Friday 15 February 2019

वरना मुंह छिपाने का बहाना नहीं मिलेगा

जम्मू - कश्मीर के पुलवामा में सीआरपीएफ  के काफिले पर हुआ आतंकवादी हमला कोई साधारण बात नहीं है।  जिस तरह से घात लगाकर धमाका किया गया वह पूरी तरह योजनाबद्ध लगता है।  अभी तक 44 जवानों के मारे जाने एवं लगभग 50 के घायल होने की जानकारी मिली है।  जिस आतंकवादी संगठन ने उक्त हमला किया उसने बाकायदा इसकी जिम्मेदारी लेकर ये बता दिया कि सुरक्षा बलों के अथक प्रयासों से आतंक पीडि़त इस राज्य में पाकिस्तान प्रवर्तित दहशतगर्दी की जड़ों में मठा डालने के बावजूद जहर के बीज अभी भी बिखरे पड़े हैं।  प्रारंभिक जांच से ही ये तथ्य सामने आया है कि हमले की वारदात को अंजाम देने में आतंकवादियों को स्थानीय जनता की सहायता हासिल हुई।  वैसे ये कोई नई बात नहीं। जब भी सुरक्षा बल आतंकवादियों को घेरते हैं तो स्थानीय लोग उनके काम में बाधा डालते हैं।  पत्थरबाजी की घटनाएं भले ही कम हुई हों लेकिन खत्म होने का दावा करना भी सही नहीं होगा।  इस हमले के जरिए आतंकवादियों ने केंद्र सरकार को खुली चुनौती दे डाली है।  स्मरणीय है हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जम्मू-कश्मीर गए थे।  श्रीनगर की सुप्रसिद्ध डल झील में मोटर बोट पर सवार उनका एक चित्र भी प्रसारित हुआ था जिसके जरिये उन्होंने ये सन्देश कश्मीर और देश को देने की कोशिश की थी कि घाटी में पूरी तरह शांति है।  कुछ दिन पूर्व ही घाटी के कुछ जिलों को पूरी तरह से आतंकमुक्त होने का प्रमाणपत्र भी दिया गया और उसे सुरक्षा बलों की बड़ी कामयाबी माना गया जो गलत भी नहीं था किंतु लोकसभा चुनाव के पहले गत दिवस संसद का सत्रावसान होने के बाद ही पुलवामा का ये हादसा इस बात का इशारा है कि लद्दाख और जम्मू को भले छोड़ दें लेकिन कश्मीर घाटी के भीतर अभी चुनाव की स्थिति कतई नहीं है।  उल्लेखनीय है पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती द्वारा रिक्त की गई अनन्तनाग लोकसभा सीट पर उपचुनाव करवाना सम्भव नहीं हो सका।  ताजे आतंकवादी हमले का आकार और समय बहुत ही सोच समझकर तय किया गया था।  खुफिया सूत्रों ने इस बारे में आगाह भी किया था किंतु इसके बाद भी सीआरपीएफ  का काफिला निशाने पर आ ही गया।  अभी हाल ही में प्रदर्शित उरी हमले पर आधारित फिल्म बहुत लोकप्रिय हुई जिसका संवाद हॉउज जोश पूरे देश में गूंजा।  ये भी कहा गया कि उरी नामक इस फिल्म का उद्देश्य मोदी सरकार का महिमामंडन करना रहा।  लोकसभा चुनाव के पहले इसके जरिये प्रधानमंत्री की छवि सुधारने का आरोप भी विपक्ष ने लगाया।  उसी समय डॉ. मनमोहन सिंह पर आधारित द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर नामक फिल्म भी प्रदर्शित हुई जिसमें पूर्व प्रधानमंत्री को कमजोर नेता बताया गया।  उक्त दोनों फिल्मों को भाजपा के चुनाव अभियान के पहले चरण के रूप में देखा गया जो कुछ हद तक सही भी था।  वैसे भी पार्टी और प्रधानमंत्री दोनों डॉ. सिंह का मजाक बनाने का कोई भी अवसर नहीं छोड़ते।  इसी तरह सर्जिकल स्ट्राइक को अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि बताने से भी संकोच नहीं किया जाता।  