Thursday 14 February 2019

संदर्भ मुलायम सिंह : एकता में अनेकता विपक्ष की समस्या

16 वीं लोकसभा का विदाई सत्र गत दिवस समाप्त हो गया। सौहाद्रपूर्ण वातावरण में एक दूसरे की प्रशंसा और शुभकामनाओं के परस्पर आदान-प्रदान के साथ अगले चुनाव का शंखनाद हो गया। सपा नेता मुलायम सिंह यादव द्वारा अप्रत्याशित तरीके से नरेंद्र मोदी को दोबारा प्रधानमंत्री बनने की शुभकामना दिए जाने से जहां विपक्षी खेमे में सनाका खिंच गया वहीं सत्तारूढ़ पक्ष प्रफुल्लित हो गया। अपने लंबे भाषण में श्री मोदी ने भी मुलायम सिंह के आशीर्वाद के प्रति आभार व्यक्त करने में कोई कंजूसी नहीं की। सोनिया गांधी के बगल में खड़े होकर कही गई उस बात से श्री यादव ने विपक्षी गठबंधन की निरर्थकता पर सवाल उठा दिया। हालांकि बाद में विपक्ष ने उनकी टिप्पणी को ऐसे अवसरों पर दिखाई जाने वाली सौजन्यता कहा किन्तु मुलायम सिंह का ये कटाक्ष मायने रखता है कि पूरा विपक्ष मिलकर भी बहुमत नहीं ला सकेगा। भाजपा के लिए श्री यादव का भाषण आशीर्वादयुक्त विदाई जैसा रहा लेकिन राजनीति के जानकारों के अनुसार उन्होंने उप्र में अखिलेश यादव और मायावती के गठबंधन की हवा निकाल दी। यही कारण है कि बुआ-भतीजे की जोड़ी की ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं आई। संसद से फुरसत पाते ही विपक्षी जमावड़ा भी हुआ लेकिन उसमें भी बिखराव दिखा। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने मोदी विरोधी जो रैली आयोजित की उसमें राहुल गांधी नहीं पहुँचे और आनन्द शर्मा ने कांग्रेस का प्रतिनिधित्व किया। लेकिन वे भी महागठबंधन पर कोई आश्वासन दिए बिना भाषण देकर चलते बने। इसी तरह ज्योंही ममता बैनर्जी आईं त्योंही वामपंथी उठकर चले गए। मायावती तो वैसे भी इस तरह के आयोजनों से दूर रहते हुए अपनी खिचड़ी अलग से पकाने की आदत रखती  हैं। केजरीवाल जी की रैली के बाद शरद पवार के घर पर भी न्यूनतम साझा कार्यक्रम तैयार करने विपक्षी दलों के तमाम नेता जमा हुए लेकिन उसमें श्री मोदी को हराने की हुंकार तो खूब भरी गई किन्तु पूरे देश में भाजपा विरोधी किसी एक महागठबंधन की संभावना दूरदराज तक नजर नहीं आई। ये सब देखकर लगता है मुलायम सिंह ने जो पांसा लोकसभा के विदाई भाषण में फेंका वह चुनाव बाद विपक्ष की स्थिति का पूर्वानुमान ही है। उन्होंने प्रधानमंत्री को दोबारा पद पर आने की शुभकामना ही नहीं दी अपितु लगे हाथ विरोधी दलों के उत्साह पर ये कहते हुए पानी फेर दिया कि वे सब मिलकर भी बहुमत नहीं ला सकेंगे। वैसे मुलायम सिंह एन वक्त पर दूध में नींबू निचोडऩे की कला में माहिर हैं। लेकिन श्री केजरीवाल की रैली और श्री पवार के निवास पर हुई बैठक के बाद भी विपक्ष की एकजुटता की गारंटी नहीं दी जा सकती। राहुल गांधी द्वारा भले ही तेलुगु देशम नेता चन्द्रबाबू नायडू, द्रमुक के स्टालिन और राकांपा के शरद पवार के साथ गठबंधन कर लिया हो लेकिन शेष राज्यों में वे कांग्रेस को विपक्षी एकता की धुरी बनाने में सफल नहीं हो सके। उप्र में अखिलेश और मायावती ने तो कांग्रेस को दूध में से मक्खी की तरह बाहर कर दिया वहीँ बिहार में बनने वाले महागठबंधन की गांठे उलझती ही जा रही हैं। बंगाल और आंध्र की कांग्रेस इकाइयां जिस अंदाज