Monday 11 February 2019

आरक्षण आंदोलन आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरनाक

राजस्थान का गुर्जर आंदोलन कोई नई बात नहीं है। इसके पहले भी इसी तरह का आंदोलन इस सामुदाय की तरफ  से किया जा चुका है। जाट आंदोलन की कड़वी  यादें राजस्थान के साथ अन्य पड़ोसी राज्यों के मन-मष्तिष्क में अंकित हैं। गुजरात का पाटीदार आंदोलन भी रह-रहकर गर्माता रहता है। राजस्थान के वर्तमान गुर्जर आरक्षण आंदोलन के लिये उसके नेता तो जिम्मेदार हैं ही, राजनीति के खिलाड़ी भी उतने ही दोषी हैं जो चुनाव जीतने के लिए अव्यवहारिक वायदे कर देते हैं। गुर्जरों का कहना है कि कांग्रेस ने राजस्थान विधानसभा चुनाव के अपने घोषणापत्र में उनको 5 प्रतिशत आरक्षण का जो वायदा किया था उसे वह पूरा करे। और समय होता तब शायद ये समुदाय थोड़ा इंतजार कर भी लेता लेकिन उसके नेता समझ गए हैं कि जो भी करवाना है लोकसभा चुनाव के पहले करवा लो वरना फिर कोई पूछने वाला नहीं है। इस बारे में रोचक बात ये है कि राज्य के उप मुख्यमंत्री सचिन पायलट खुद भी गुर्जर समुदाय से हैं। हाल ही में एक समारोह के अवसर पर इस बारे में पूछे गए सवाल पर  मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने गेंद पास ही खड़े श्री पायलट की तरफ  सरका दी लेकिन वे भी कोई संतोषजनक जवाब नहीं दे सके। दूसरी तरफ आंदोलन दिन ब दिन आक्रामक होता जा रहा है। आन्दोलनकारी रेल की पटरियों पर बैठ गए हैं जिससे दर्जनों रेल गाडिय़ां या तो रद्द की गईं या उनका मार्ग बदला गया। अनेक स्थानों पर राजमार्ग जाम किये जाने से सड़क परिवहन भी अवरुद्ध हो गया है। ये सब कब तक चलेगा फिलहाल कोई नहीं बता सकता। एक गुर्जर नेता का कहना है कि किसानों के कर्ज माफ  करने की तरह से ही कांग्रेस को गुर्जर आरक्षण के वायदे को भी पूरा करना चाहिये।  भाजपा चुपचाप इस आंदोलन को देख रही है क्योंकि उसके पास फिलहाल कोई समाधान नहीं है। इस आंदोलन का राजनीतिक पक्ष छोड़ दें तो गुर्जरों को उपकृत किये जाते ही जाट और ऐसी ही अन्य जातियां भी आरक्षण की मांग पर आंदोलन शुरू कर देंगीं। जाट यदि मैदान में उतरे तब राजस्थान के अतिरिक्त हरियाणा और प. उत्तर प्रदेश भी उससे अछूते नहीं रहेंगे। गुजरात में भी हार्दिक पटेल एक बार फिर पाटीदार आंदोलन की आग भड़का सकते हैं। केंद्र सरकार द्वारा सामान्य जातियों को प्रदत्त 10 प्रतिशत आरक्षण से भी अन्य जातियों का हौसला बुलंद हुआ है।  लोकसभा चुनाव तक इस तरह की और भी मांगें उठती रहेंगीं जिनके पीछे कोई न कोई राजनेता जरूर होता है। बड़ी बात नहीं वर्तमान गुर्जर आंदोलन के पीछे  राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और उप मुख्यमंत्री सचिन पायलट के बीच का शीतयुद्ध हो। ज्ञात रहे  विधानसभा चुनाव के पहले जब श्री पायलट को प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनाया गया तब ये मान लिया गया था कि सत्ता आने पर वे ही मुख्यमंत्री बनाये जाएंगे। चुनाव में गुर्जर समुदाय ने कांग्रेस को जो समर्थन दिया उसके पीछे श्री पायलट भी बड़ा कारण रहे। लेकिन सरकार बनने के बाद अशोक गहलोत ने जो पांसे फेंके उनके आगे सचिन की एक नहीं चली। जाहिर तौर पर उन्हें ये गंवारा नहीं हो रहा। वरना अभी तक वे खुद होकर गुर्जरों से वार्ता कर आग पर पानी डलवा देते। लेकिन राजस्थान, गुजरात और हरियाणा से निकलकर आरक्षण के बारे में राष्ट्रीय स्तर पर सोचने का समय आ गया है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अनु.