Wednesday 20 February 2019

कश्मीर में श्रीलंका जैसी हिम्मत की जरूरत

पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने गत दिवस भारत को धमकाया है कि यदि उसने हमला किया तो करारा जवाब दिया जाएगा। पुलवामा हमले के बाद भारत के आरोपों पर पहले तो इमरान ने सफाई दी कि पाकिस्तान पर बिना प्रमाण आरोप लगाए जाने का कोई औचित्य नहीं है। उसके बाद उन्होंने ये दलील दी कि उनकी सरकार बनने के बाद जिस नए पाकिस्तान की रचना हो रही है वह आतंकवाद को बढ़ावा देने में यकीन नहीं रखता। इमरान ने ये भी कहा कि उनके देश ने बीते एक दशक में आतंकवाद के चलते 50 हजार लोग खोए हैं। इस प्रकार वह खुद भी इसका शिकार है। लेकिन जब उनकी किसी भी दलील पर भारत नहीं पसीजा तब उन्होंने हमले का मुंहतोड़ जवाब देने की डींग हांकी जो उनकी घरेलू राजनीतिक मजबूरी भी है। उधर केंद्र सरकार द्वारा दी गई खुली छूट के बाद सेना ने कश्मीरी जनता को दो टूक कह दिया कि जो बंदूक उठाएगा मारा जायेगा। सेना ने कश्मीरी महिलाओं से अनुरोध किया है कि अपने बच्चों को समझा लें और आत्म समर्पण करने हेतु प्रेरित करें। पुलवामा हमले के सूत्रधार कामरान गाजी के मारे जाने से सेना का मनोबल भी ऊंचा हुआ है। देश के अन्य हिस्सों से भी केंद्र को जिस तरह का समर्थन मिल रहा है उससे भी सरकार और सेना दोनों कड़े कदम उठाने की मानसिकता बना चुके हैं। सबसे अच्छा ये हुआ कि वैश्विक स्तर पर भारत को जबर्दस्त समर्थन और सहानुभूति हासिल हुई। केवल चीन को छोड़कर शेष महाशक्तियों ने पाकिस्तान पर दबाव बढ़ाया है। इजऱायल का भारत के साथ आना तो स्वाभाविक था ही लेकिन फ्रांस ने जिस तरह संरासंघ में पाकिस्तान के विरुद्ध मोर्चा खोला वह बेहद महत्वपूर्ण है। उल्लेखनीय है बीते कुछ सालों से फ्रांस भी इस्लामिक आतंकवाद से बुरी तरह पीडि़त है। जैश ए मोहम्मद के मसूद अजहर को वैश्विक आतंकी घोषित करने के लिए वह विश्व संस्था में बाकायदा प्रस्ताव लाने जा रहा है। हालांकि ऐसा होना आसान नहीं है क्योंकि पाकिस्तान के समर्थन में चीन किसी भी स्तर पर जाने के लिए तैयार बैठा हुआ है लेकिन इतना जरूर हुआ कि भारत की कूटनीतिक चपलता ने पाकिस्तान पर दबाव बढ़ा दिया है। इमरान सबूतों के अभाव में अपनी कितनी भी बेगुनाही बताएं किन्तु जब जैश का कारोबार ही पाकिस्तान से चल रहा है और मसूद रहता भी वहीं है तब किसी प्रमाण की जरूरत ही क्या है? और तो और जब पुलवामा हमले के तुरंत बाद जैश ए मोहम्मद ने उसकी जिम्मेदारी ले ली तब इमरान का मासूम बने रहना बेमतलब है। इमरान पाकिस्तान में आधुनिक सोच और सुधार के प्रतीक माने जाते रहे हैं। भ्रष्टाचार  के खिलाफ  उन्होंने लंबी लड़ाई भी लड़ी जिसकी वजह से नवाज शरीफ और उनका पूरा कुनबा जेल चला गया। लेकिन ये भी सच है कि इमरान को सत्ता जनता से ज्यादा सेना की मदद से मिल सकी और इसलिए वे दावे कितने भी करें किन्तु उनका तथाकथित नया पाकिस्तान भी सेना द्वारा संचालित है। आर्थिक दृष्टि से कंगाली की स्थिति में पहुंचने की वजह से उसकी हालत