Monday 8 August 2022

कहीं नीतीश की दशा भी उद्धव जैसी न हो जाए



राजनीति में स्थायी दोस्त अथवा दुश्मन नहीं होते | इस उक्ति को चरितार्थ होते हुए देखने के लिए भारत सबसे उपयुक्त देश है | ये शोध का विषय है कि बीते 75 वर्षों के दौरान भारतीय राजनीति में सिद्धांतों  की लक्ष्मण रेखा लांघकर कितने समझौते किये गए ? पहले  जिसे अनैतिक  समझा जाता था वह बेमेल गठबंधन और  साझा न्यूनतम कार्यक्रम ( कॉमन मिनिमम प्रोग्राम ) के रूप में स्थापित हो गया जिसमें अनेक दल मिलकर सरकार बनाते हैं | चूंकि इसमें जनहित नहीं होता अतः निजी स्वार्थों की पूर्ति रुकते ही बिखराव हो जाता है | मौजूदा राजनीति में सैद्धांतिक छुआछूत समाप्त हो चुकी है | दुश्मन कब दोस्त बन जाए कहना कठिन है | ये सिलसिला 1967 में बनी संविद सरकारों के रूप में शुरू हुआ था जिसके पीछे स्व. डा. राम मनोहर लोहिया द्वारा दिया गया गैर कांग्रेसवाद का नारा था | उस प्रयोग में घोर विरोधी माने जाने वाले जनसंघ और कम्युनिस्ट सरकार में शामिल रहे | यद्यपि वह दौर ज्यादा नहीं चला लेकिन उसने सैद्धांतिक पहिचान को नष्ट करते हुए दलबदल को मान्यता दिलवा दी | उसके बाद राजनीतिक अस्पृश्यता का दौर कुछ वर्षों तक फिर जारी रहा लेकिन 1975 में लगे आपातकाल ने अंततः विरोधी विचारधारा वाले दलों को एकजुट होने बाध्य कर दिया जिसका परिणाम जनता पार्टी थी | 1977 में इस पार्टी ने केंद्र से कांग्रेस को सत्ता से हटाकर इतिहास तो रचा लेकिन नेताओं की पदलिप्सा और अहं की वजह से वह सरकार आधे कार्यकाल में ही गिर गई और गैर कांग्रेसवाद के  अधिकांश समर्थक  कांग्रेस की गोद में जा बैठे | तबसे राजनीति में ऐसे गठबंधन बनने का प्रादुर्भाव हुआ जिनका उद्देश्य केवल सत्ता हासिल करना था | हालाँकि भाजपा और वामपंथी दलों ने गठबंधन की राजनीति में भी अपने दूरगामी लक्ष्य सामने रखे जिसके उदाहरण डा.मनमोहन सिंह जैसे पूंजीवादी सोच वाले प्रधानमंत्री को वामपंथी समर्थन और भाजपा द्वारा जम्मू कश्मीर में पीडीपी के साथ मिलकर बनाई गई सरकार थे | महाराष्ट्र में शिवसेना का कांग्रेस के समर्थन से सत्ता हासिल करना सबसे ताजा नजीर है | देश की राजनीति में समाजवादी विचारधारा  और मंडल आन्दोलन की जमीन बना बिहार भी गठबंधन बनने और टूटने के लिए विख्यात है | बीते अनेक दशकों से इस राज्य की राजनीति लालू प्रासाद यादव , नीतीश कुमार और स्व. रामविलास पासवान के इर्द गिर्द घूमती रही है | ये तीनों 1974 में स्व. जयप्रकाश नारायण द्वारा शुरू किये गये छात्र आन्दोलन की उपज थे  | एक ज़माने में  तीनों एक ही थाली में खाया  करते थे किन्तु फिर इनके बीच  समाजवादी संस्कृति का पालन करते हुए कभी एक साथ तो कभी कोसों दूर चले जाने का क्रम जारी रहा | जिन पासवान ने गुजरात दंगों के बाद नरेंद्र मोदी को मुख्यमंत्री पद से न हटाये जाने के विरोध में अटल जी की  सरकार और भाजपा से नाता तोड़ लिया था वे ही मोदी सरकार में मंत्री बन बैठे | इसी तरह लालू यादव  कांग्रेस के साथ राज्य और केंद्र में सत्ता  सुख लूटने में नहीं सकुचाये | जहाँ तक नीतीश  कुमार की बात है तो ये कहना गलत न होगा कि उनकी छवि लालू और रामविलास की तुलना में अच्छी रही | बिहार को गुंडा राज से मुक्त कर विकास की राह पर आगे बढाने का श्रेय भी उनको जाता है |  वे वाजपेयी सरकार में भी वे मंत्री रहे | हालाँकि एनडीए में रहते हुए भी वे श्री मोदी से खुन्नस रखते थे | लेकिन बाद में स्व. पासवान की तरह उनके साथ आ गए | बिहार की सत्ता में लम्बे समय तक बने रहने का अवसर उन्हें भाजपा के कारण ही मिलता रहा | बावजूद उसके 2014 में श्री मोदी के