम्यवादी क्रांति का दूसरा सबसे बड़ा प्रयोग हुआ तब ये माना गया कि पश्चिमी पूंजी आधारित चकाचौंध की जगह आर्थिक समानता की पैरोकार शासन नियंत्रित साम्यवादी व्यवस्था लेगी | लेकिन माओ ने बिना देर लगाए ये साफ़ कर दिया कि उनका साम्यवाद सोवियत संघ की उंगली पकड़कर नहीं चलेगा  | संभवतः उसी दिन सोवियत संघ  के पतन की बुनियाद रख दी गई थी | स्टालिन के दौर में सोवियत संघ क्रूरता का पर्याय बन चुका था | राजसत्ता के विरुद्ध बोलना तो दूर सोचने तक पर पाबंदी थी | असहमति का परिणाम सायबेरिया के वे श्रम शिविर थे जो अत्याचार के पर्याय बन गए | हालाँकि स्टालिन के बाद आये निकिता क्रुश्चेव ने उस छवि को दूर करने का काफी प्रयास किया लेकिन शीतयुद्ध के कारण महाशक्तियों के बीच का अविश्वास इतना ज्यादा था कि अनेक मर्तबा तीसरे विश्व युद्ध का खतरा तक  पैदा हो गया | उल्लेखनीय है पूर्वी यूरोप के साम्यवाद प्रभावित देशों में यूगोस्लाविया ने सोवियत आधिपत्य को स्वीकार नहीं किया था | बाद में पोलैंड और चेकोस्लाविया ने भी  वैसी ही कोशिश की जिसे  मॉस्को के हुक्मरानों ने कुचल दिया | लेटिन अमेरिका कहलाने वाले क्षेत्र में क्यूबा नामक देश में भी साम्यवादी सत्ता कायम हुई जिसका नेतृत्व लगभग पांच दशक तक फिडेल कास्त्रो ने किया | इस देश को दबाने की कोशिश अमेरिका ने कई बार की | एक बार तो इसे लेकर सोवियत  संघ  और अमेरिका के बीच परमाणु युद्ध होते – होते बच गया था | निश्चित तौर पर सोवियत संघ वैचारिक और सामरिक तौर पर दुनिया के एक धड़े का सिरमौर बना रहा लेकिन विश्व बिरादरी  से कटे रहने के कारण एक तरफ जहाँ विश्व व्यापार में उसकी पकड़ कायम नहीं हो सकी वहीं तकनीक के विकास में भी वह श्रेष्ठता के स्तर को छूने में असाफ्ल रहा | सबसे बड़ी गलती उससे ये हुई कि अन्तरिक्ष के क्षेत्र में अमेरिका से प्रतिस्पर्धा करने में  उसकी आर्थिक स्थिति खराब होती गई | सामरिक स्पर्धा के फेर में हथियारों पर भी सोवियत संघ ने अनाप शनाप पैसा खर्च किया | 1985 में जब गोर्वाचोव सत्ता में आये तब तक सोवियत संघ आर्थिक मंदी का शिकार होने के कारण अपनी जनता का लालन - पालन करने में तकलीफ महसूस  करने लगा था | वे इस बात को समझ गये कि साम्यवादी जंजीरों में जंग लगने से वे कमजोर हो चली हैं और इसीलिये  उन्होंने अभिव्यक्ति की आजादी के साथ ही आर्थिक सुधारों को लागू करने की प्रक्रिया भी शुरू की | दूसरे महायुद्ध के दौरान दो हिस्सों में विभाजित जर्मनी का एकीकरण भी  गोर्वाचोव के नीतिगत बदलाव का वह परिणाम था जिसने दो देशों को बांटने  वाली बर्लिन की दीवार को ढहा दिया | हालाँकि उसके पहले पूर्वी यूरोप के साम्यवादी देशों में लोकतंत्र के लिए हुए आंदोलनों को कुचलने में  भी गोर्वाचोव ने काफी जोर लगाया था लेकिन दीवार पर लिखी इबारत को वे समझ चुके थे और इसीलिए उन्होंने अपने देश में ग्लासनोस्त नामक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और पेरेस्त्रोइका नामक आर्थिक पुनर्गठन के कार्यक्रम लागू किये | जनता और शासन व्यवस्था पर कम्युनिस्ट पार्टी के नियन्त्रण को कम करने के साथ ही बड़ी संख्या में राजनीतिक बंदियों को रिहा करने जैसे निर्णयों से उन्होंने दुनिया का ध्यान खींचा | अमेरिका के साथ निरस्त्रीकरण समझौता करने के लिए उन्हें शांति का नोबल पुरस्कार भी मिला  | लेकिन उनकी उदारवादी नीतियों के कारण सोवियत संघ में समाहित 15 गणराज्य भी  आजाद होने मचल उठे | यद्यपि गोर्वाचोव ने संघ को बचाने के लिए लचीलापन लाने का सुझाव दिया लेकिन तब तक बात हाथ से निकल चुकी थी | अंततः 25 दिसम्बर 1991 को सोवियत संघ बिखर गया | उसके एक दिन पहले गोर्वाचोव ने राष्ट्रपति पद छोड़ दिया और इस तरह वे उस साम्यवादी साम्राज्य के अंतिम मुगल के रूप में इतिहस के पन्नों में दर्ज हो गये | हालाँकि उसके बाद एक बार उन्होंने राष्ट्रपति का चुनाव लड़ा लेकिन जिस जनता को उनके हाथों लोकतंत्र का स्वाद चखने मिला उसी ने उन्हें अस्वीकार कर दिया | यद्यपि उससे गोर्वाचोव के कृतित्व की उपेक्षा नहीं की जा सकती | हालाँकि रूस में एक तबका आज भी उनको अमेरिका के एजेंट के तौर पर आरोपित करता है जिसने सोवियत संघ को टुकड़ों में बाँट दिया | लेकिन उन्हें  इस बात का श्रेय देना ही पड़ेगा कि आज न केवल रूस अपितु सोवियत संघ के हिस्से रहे बाकी के देश यदि वैश्विक  मुख्यधारा से जुड़े तो उसका कारण गोर्वाचोव की नीतियाँ ही थीं | ये कहना भी  गलत न होगा कि चीन ने साम्यवादी व्यवस्था में रहते हुए ही पूंजी के महत्व को स्वीकार कर माओवादी दौर के लौह आवरण को हटाकर अपने दरवाजे विश्व व्यापार के लिए खोले तो उसके पीछे भी सोवियत संघ का विघटन बड़ा कारण बना | दूसरे विश्वयुद्ध के बाद दुनिया का भूगोल बदला था | लेकिन गोर्वाचोव ने बिना युद्ध के ही वह कारनामा कर दिखाया | भले ही वे चर्चाओं से दूर चले गये थे लेकिन इतिहास उन्हें एक ऐसे शख्स के रूप में याद रखेगा जिसने साम्यवादी शासन की जंजीरों को तोड़कर सोवियत संघ रूपी कृत्रिम व्यवस्था की कैद में रह रहे करोड़ों लोगों को आजादी की साँस लेने का अवसर प्रदान किया | 

- रवीन्द्र वाजपेयी


No comments:

Post a Comment