गत दिवस लोकसभा में अपने लंबे भाषण में भी श्री मोदी द्वारा सर्जिकल स्ट्राइक का उल्लेख किया गया।  निश्चित रूप से वह एक साहसिक निर्णय था जिसे  सेना के वीरों ने बड़ी ही कुशलता से अंजाम तक पहुंचाया।  पूरा देश उस कार्रवाई से गौरवान्वित हुआ।  ये उम्मीद भी बंधी कि सत्ता में आने के पहले श्री मोदी जिस तरह की बड़ी-बड़ी बातें किया करते थे उन्हें वे कार्यरूप में बदलकर भी दिखाएंगे।  इस बीच जम्मू -कश्मीर में पीडीपी के साथ सरकार बनाने को लेकर भी मोदी सरकार और भाजपा को समय -समय पर शर्मसार होना पड़ा।  यद्यपि पहले उस सरकार से हाथ खींचकर और फिर विधानसभा भंग करवाकर भूल सुधारने का भरसक प्रयास किया गया।  राष्ट्रपति शासन के दौरान घाटी में सुरक्षा बलों ने बहुत ही शानदार काम करते हुए बड़ी संख्या में आतंकवादियों को मारकर उनके ठिकाने तबाह कर दिए।  पिछले कुछ समय से लगने लगा था कि कश्मीर में अच्छे दिन आने वाले हैं।  हुर्रियत सहित अन्य अलगाववादियों की नजरबंदी से भी माहौल काफी सुधरता प्रतीत हो रहा था।  लोकतांत्रिक प्रक्रिया के दोबारा  शुरू होने की आशा भी व्यक्त की जाने लगी थी लेकिन अचानक वह हो गया जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती थी। चूंकि लोकसभा चुनाव करीब हैं इसलिए पुलवामा हादसे पर राजनीति होना स्वाभाविक है। विपक्ष को यद्यपि ऐसे अवसरों पर आलोचना से बचना चाहिए लेकिन भाजपा और श्री मोदी अतीत में ऐसी घटनाओं के समय मनमोहन सरकार की जिस तरह खिल्ली उड़ाते रहे उसे देखते हुए उन्हें भी वह सब सुनना पड़ रहा है।  हालांकि इस तरह की वारदात में ज्यादा राजनीति से सैन्य बलों का मनोबल गिरता है लेकिन केवल विपक्ष ही नहीं बल्कि पूरे देश का जनमानस अपेक्षा करता आ रहा है कि जिस कड़े जवाब के दावे किए जाते हैं वह दिया जाए।  लोकसभा चुनाव करीब हैं केवल इस वजह से पलटवार कर फजीहत से बचा जाए ये भी ठीक नहीं होगा।  चुनाव अपनी जगह हैं लेकिन देश की सुरक्षा, सम्मान और सेना का मनोबल उससे भी ज्यादा मायने रखते हैं।  जरूरी नहीं कि सीधे युद्ध ही छेड़ दिया जावे क्योंकि उसके दूरगामी परिणामों के बारे में आकलन करना भी जरूरी होता है।  लेकिन ये भी उतना ही सही है कि बिना जंग लड़े जवानों की शहादत से सैन्य बल भी भीतर ही भीतर कसमसाहट अनुभव कर रहे हैं। भारतीय सेना अपनी बलिदानी परंपरा और युद्ध कौशल के लिए पूरी दुनिया में प्रशंसित है। जब भी देश के राजनीतिक नेतृत्व ने उसे अवसर दिया उसने इतिहास रचा।  इत्तेफाक से एक बार फिर इस बात की आवश्यकता महसूस की जाने लगी है कि जवानों की शहादत का हिसाब चुकता किया जाए।  केंद्र सरकार के पास अब प्रतीक्षा करने का वक्त और गुंजाइश दोनों नहीं है।  यदि प्रधानमंत्री ने इस बार भी जनभावनाओं के अनुरूप कदम नहीं उठाए तब उनके पास मुंह छिपाने का कोई बहाना नहीं बचेगा।  लेकिन देश के विपक्षी दलों, तथाकथित बुद्धिजीवियों और मानवाधिकारवादियों को भी थोड़ा संयम रखना चाहिए।  आपस में तो हम कभी भी निपट लेंगे।  फिलहाल तो समय दुश्मन के हौसले पस्त करने का है।  सरकार और सेना इस शहादत का बदला लेने के लिए जिस हद तक भी जाना चाहे, देश उनके साथ खड़ा है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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