लगातार खस्ता हो रही है। अमेरिका और उसके समर्थक देशों द्वारा हाथ खींच लेने से जो खैरात पाकिस्तान को मिला करती थी वह अचानक कम हो गई। इमरान के पास चूंकि पूर्ण बहुमत नहीं है इसलिए उन्हें सेना की मदद से सरकार चलानी पड़ रही है। यह वजह है कि वे चाहकर भी भारत के साथ अच्छे रिश्ते बनाने की बात सोच भले ही लें लेकिन उसे लागू नहीं कर सकेंगे। मौजूदा हालात में पाकिस्तान पूरी दुनिया में बदनाम हो चुका है। यहां तक कि अरब जगत के इस्लामी देश तक उससे दूरी बनाकर चल रहे हैं। ऐसी स्थिति में भारत के लिए बेहतर होगा कि वह इस अवसर को हाथ से नहीं जाने दे। सीमा पर भारतीय सेना की हलचल बढऩे से सतर्क पाकिस्तान ने अपने आतंकी अड्डे पीछे सरका लिए हैं। यद्यपि युद्ध की सम्भावनाएँ बहुत ज्यादा नहीं है और पाकिस्तान भी कारगिल सरीखी कोई हरकत करने की स्थिति में नहीं है इसलिए उसकी तरफ  से आक्रामक सैन्य गतिविधि की आशंका तो कम है किंतु जैसा गत दिवस सेना के कुछ वरिष्ठ अधिकारियों ने कहा उसके मुताबिक कश्मीर घाटी के भीतर अलगाववादी सोच और उसके संरक्षण में पलने वाले आतंकवाद के विरुद्ध निर्णायक लड़ाई छेड़ देनी चाहिए। बंदूक उठाने वाले को मौत की चेतावनी को हकीकत में बदलना ही वक्त का तकाजा है। इस संबंध में भारत को श्रीलंका से सीखना चाहिए जिसने लिट्टे नामक आतंकवादी संगठन के सफाये के लिए सेना को खुला हाथ देते हुए न तो मानवधिकारों की चिंता की और न ही विश्व जनमत की। तत्कालीन राजपक्षे सरकार के उस ऑपरेशन की खास बात ये रही कि लिट्टे प्रमुख प्रभाकरण के मारे जाने के बाद उसके नाबालिग बेटे को जीवित गिररफ्तार किये जाने की बाद भी इस कारण मार दिया जिससे कि लिट्टे का कोई नया संस्करण जन्म न ले सके। हाल ही में चीन ने भी अपने एक मुस्लिम बहुल प्रांत में मुसलमानों के बीच बढ़ती धार्मिक कट्टरता के विरुद्ध बेहद कड़ा रवैया अपनाते हुए उनके धार्मिक रीति-रिवाजों पर प्रतिबंध लगा दिया। यदि भारत सरकार वाकई कश्मीर में अलगाववाद की कमर तोडऩा चाहती है तो उसे श्रीलंका और चीन के उदाहरण से प्रेरणा लेकर दबावमुक्त होकर काम करना चाहिए। इस काम के लिए इससे अनुकूल समय नहीं मिलेगा क्योंकि कश्मीर मसले का बातचीत से हल निकालने के पक्षधर लोगों की बोलती इस समय बंद है। देश का जनमत राजनीतिक प्रतिबद्धता से ऊपर उठकर कश्मीर में आर-पार की लड़ाई का इच्छुक है। सेना भी हौसले से भरपूर है। बीते दो साल में घाटी के भीतर सैन्य बलों ने शानदार काम किया लेकिन उसके हाथ कई मामलों में बंधे होने से वह चाहकर भी बहुत कुछ नहीं कर सकी। पुलवामा में 40 फौजियों की मौत ने उसके हाथ बंधनमुक्त कर दिए हैं। सरकार और देश सेना के पीछे है और विश्व जनमत भी पक्ष में है। ये अवसर यदि गंवा दिया गया तब कश्मीर में भारत विरोधी भावनाएं और सिर उठाएंगी। जरूरत है भारत एक मजबूर देश की बजाय इजरायल की तरह एक मजबूत राष्ट्र जैसे अपने को पेश करे।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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