Wednesday 3 August 2022

छिपाने से कम नहीं होगी महंगाई : करों का बोझ कम करना जरूरी



संसद में वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने आश्वस्त किया कि बड़े देशों की तुलना में भारत की  अर्थव्यवस्था अच्छी हालत में है और वैश्विक मंदी का असर भी हमारे यहाँ शायद ही पड़े | उनके दावे की पुष्टि अनेक अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं द्वारा भी की गई है | उनके  साथ ही पूर्व वित्त राज्य मंत्री जयंत सिन्हा ने तो विपक्ष द्वारा महंगाई पर किये जा रहे हल्ले का मखौल उड़ाते हुए ये तंज तक कस दिया कि महंगाई ढूढने पर भी नहीं दिखाई देती | दूसरी तरफ विपक्ष के अलावा आर्थिक मामलों के अनेक जानकारों का कहना है कि न सिर्फ महंगाई चरम पर है अपितु आने वाले दिनों में अर्थव्यवस्था  खतरनाक स्थिति में पहुँच सकती है | कच्चे तेल की बढ़ती और रूपये की गिरती कीमत के अलावा  विदेशी मुद्रा भण्डार में आ रही कमी के मद्देनजर आने वाले दिनों में गम्भीर  आर्थिक संकट की भविष्यवाणी की जा रही है | वहीं सरकार की सुनें तो महंगाई का हल्ला राजनीतिक लाभ लेने के लिए मचाया जा रहा है जबकि विपक्ष के दावे इसके सर्वथा विरुद्ध हैं | अर्थशास्त्रियों के बीच जरूर मिश्रित राय है लेकिन जहां तक मंहगाई की बात है तो उसे हवा में उड़ा देना सच्चाई से आंखें मूँद लेना है | सरकार उसे इसलिए स्वीकार नहीं कर रही क्योंकि इससे उसके  आर्थिक प्रबंधन  पर उंगलियाँ उठने लगेंगीं | हालाँकि ये भी उतना ही सही है कि कोरोना काल के बाद उत्पन्न  आर्थिक समस्याओं पर भारत ने जल्द ही विजय हासिल कर ली थी किन्तु बीते कुछ महीनों में यूक्रेन और रूस के बीच चल रहे युद्ध के कारण जो हालात उत्पन्न हुए उनकी वजह से अर्थव्यवस्था पर ऐसा संकट आ गया जो दिखता भले न हो लेकिन उसका असर काफी गहरा है | वो तो अच्छा हुआ भारत ने रूस से सस्ती दरों पर कच्चे तेल और गैस का सौदा कर लिया , वरना हालात और बिगड़ चुके होते | लेकिन विदेशी निवेश का भारतीय मुद्रा बाजार से तेजी से निकलना शुभ  संकेत नहीं  है | यदि  ये अस्थायी दौर है तब तो चिंता का बड़ा  कारण नहीं | लेकिन आयात आधारित अर्थव्यवस्था में  विदेशी मुद्रा भण्डार में कमी होने से रूपये की कीमत गिर रही है जिसका दुष्परिणाम महंगाई के रूप में सामने आ रहा है | इस बारे में कहना गलत न होगा कि जब महंगाई नहीं है तब केंद्र और  राज्यों की सरकारें कर्मचारियों और पेंशनरों का महंगाई  भत्ता क्यों बढ़ा रही हैं ?  प्रतिमाह जीएसटी संग्रह बढ़ने का श्रेय भी अर्थशास्त्री महंगाई को ही दे  रहे हैं | इस बारे में ये सवाल भी उठ रहा है कि अर्थव्यवस्था यदि मजबूत स्थिति में है और लगातार चौथे माह भी जीएसटी का संग्रह 1 लाख 40 हजार करोड़ के पार जा रहा है तब भी सरकार नई – नई चीजों पर जीएसटी  क्यों थोप रही है ?  