Tuesday 12 February 2019

बशर्ते अल्पसंख्यक आयोग सियासत में न उलझे

सर्वोच्च न्यायालय ने राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग को निर्देश दिया कि वह 3 माह के भीतर अल्पसंख्यक शब्द को नए तरीके से परिभाषित करने सम्बन्धी मांग पर फैसला करे। एक अधिवक्ता की याचिका में न्यायालय से मांग की गई कि किसी राज्य में अल्पसंख्यक का पैमाना उस राज्य की जनसंख्या में उनका प्रतिशत होना चाहिए न कि अल्पसंख्यकों की राष्ट्रीय स्तर पर तय की गई मान्यता। याचिकाकर्ता ने कहा है कि देश के आधा दर्जन से ज्यादा राज्य एवं एक केंद्र शासित प्रदेश में हिंदुओं की आबादी कम होने से उन्हें अल्पसंख्यक का दर्जा दिया जाना चाहिए लेकिन राष्ट्रीय मापदंड के अनुसार उनमें भी हिंदुओं को बहुसंख्यक ही माना जाता है। उलेखनीय है जाति आधारित आरक्षण के संबंध में ये व्यवस्था है कि हर प्रदेश तो क्या हर जिले में उसके अलग-अलग आधार हैं। उसके चलते किसी एक जिले में अनुसूचित समझी जाने वाली जाति उसी राज्य के अन्य जिलों में उस श्रेणी से बाहर समझी जाती है। राज्यों के साथ भी यही स्थिति है किन्तु अल्पसंख्यकों के बारे में यह विभिन्नता नहीं है। याचिका का मूल बिंदु यही है। उदाहरण के तौर पर जम्मू-कश्मीर में मुस्लिम बहुसंख्यक हैं। इसी तरह उत्तर पूर्व के अनेक राज्यों में ईसाई आबादी हिंदुओं से ज्यादा है। लेकिन जब अल्पसंख्यकों के लिए निर्धारित विशेषाधिकारों एवं लाभों का मामला आता है तब हिंदुओं को राष्ट्रीय आधार पर बहुसंख्यक श्रेणी में रख दिया जाता है। सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश के बाद अल्पसंख्यक आयोग क्या फैसला देता है इसके लिए अभी तीन महीने तो इन्तजार करना ही पड़ेगा लेकिन बड़ी बात नहीं अदालत और आयोग के बीच सीमित न रहते हुए ये राजनीति का विषय भी बन जाए। लोकसभा चुनाव बेहद करीब हैं और अल्पसंख्यक हमारे देश में वोट बैंक के तौर पर देखे जाते हैं। फिर जहां सवाल हिंदुओं का हो वहां सांप्रदायिकता का हल्ला मचना भी स्वाभाविक है।  सही बात तो ये है कि अल्पसंख्यकों के धार्मिक और सांस्कृतिक अधिकारों को संरक्षित रखने से ज्यादा चिंता उनके मताधिकार की रहती है।  मुसलमानों को ही लें तो उनकी आर्थिक बदहाली और पिछड़ेपन का हल्ला तो खूब मचता है लेकिन उसे दूर करने के लिए  समुचित प्रयास नहीं किये गए क्योंकि उनके खैरख्वाह बने सभी दल उन्हें उसी हालत में रखना चाहते हैं जिससे कि उन्हें डराकर उनके वोट बटोरे जाते रहें। ये बात बिल्कुल सच है कि यदि मुसलमान पूरी तरह से शिक्षित हो जाएं तब उनके मन से कट्टरपंथी सोच भी कम होती जाएगी। अल्पसंख्यकों की जमात में मुस्लिम समुदाय के अलावा सिखों को भी शमिल कर लिया गया। कुछ राज्यों ने जैनियों को भी बहुसंख्यक की श्रेणी से निकालकर अल्पसंख्यक बना दिया।  अल्पसंख्यक बनने से जो लाभ मिलते हैं उनका आकर्षण ही इसका पीछे मुख्य रूप से था। वर्ना जैन और सिख तो हिन्दू ही माने जाते थे । कश्मीर घाटी से निकाल दिए हजारों कश्मीरी ब्राह्मणों के परिवार देश के विभिन्न हिस्सों में शरणार्थी का जीवन गुजारने मजबूर हैं लेकिन उन्हें लेकर पूरे देश में वैसा हल्ला और समर्थन नहीं दिखाई देता जैसा रोहिंग्या और बांग्लादेश से आये मुस्लिमों के समर्थन में महसूस किया जाता है। अल्पसंख्यक आयोग ने कश्मीरी पंडितों की कितनी चिंता की ये भी विचारणीय मुद्दा है। उस आधार पर ये सोच लेना जल्दबाजी होगी कि आयोग सर्वोच्च न्यायालय के कहे अनुसार अल्पसंख्यक की परिभाषा बदलने राजी हो जाएगा क्योंकि हर मसले की तरह इसमें भी अभी सियासत का तड़का लगना बाकी है। ओवैसी और आज़म खान सरीखे लोग तो ऐलानिया चिल्लाते हैं लेकिन कुछ और भी ऐसे शख्स हैं जो अल्पसंख्यक नाम की रोटी ही खाते हैं। ये शब्द केवल वोटों की फसल काटने में चूंकि मददगार बनता है इसलिए इसे जीवित रखते हुए खाद पानी देते रहने की जो नीति अपनाई गई उसकी वजह से मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना वाली भावना तो गहराई तक दफन होकर रह गई है। जिस याचिका पर सर्वोच्च न्ययालय ने अल्पसंख्यक आयोग को निर्देश दिया उसके पीछे भी कारण यही है कि विभिन्न राज्यों में हिंदुओं के अल्पसंख्यक हो जाने के बावजूद वे पीडि़त और उपेक्षित हो रहे हैं। सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश को यदि अल्पसंख्यक आयोग सही परिप्रेक्ष्य में लेते हुए ईमानदारी से उसे दी गई जिम्मेदारी का निर्वहन करे तो बहुत सारी विसंगतियां दूर की जा सकती हैं। लेकिन इसके लिए मन साफ  होने के साथ ही सियासी दखलंदाजी से आयोग को दूर रहना होगा। वरना वही होगा जो अभी तक होता आया है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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