Friday 12 August 2022

नेता , नौकरशाह और न्यायाधीश भी तो मुफ्त रेवड़ियां छोड़ने आगे आयें



देश के मुख्य न्यायाधीश एन.वी.रमना कुछ ही दिनों में सेवानिवृत्त होने वाले हैं | उसके पहले वे चुनावी वायदों की शक्ल में मुफ्त रेवड़ियाँ बाँटने की जो प्रतिस्पर्धा राजनीतिक दलों में चल रही  है उस पर रोक लगाने संबंधी  याचिका का निपटारा करने के इच्छुक दिखाई दे रहे हैं | वरिष्ट अधिवक्ता और पूर्व केन्द्रीय मंत्री कपिल सिब्बल को अदालत मित्र बनाने के साथ ही  आम आदमी पार्टी को भी  स्वतः संज्ञान लेते हुए  बतौर एक पक्ष जोड़ा गया है | केंद्र सरकार ने अदालत से गुहार लगाई है कि जब तक विधायिका इस बारे में कोई निर्णय नहीं करती तब तक अदालत मुफ्त रेवड़ियों की बंदरबांट पर रोक लगाने की पहल करे | प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तो लगभग रोज इस बारे में बोल रहे हैं | गत दिवस श्री रमना ने अपने से जुड़े दो वाकये सुनाकर इस बात पर जोर दिया कि मुफ्त के नाम पर जो किया जा रहा है वह बजाय जाति और वर्ग विशेष के , आर्थिक आधार पर होना चाहिए जिससे समाज के सभी लोगों को उसका लाभ मिले | मुफ्त रेवड़ियों और सुविधाओं के वर्गीकरण पर भी चर्चा हुई | न्यायालय द्वारा बीते दिनों बनाये गये पैनल में चुनाव आयोग के शामिल होने संबंधी अनिच्छा का जिक्र भी आया | अभी तक जो देखने मिला उसके अनुसार सर्वोच्च न्यायालय , चुनाव आयोग और केंद्र सरकार तीनों इस बात पर चिंतित दिखते हैं कि चुनावी वायदों के रूप में की जाने वाली घोषणाओं से सरकारी खजाने पर पड़ने वाला बोझ असहनीय होता जा रहा है | और पांच ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था बनने की महत्वाकांक्षा पूरी होने की  राह में मुफ्त रेवड़ियाँ बड़ी बाधा बन रही हैं |  रोचक बात ये है कि सभी दल अपने वायदों को जन कल्याण  का नाम देते हैं वहीं दूसरे की घोषणा मुफ्त रेवड़ी बता दी जाती है | बसों में वृद्ध महिलाओं को निःशुल्क यात्रा की सुविधा कुछ राज्यों में मिलने पर रेलवे में वरिष्ट नागरिकों को मिलने वाली रियायत भी शुरू करने का मुद्दा उठता है | वृद्धावस्था और निराश्रित पेंशन के साथ ही किसान कल्याण निधि को भी रेवड़ी की श्रेणी में रखा जा रहा है | बढ़ते – बढ़ते बात गरीबों को दिए जा रहे मुफ्त खाद्यान्न तक जा पहुँची | आम आदमी  पार्टी का कहना है कि ये सब उसकी बढ़ती लोकप्रियता से डरकर हो रहा  है | हालाँकि मुख्य न्यायाधीश भी जनकल्याण की योजनाओं को जारी रखने के पक्षधर हैं लेकिन ये कहना गलत न होगा कि संसद , सरकार , न्यायपालिका , चुनाव आयोग और राजनीतिक दल कोई भी मुफ्तखोरी बंद करने का दोष अपने सिर पर लेने तैयार नहीं  हैं | और इसका  सबसे बड़ा कारण ये है कि सांसद , मंत्री , न्यायाधीश , नौकरशाह और राजनेता सभी प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से मुफ्त सुविधाओं का लाभ ले रहे हैं | इसलिए  जब दूसरे की  सुविधाएँ बंद करने का मसला उठता है तो उनके कंधे अपराधबोध से झुक  जाते हैं | प्रधानमन्त्री ने गत दिवस तंज कसा कि कोई डीजल – पेट्रोल मुफ्त देने का वायदा भी कर सकता है | शायद उनका इशारा उ.