जाति/जनजाति कानून में किये बदलाव को रोकने के लिए लाए गए संशोधन ने सवर्णों को बुरी तरह से नाराज कर दिया। हालांकि संसद में उसे सर्वदलीय समर्थन मिला लेकिन सवर्णों के गुस्से का शिकार हुई अकेली भाजपा। तीन राज्यों की सत्ता हाथ से खिसकने के पीछे भाजपा के परम्परागत  सवर्ण मतदाताओं की नाराजगी भी बड़ा कारण बन गई। उसी नुकसान की भरपाई के लिए सामान्य जातियों के लिए 10 फीसदी आररक्षण का दांव मोदी सरकार ने चला लेकिन वह कितना कारगर होगा ये कोई  नहीं बता सकता क्योंकि एक को कुछ देने पर दूसरे का मुंह फूल जाता है। सही बात तो ये है जातिगत आरक्षण के आंदोलनों के पीछे  भी वोट बैंक का खेल छिपा हुआ है। आरक्षण की आड़ में आग भड़काकर कतिपय नेता अपनी राजनीति चमकाने का तानाबाना बुनते हैं। हार्दिक पटेल अब तक पटेलों को तो आरक्षण दिलवा नहीं सके लेकिन पाटीदारों के बाहुल्य वाली सीट से लोकसभा चुनाव लडऩे की तैयारी जरूर उन्होंने शुरू कर दी है। राजस्थान का मौजूदा आन्दोलन किस मोड़ पर जाकर खत्म होगा ये कहना फिलहाल कठिन है क्योंकि राजस्थान सरकार इधर कुआं, उधर खाई की स्थिति में फंस गई है। यदि वह गुर्जरों को उपकृत करेगी तो जाट, मीणा और भी न  जाने कौन-कौन से समुदाय अपना झंडा-डंडा लेकर मैदान में कूद पड़ेंगे । इस आग की तपिश पड़ोसी राज्यों में भी महसूस की जावेगी । लोकसभा चुनाव की वजह से जातिगत मोर्चेबंदी वैसे भी काफी तेज हो चुकी है । सबसे ज्यादा चिंता की बात ये है कि क्षेत्रीय या जाति आधारित दलों को छोड़ दें तो भाजपा कांग्रेस जैसे राष्ट्रीय दल तक जातिगत आरक्षण को लेकर सच बोलने से घबराते हैं। सर्वोच्च न्यायालय के समयोचित फैसले को स्वीकार करने में कुछ भी गलत नहीं था लेकिन मोदी सरकार अपराधबोध से ग्रसित हो गई और ताबड़तोड़ तरीके से उसे निष्प्रभावी करने में जुट गई। इससे भाजपा को सवर्ण मतदाताओं के समर्थन का जो नुकसान हुआ वह उतना  महत्वपूर्ण नहीं जितना जातिगत विद्वेष में हुई बढ़ोतरी है। समाज को जोडऩे की बजाय उसे खंड-खंड करने के इस गंदे खेल ने देश को अंदर से कितना कमजोर कर दिया ये सोचने की फुरसत किसी को नहीं है। दुख की बात तो ये है कि नई पीढ़ी के सुशिक्षित राजनेता भी प्रगतिशील सोच रखने की बजाय जाति और कुनबे की सियासत में उलझे रहते हैं। गुर्जरों के आंदोलन को हिंसक बनाने के पीछे पुराने नौकरशाह और सेवा निवृत्त सैन्य अधिकारी ही हैं। आंदोलन की जो शैली आजकल अपनाई जाने लगी है वह किसी भी दृष्टि से देशहित में नहीं है। बेहतर तो यही होगा कि वोटों का लालच त्यागकर सभी जिम्मेदार नेता आरक्षण की आड़ में होने वाली देशविरोधी गतिविधियों के विरुद्ध मुखर हों। वरना इसी तरह सार्वजनिक संपत्ति फुंकती रहेगी और जनजीवन अस्त-व्यस्त होता रहेगा। चुनाव और उनमें होने वाली हार-जीत तो खेल का हिस्सा है लेकिन उसके लिये समाज में विघटन को जन्म देने वाली ताकतों की मिजाजपुर्सी बन्द होनी चाहिये वरना देश की आन्तरिक सुरक्षा पर मंडराता खतरा और गम्भीर होता जायेगा।

- रवीन्द्र वाजपेयी

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