कांग्रेस के पूर्व और संभवतः भावी अध्यक्ष राहुल गांधी ने गत दिवस कहा कि देश में लोकतंत्र खत्म हो चुका है | सभी सरकारी संस्थाओं में रास्वसंघ के लोग बैठे हैं और इसी कारण विपक्ष प्रभाव नहीं छोड़ पाता | उनके मुताबिक संस्थागत ढांचे की मदद से ही चुनाव जीते जाते हैं | लगे हाथ उन्होंने ये कटाक्ष भी कर दिया कि हिटलर भी चुनाव जीतकर ही सत्ता में आया था | उनके अनुसार कांग्रेस ने अपने शासनकाल में कभी भी इन संस्थाओं पर कब्ज़ा नहीं किया और उस समय लड़ाई दो – तीन राजनीतिक दलों के बीच होती थी | पार्टी द्वारा महंगाई के विरुद्ध दिल्ली में किये जा रहे प्रदर्शन के पूर्व पार्टी मुख्यालय में आयोजित पत्रकार वार्ता में उन्होंने लोकतंत्र पर खतरे का कई बार उल्लेख किया | परोक्ष तौर पर वे ये भी कह गये कि विपक्ष बुरी तरह कमजोर हो चुका है और मौजूदा हालात के चलते उसका चुनाव जीतना कठिन है | राजनीति में श्री गांधी को आये लम्बा समय बीत चुका है | लोकसभा सदस्य के साथ ही वे कांग्रेस पार्टी के महासचिव और अध्यक्ष भी बने | आज भी ज्यादातर लोग उनको ही कांग्रेस का भविष्य मानते हैं | यद्यपि उनके नेतृत्व में ही कांग्रेस अपने सबसे बुरे दिनों में आ पहुँची है | देश का नेतृत्व करना तो बड़ी बात है अब तो विपक्षी पार्टियाँ तक उसकी अगुआई स्वीकार करने तैयार नहीं है | राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनाव में विपक्ष में हुआ जबरदस्त बिखराव आया इसका प्रमाण है | सही बात ये है कि 2014 में लोकसभा चुनाव हारने के बाद हौसला पस्त होने के कारण विपक्ष की भूमिका का निर्वहन भी वह नहीं कर सकी | 2019 के बाद तो उसकी हालत और पतली होने लगी और परिणामस्वरूप पार्टी के भीतर पहली बार अनेक वरिष्ट नेता सामूहिक तौर पर राहुल के विरुद्ध मैदान में कूद पड़े | हालाँकि हार की जिम्मेदारी लेते हुए उन्होंने अध्यक्षता छोड़ दी और उनकी माताजी सोनिया गांधी कार्यकारी अध्यक्ष बनकर पार्टी चलाने लगीं | लेकिन तीन साल बीतने के बाद भी कांग्रेस अपना अध्यक्ष नहीं चुन सकी और ले – देकर पार्टी मां, बेटे और बेटी के नियंत्रण में बनी हुई है | लोकतंत्र में मजबूत विपक्ष की जरूरत को महसूस करने वाले लोगों की शिकायत ये रही है कि कांग्रेस विपक्ष की अपनी भूमिका सही ढंग से नहीं निभा सकी जिससे उसकी स्वीकार्यता घटती जा रही है । उ.प्र विधानसभा चुनाव में मात्र दो सीटें जीतने के कारण 2024 में भी उसके लिए कोई सम्भावना नजर नहीं आ रही | लेकिन बीते कुछ समय से पार्टी अचानक चैतन्य नजर आने लगी | देश भर में महंगाई के विरुद्ध हुआ प्रदर्शन उसी का परिणाम है | संभवतः आगामी 2 अक्टूबर से राहुल पदयात्रा पर भी निकलने वाले हैं | निश्चित रूप से पार्टी की सेहत के लिए ये अच्छा निर्णय है लेकिन इस आक्रामकता और सक्रियता के पीछे न तो महंगाई और बेरोजगारी है और न ही लोकतंत्र की चिंता | कांग्रेस और गांधी परिवार को सड़क पर उतरता देख खुश हो रहे लोगों को ये गलतफहमी दूर कर लेनी चाहिए कि वे जनता अथवा लोकतंत्र के लिए संघर्ष करने मैदान में उतरे हैं | सत्य तो ये है कि जब – जब इस परिवार पर कोई मुसीबत आती है तब – तब उसे लोकतंत्र खतरे में दिखने लगता है | 1975 में जब स्व. इंदिरा गांधी का चुनाव उच्च न्यायालय ने अवैध घोषित कर दिया तब श्रीमती गांधी ने लोकतंत्र के खतरे में पड़ जाने के नाम पर आपातकाल लगाकर समूचे विपक्ष को जेल में डाल दिया , अख़बारों पर सेंसरशिप लागू की गई , मौलिक अधिकार निलम्बित हो गये , विपक्ष की अनुपस्थिति में मनमाने संविधान संशोधन संसद में किये गये | अपने पिता के साथी रहे जयप्रकाश नारायण , आचार्य कृपलानी और मोराजी देसाई जैसे प्रखर गांधीवादी नेताओं को लोकतंत्र विरोधी मानकर जेल में डालने में इंदिरा जी ने तनिक भी संकोच नहीं किया | उस दृष्टि से राहुल का ये कहना कि हिटलर भी चुनाव जीतकर आया था , सही मायनों में उनकी दादी पर पूरी तरह सही बैठता है | श्री गांधी शायद ये भूल गए कि पत्रकार वार्ता में सरकार की तीखी आलोचना करना लोकतंत्र में ही संभव है | वास्तविकता ये है कि ईडी ( प्रवर्तन निदेशालय ) द्वारा की गई घेराबंदी के बाद राहुल और उनके परिवार को याद आया कि लोकतंत्र खतरे में है , महंगाई और बेरोजगारी बढ़ रही है और इसके लिए काले कपड़े पहिनकर सड़कों पर नजर आना चाहिए | जनता से जुड़े मुद्दों पर विपक्षी पार्टियां और नेता सरकार के विरुद्ध आवाज उठायें तो ये उनका अधिकार ही नहीं अपितु कर्तव्य भी है | सत्तारूढ़ पार्टी को चुनाव में हराकर सरकार में आने की आकांक्षा भी लोकतान्त्रिक प्रणाली में स्वीकार्य है | लेकिन श्री गांधी भूल जाते हैं कि लोकतंत्र तब खतरे में पड़ता है जब सत्ता किसी व्यक्ति या परिवार की मुट्ठी में कैद हो जाती है | नेहरू – गांधी परिवार आजादी के बाद चूंकि लम्बे समय तक सत्ता में रहा इसलिए राहुल विपक्ष में रहते हुए खुद को असहज महसूस करते हैं और इसीलिये उनका गुस्सा बातों और व्यवहार में झलकता है | बीते आठ सालों से कांग्रेस विपक्ष में है | महंगाई और बेरोजगारी जैसी समस्याएँ भी इस दौरान बनी रहीं | इनके अलावा भी अनेक ऐसे मुद्दे रहे जिन पर उसको सड़कों पर उतरकर जनता की आवाज उठाना चाहिए थी | उस दृष्टि से इस दौरान श्री गांधी जितने महीनों अपनी गुप्त विदेश यात्राओं पर रहे उतने दिनों में देश का चप्पा – चप्पा छान लेते तो वह कांग्रेस के साथ – साथ देश और लोकतंत्र के लिए फायदेमंद रहता | अब जबकि वे और उनकी माँ काँग्रेस पार्टी के पैसे से नेशनल हेराल्ड की अरबों रूपये की संपत्ति के तीन चौथाई मालिक बन जाने के मामले में घिर गये तब उन्हें लोकतंत्र , महंगाई और बेरोजगारी का ख्याल आया | बेहतर हो राहुल समय निकालकर 1975 से 1977 के घटनाक्रम का सूक्ष्म अध्ययन करें तो उन्हें समझ आएगा कि लोकतंत्र को कुचलने का दुस्साहस किसने , क्यों और कैसे किया ? मौजूदा केंद्र सरकार से उनका मतभेद स्वाभाविक है | रास्वसंघ से उनका दुराव भी समझ में आता है | लेकिन उनका ये कहना हास्यास्पद है कि देश को सिर्फ चार लोग चला रहे हैं क्योंकि ऐसा कहते समय वे भूल गए कि उनकी अपनी पार्टी तो परिवार के तीन लोगों द्वारा ही संचालित है | और जहां तक बात विभिन्न संस्थानों में रास्वसंघ के लोगों के बैठने पर उनके ऐतराज की है तो श्री गांधी शायद भूल गए होंगे कि कांग्रेस के राज में आयातित विचारधारा के पोषक वामपंथी मानसिकता वाले लोग महत्वपूर्ण संस्थानों पर काबिज थे जिन्होंने देश को भीतर से कमजोर करने का काम तो किया ही लगे हाथ कांग्रेस की जड़ों में मठा डालते हुए उसे इस स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया कि बाकी विपक्षी दल तक उसके साथ खड़े होने में छिटकने लगे हैं | अच्छा तो यही होगा कि राहुल जमीनी सच्चाई को समझें | लोकतंत्र किसी परिवार या पार्टी का बंधुआ न होकर जनता के निर्णय से चलने वाली व्यवस्था है और उसी जनता ने कांग्रेस और गांधी परिवार को सत्ता से उतार फेंका |
- रवीन्द्र वाजपेयी
No comments:
Post a Comment