में ममता बैनर्जी और चन्द्रबाबू नायडू का विरोध कर रही हैं वह भी राहुल के लिए परेशानी उत्पन्न करने वाला है। ये बात तो पूरी तरह से सत्य है कि भाजपा 2014 जैसी लहर पैदा नहीं कर पा रही। नरेंद्र मोदी का आकर्षण भी घटा है लेकिन ये भी सही है  कि लाख कोशिशों की बाद भी विपक्ष में एकता  तथा प्रधानमंत्री पद के किसी सर्वमान्य उम्मीदवार का अभाव अभी भी भाजपा का पलड़ा भारी रखने में सहायक साबित हो रहा है। मुलायम सिंह ने विपक्ष के बहुमत से दूर रहने की बात कहकर जो संकेत दे दिया उसका सबसे ज्यादा असर उप्र में ही पडऩे की संभावना है। प्रियंका वाड्रा ने जिस तेजी से वहां काम शुरू किया उससे सपा-बसपा की धमक कम होना अवश्यम्भावी है। मुलायम सिंह भी इस पहलू को भांप गए। यूँ भी बसपा के विरुद्ध उन्हें भाजपा ने पर्दे के पीछे सदैव मदद की। कुल मिलाकर ये कहना गलत नहीं होगा कि मोदी विरोध की भावना तो विपक्षी दलों में एक जैसी है लेकिन आपसी सामंजस्य न होने और महत्वाकांक्षाओं की टकराहट की वजह के महागठबंधन के नाम पर बच्चों का खेल चल रहा है। सबसे ज्यादा ध्यान देने वाली बात ये है कि ममता, नायडू, पवार, अखिलेश, माया, तेजस्वी और केजरीवाल जैसे सभी नेता क्षेत्रीय छवि से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं। इस कारण उनकी राष्ट्रीय स्तर पर कोई अपील नहीं है लेकिन विरोधाभासी स्थिति ये भी है कि उक्त सभी कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को नरेन्द्र मोदी के मुकाबले पेश करने के लिए रजामंद नहीं हैं। इसी तरह नवीन पटनायक और के. चंद्रशेखर राव जैसे क्षेत्रीय छत्रप अभी भी अलग राग अलाप रहे हैं। बीते कुछ समय से राहुल गांधी जिस तरह से प्रधानमंत्री के विरुद्ध आक्रामक हो उठे हैं उसकी वजह से उनकी छवि एक सक्षम वैकल्पिक नेता की बन सकती थी किन्तु विपक्ष ही उन्हें आगे करने को राजी नहीं हो रहा। 120 लोकसभा सीटों वाले उप्र और बिहार में अखिलेश और तेजस्वी जैसे क्षेत्रीय नेता भी श्री गांधी को अपेक्षित महत्व नहीं दे रहे। यही वजह है कि तमाम अंतद्र्वंदों के बावजूद भाजपा नरेंद्र मोदी को एकमात्र राष्ट्रीय नेता के तौर पर उभारने में कामयाब होती दिखाई दे रही है। गत दिवस सीएजी की रिपोर्ट संसद में पेश होने के बाद प्रधानमंत्री को निश्चित रूप से राहत मिली है क्योंकि कांग्रेस की उम्मीद के उलट रिपोर्ट में सरकार के विरुद्ध कुछ नहीं है। ऐसे में राफैल की माला जपने से राहुल को अब खास लाभ नहीं मिलने वाला। यदि लोकसभा चुनाव में त्रिशंकु की स्थिति बनी तब भी कांग्रेस की संभावनाओं को लेकर राजनीतिक विश्लेषक ही नहीं विपक्षी दल तक आश्वस्त नहीं हैं। मुलायम सिंह की टिप्पणी को भले ही रस्म अदायगी मानकर उपेक्षित कर दिया जावे किन्तु विपक्ष की एकता के प्रयास अभी तक प्रभावित नहीं कर पा रहे हैं। एनडीए के जो घटक भाजपा से नाराज हैं वे भी इसीलिए पाला बदलने में आगे-पीछे हो रहे हैं। शिवसेना भी अलग थलग होने से परेशान है। विपक्ष की एकता में अनेकता का जो पेच फंसा है यदि वह ऐसा ही रहा तब फिर मुलायम सिंह की सहज-सरल कही जा रही शुभकामना नरेंद्र मोदी के लिए वरदान बन सकती है।

- रवीन्द्र वाजपेयी

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