प्र के विधानसभा चुनाव में ऑटो चालकों को माह में एक – दो  बार मुफ्त  पेट्रोल दिए जाने के वायदे की तरफ था | लेकिन जो प्रधानमंत्री लगभग रोज ही मुफ्तखोरी के विरुद्ध देश को चेता रहे हैं उन्होंने भी तो अपने आठ वर्ष के कार्यकाल में मुफ्त बांटने में लेशमात्र संकोच नहीं किया | और जब जनता सांसदों / विधायकों को मिलने वाली  मुफ्त यात्रा , इलाज और पेंशन पर सवाल उठाती है तब प्रधानमंत्री की अपनी  पार्टी भाजपा और किसी दूसरी पार्टी की तरफ से जनता की  मांग के समर्थन में एक भी आवाज नहीं सुनाई देती | समाजवादी और वामपंथी विचाराधारा का झंडा उठाने वाले जनप्रतिनिधि भी सरकार से मिल  रही मुफ्त सुविधाओं में कटौती करने की मांग को अनसुना कर देते हैं | ऐसे में ये प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या सरकारी खजाना जनता को बांटी जाने वाली रेवड़ियों से ही खाली होता है ?  नेता , नौकरशाह , न्यायाधीश , मंत्री और चुने हुए जनप्रतिनिधि भी तो नव सामंतवाद के प्रतीक बनकर वही सब कर रहे हैं जो अंग्रेजी सत्ता के दौर में हुआ करता था | इस बारे में यक्ष प्रश्न ये है कि आजादी के 75 वर्ष पूरे करने वाले देश में आज भी जब करोड़ों लोगों को हजार – दो हजार रूपये की पेंशन से गुजारा करना पड़ता हो और करोड़ों लोग गरीबी के कारण मुफ्त अनाज के लिए मोहताज हों तब इस देश का नेतृत्व कर चुके लोगों  की ईमानदारी और क्षमता पर सवाल उठना स्वाभाविक है | सही बात ये है कि व्यवस्था पर कुंडली मारकर बैठे महानुभाव अपने सुख और सुविधाओं पर तो बेरहमी से धन खर्च करना अधिकार समझते हैं ,  लेकिन जनता  को मिलने वाली सुविधाएँ  फिजूलखर्ची लगती हैं | ये देखते हुए प्रधानमंत्री और मुख्य न्यायाधीश सहित चुनिन्दा अर्थशास्त्रियों द्वारा चुनावी वायदों के जरिये परोसी जा रही रेवड़ियों के दुष्परिणाम पर जो चिंता व्यक्त की जा रही है वह सैद्धांतिक और व्यवहारिक आधार पर पूरी तरह उचित है किन्तु ऐसा कहने से पहले सरकारी खजाने को लूटने वाले विशेषाधिकार संपन्न तबके के ऐशो – आराम पर हो रहे  अपव्यय को रोकने का साहस और नैतिकता भी दिखाई जानी चाहिए | सत्ता हासिल करने के लिये मुफ्त रेवड़ियाँ बाँटने की संस्कृति ने चुनाव  को डिस्काउंट सेल  और मतदाता को ग्राहक बनाकर रख दिया है | देश की बड़ी आबादी मुफ्त रेवड़ियों के फेर में निठल्लेपन को अपना चुकी है | कोरोना काल में मुफ्त अनाज वितरण वाकई जरूरी था वरना श्रीलंका जैसे हालात पैदा होना तय था | लेकिन उसके बाद जब अर्थव्यवस्था में सुधार के दावे किये जा रहे हैं और उद्योग , व्यवसाय सब पूर्व की स्थिति में लौट आये हैं तब इस योजना की समीक्षा कर केवल उन्हीं परिवारों को मुफ्त खाद्यान्न मिलना चाहिए जो सही मायनों में इसके पात्र हों | बूढ़े , अशक्त , निराश्रित आदि की चिंता करना वाकई सरकार का कर्तव्य है | विद्यालयों में मध्यान्ह भोजन की योजना गरीब बच्चों को शिक्षा ग्रहण करने के लिए आकृष्ट करने शुरू हुई थी लेकिन वह घोर अव्यवस्था और भ्रष्टाचार का शिकार बन गई | सर्वोच्च न्यायालय ने भी जन कल्याणकारी योजनाओं का लाभ  हितग्राही तक न पहुंचने की बात कही है | मुफ्त रेवड़ियों के वितरण को लेकर शुरू हुई बहस या विमर्श तब तक अपने अंजाम तक नहीं पहुँच सकेगा जब तक नेता , न्यायाधीश और  जनप्रतिनिधि खुद होकर उन्हें मिल रही मुफ्त सुविधाओं और रेवड़ियां त्यागने की पहल नहीं करते | आजादी के अमृतकाल में इस बात का विचार मंथन जरूरी हैं कि बीते 75 साल में आर्थिक विषमता घटने की बजाय और बढ़ती क्यों जा रही है ? जब आजादी मिली तब इस देश में केवल गरीब थे लेकिन आज उससे ज्यादा लोग गरीबी रेखा से नीचे हैं तो क्या ये स्थिति शर्मनाक नहीं है ? और यदि है तो जो लोग मुफ्त रेवड़ियों के बाँटे जाने पर चिंतित और व्यथित हैं उनमें से कितने उन्हें मिलने वाली मुफ्त सरकारी सुविधाओं को खजाने पर बोझ मानकर छोड़ने की ईमानदारी दिखायेंगे ?

-रवीन्द्र वाजपेयी

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