राष्ट्रीय परिदृश्य पर उभरने के बाद 2015 के विधानसभा चुनाव में नीतीश ने एक बार फिर लालू का हाथ थामा और सत्ता में लौटे | लेकिन लालू के बेटों तेजस्वी और तेजप्रताप की हरकतों से त्रस्त होकर 2017 में नीतीश ने सीधे श्री मोदी से मिलकर भाजपा के साथ सरकार बना ली | 2019 के लोकसभा चुनाव में इस गठबंधन को अच्छी सफलता मिली | लेकिन केन्द्रीय मंत्रीमंडल में एक ही जगह दिए जाने से नाराज होकर उनकी पार्टी जद ( यू ) सरकार से बाहर रही परन्तु उसके पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष आरसीपी सिंह नीतीश की इच्छा के विरुद्ध मंत्री बन गये| इसी तरह हरिवंश नारायण सिंह राज्यसभा के उप सभापति बने | 2020 के विधानसभा चुनाव में जद ( यू ) और भाजपा मिलकर ही लड़े और उनके गठबंधन को मामूली बहुमत भी मिला |  लेकिन नीतीश की सीटें भाजपा से कम आईं जिसकी वजह स्व. पासवान के बेटे चिराग द्वारा जद ( यू ) के विरुद्ध ऊम्मीदवार उतारा जाना था | चिराग उस समय तक एनडीए में थे | हालाँकि भाजपा ने ज्यादा सीटें जीतने के बावजूद नीतीश को गद्दी पर बिठा दिया किन्तु उनके मन में ये डर बैठ गया कि वह महाराष्ट्र की तरह बिहार में भी बड़े भाई की भूमिका में आती जा रही है जिससे उनका प्रभाव क्षीण हो रहा है |  यही वजह है कि 2020 के बाद से  केंद्र सरकार से टकराने का मौका वे तलाशते  रहे | हाल ही में  जाति आधारित जनगणना करवाने  का फैसला उसी दिशा  में एक कदम था | पिछली छठ पूजा के अवसर पर लालू के परिवार में शामिल होने के साथ ही उन्होंने ये संकेत देना शुरु कर दिया कि उनका मन भाजपा से उचटने लगा है | हाल ही में राज्यसभा के चुनाव में उन्होंने आरसीपी सिंह को टिकिट नहीं दी जिससे वे मोदी मंत्रीमंडल से बाहर हो गये | राष्ट्रीय अध्यक्ष पद से तो उनको जद ( यू ) ने पहले ही चलता कर दिया था | आख़िरकार श्री सिंह ने पार्टी छोड़ते हुए नीतीश पर आरोपों की बौछार लगा दी | उधर जद ( यू ) का कहना है कि भाजपा उनको  एकनाथ शिंदे बनाकर महाराष्ट्र जैसा खेल रचना चाह रही थी | लेकिन समय रहते हमने उसे विफल कर दिया | अब खबर ये है कि नीतीश फिर से  तेजस्वी के साथ  सरकार बनाने जा रहे हैं | इस प्रयास में वे कितना सफल होंगे ये तो फिलहाल कहना मुश्किल है लेकिन ऐसा लगता है प्रधानमंत्री के लिए अनेक मर्तबा नाम चलने के  बावजूद बिहार तक सीमित रह जाने से वे कुंठित हो चले हैं | कुछ समय पहले उनका नाम पहले राष्ट्रपति और फिर उप राष्ट्रपति के लिए भी चला लेकिन भाजपा ने उनको मौक़ा नहीं  दिया | यद्यपि नीतीश की पार्टी ने एनडीए के ऊम्मीदवार का ही समर्थन किया लेकिन दिल्ली में आयोजित राष्ट्रपति के शपथ ग्रहण में उनके न जाने से चर्चाओं का दौर चल पड़ा | आरसीपी प्रकरण के बाद जद ( यू ) जिस तरह आक्रामक  है उसे बड़े राजनीतिक घटनाचक्र का संकेत कहा जा सकता है | लेकिन इस आयु में अब नीतीश के पास करने को कुछ ख़ास नहीं है | लालू पुत्रों के साथ वे सरकार तो बना सकते हैं लेकिन उनके साथ पिछले कटु अनुभवों के बावजूद यदि वे ऐसा करते हैं तब ये कहना गलत न होगा कि वे अपना बुढापा खराब करने जा रहे हैं | उन्हें लग रहा होगा कि शायद 2024 में विपक्ष उन्हें प्रधानमत्री के चेहरे के तौर पर पेश करेगा लेकिन तब तक वे मुख्यमंत्री भी रहेंगे या नहीं इस बात की गारंटी नहीं हैं क्योंकि राबडी  देवी और तेजस्वी इस बात को कभी  भूल नहीं सकेंगे कि लालू  की इस दुर्दशा के जिम्मेदार नीतीश ही हैं | ऐसे में बड़ी  बात नहीं होगी कि आरजेडी के साथ सरकार बनाने की कोशिश में उनकी दशा भी उद्धव ठाकरे जैसी हो जाए | 

- रवीन्द्र वाजपेयी



No comments:

Post a Comment