लोगों का विरोध गेंहू , चावल , आटा जैसी चीजों पर जीएसटी लगाने पर ज्यादा है | पारदर्शिता का तकाजा है कि सरकार महंगाई  के बारे में ईमानदारी दिखाते हुए जनता को  बताये कि वे कौन सी परिस्थितियां हैं जिनकी वजह से दैनिक उपयोग की चीजों के दाम लगातार बढ़ रहे हैं | इस बारे में रास्वसंघ के महासचिव दत्तात्रय होसबोले ने भी हाल ही में आगाह किया कि लोगों को सस्ता खाद्यान्न मिलना चाहिए | उनकी ये टिप्पणी आटा , दही , दूध जैसी चीजों पर जीएसटी आरोपित करने के बाद आई | वैसे उनका बयान बौद्धिक ज्यादा था लेकिन उसे एक तरह से सरकार को दिए गए संकेत के रूप में देखा गया | लेकिन उसके बाद भी सरकार ने किसी भी तरह की राहत नहीं दी | हालाँकि प्रधानमंत्री बीते कुछ दिनों में अनेक बार सार्वजनिक तौर पर मुफ्तखोरी को विकास में बाधक बताकर उसे रोकने का इशारा कर चुके हैं और उनकी  बात को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा मुफ्त सौगातों पर उठाये गये सवालों से बल भी मिला | लेकिन इस पर अमल करना आज के माहौल में बहुत कठिन लगता है क्योंकि कोई भी राजनीतिक दल पहले से दी जा रही मुफ्त सुविधाएँ वापिस लेने का जोखिम मोल नहीं ले सकेगा | उदहारण के तौर पर नरेंद्र मोदी 80 करोड़ लोगों से मुफ्त खाद्यान्न की सुविधा वापस लेने के बाद  क्या 2024 में इस  तबके का वोट हासिल कर सकेंगे ? इसी तरह नई राजनीति की  पैरोकार आम आदमी पार्टी मुफ्त बिजली और पानी की योजना बंद कर दे तो दिल्ली में ही उसे अगला चुनाव जीतना कठिन हो जाएगा | बेहतर हो सरकार बीच का रास्ता निकाले |  अर्थात आर्थिक तौर पर  कमजोर वर्ग को समुचित सहायता और संरक्षण जारी रखा  जावे किन्तु उसके भार से दूसरे नागरिकों की कमर न टूट जाये ये देखना भी जरूरी है | और इसके लिए गृहस्थी के संचालन में प्रयुक्त होने वाली रोजमर्रे की चीजों के दाम अनियंत्रित न हों ये देखना उसका दायित्व है | जिसके लिए उसे जीएसटी के ढांचे का युक्तियुक्तकरण करना चाहिए | ये शोचनीय मुद्दा है कि पांच साल बाद भी इसे  लेकर अनिश्चितता बरकरार है |  मोदी सरकार ने विभिन्न मोर्चों पर बेशक शानदार काम  किया है | लेकिन पेट्रोल , डीजल और रसोई गैस के दामों को लेकर उसकी नीति पर सवाल उठते रहे हैं | ये ठीक है  कि विकास और जन कल्याण के कामों के लिए सरकार को पैसा चाहिए और वह करों के जरिये ही आता है | लेकिन अर्थशास्त्र का ये स्थापित सत्य है कि अधिक कर उसकी चोरी हेतु प्रेरित करता है | इसीलिये ये माँग शुरू से उठती आ रही है कि जीएसटी की चार दरों के स्थान पर केवल एक दर 12 फीसदी की हो या फिर 8 और 12 फीसदी की दो दरें   | ऐसा होने पर उपभोक्ता मांग बढ़ेगी जिसका लाभ अप्रत्यक्ष रूप से सरकार को करों के रूप में मिलता रहेगा | कहने का आशय महज इतना ही है कि करों की कम दरें महंगाई पर नियंत्रण के जरिये जनता को राहत देती हैं वहीं उपभोक्ता बाजार में खरीददार बढ़ने से सरकार को ज्यादा राजस्व मिलने के साथ ही उद्योग – व्यापार में भी प्रगति होती है | अब जबकि मोदी सरकार को आठ साल चुके हैं तब ये अपेक्षा करना गलत न होगा कि वह सबका साथ , सबका विकास जैसे नारे की सार्थकता साबित करे | इसमें दो मत नहीं है कि विपरीत हालातों में भी भारतीय अर्थव्यवस्था ने अपने पैर मजबूती से जमाये रखे हैं और इसका बड़ा कारण जनता द्वारा किया गया सहयोग है | लेकिन इसके पहले कि मूल्यवृद्धि आम लोगों के लिए असहनीय बन जाए सरकार को कुछ न कुछ करना चाहिए अन्यथा जनता के मन में बढता जा रहा असंतोष गुस्से में बदल जाएगा | और ये गुस्सा कैसा होता है इसका ताजा उदाहरण पड़ोसी देश  श्रीलंका में देखने मिल चुका है | 

- रवीन्द्र वाजपेयी


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