Saturday 9 February 2019

माया की मूर्ति : ठहरे हुए पानी को हिला दिया श्री गोगोई ने

चूंकि बात सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश के श्रीमुख से निकली इसलिए उसे एक संकेत समझा जा सकता है। मुख्यमंत्री रहते हुए बसपा नेत्री मायावती ने लखनऊ में एक विशाल पार्क बनवाया जो वाकई बहुत ही खूबसूरत है तथा राजा-महाराजाओं के दौर की याद दिला देता है। जब ये पार्क बन रहा था तभी से इसकी आलोचना होती रही जिसमें मायावती के ताजातरीन साथी और भतीजे अखिलेश यादव सबसे आगे थे। हॉलांकि लखनऊ की खूबसूरती और पर्यटन को बढ़ाने में ये पार्क काफी सहायक साबित हुआ। लेकिन आलोचना का प्रमुख कारण बनी मायावती की अपनी और हाथी की दर्जनों मूर्तियां जो बसपा का चुनाव चिन्ह भी है। चुनावों के दौरान इन मूर्तियों को आचार संहिता के तहत कपड़े से ढांकना पड़ता है। मायावती के साथ लगी स्व. कांशीराम की  प्रतिमा पर किसी ने एतराज नहीं जताया किन्तु जीवित व्यक्ति की प्रतिमा लगाना चूंकि अशुभ समझा जाता है और फिर कोई लोकतांत्रिक शासक सरकारी खर्च पर अपनी मूर्ति लगवाने पर ही करोड़ों रुपये फूंक डाले ये बात किसी के गले नहीं उतरी। मायावती के सत्ता से बाहर होने के बावजूद वे मूर्तियां नहीं हट सकीं क्योंकि वैसा करने से दलित मतदाताओं के नाराज होने का खतरा था। और फिर मूर्तियां और स्मारक बनवाने के मामले में सभी पार्टियां अपराधबोध से ग्रसित हैं। लेकिन एक वकील साहब सर्वोच्च न्यायालय की चौखट पर जा पहुंचे और मायावती तथा हाथी की प्रतिमाओं पर हुए सरकारी खर्च की वसूली की मांग कर डाली। लंबे समय तक लंबित रहने के बाद गत दिवस वह याचिका सुनवाई हेतु आई और उस पर प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई ने मौखिक तौर पर मायावती के वकील को साफ  कह दिया कि ये राशि तो मायावती को सरकारी खजाने में भरनी पड़ेगी। मामला बिगड़ता देख वकील साहब ने मई के बाद सुनवाई करने की फरियाद की लेकिन इस पर गोगोई साहब ने तल्खी भरे अंदाज में कह दिया कि हमें ऐसा कुछ कहने के लिए मजबूर नहीं करें जो हम कहना नहीं चाहते। अगली सुनवाई 2 अप्रैल को होगी। यद्यपि मायावती के वकील का ये तर्क सही है कि प्रधान न्यायाधीश ने फैसला नहीं दिया केवल मौखिक टिप्पणी की है किंतु उसके बाद भी यह मामला राष्ट्रीय बहस का मुद्दा बन गया। सोशल मीडिया पर भी मायावती की खूब आलोचना होने लगी। टीवी पत्रकार और आदमी पार्टी छोड़कर आए आशुतोष ने ट्विटर पर मायावती की तरफदारी करते हुए लिखा कि यदि उनसे मूर्तियों का पैसा लिया जावेगा तब सरदार पटेल की मूर्ति पर खर्च 3 हजार करोड़ भी नरेंद्र मोदी को लौटाने होंगे। इस पर आशुतोष की जो फजीहत हो रही है उससे जनता का मूड पता चल जाता है। बहरहाल श्री गोगोई को इस बात के लिए बधाई दी जानी चाहिए कि उन्होंने बहुत ही साहसिक टिप्पणी करते हुए राजनीतिक स्वार्थ के लिए जनता के धन की बर्बादी पर उँगली उठाई। लखनऊ में रहने वाले भी सन्दर्भित पार्क की तारीफ  करते नहीं अघाते किन्तु मायावती की मूर्ति और बसपा के चुनाव चिन्ह हाथी उन्हें खटकते हैं। इस बारे में मायावती ने एक बार कहीं कहा था कि कांशीराम जी उनसे कह गए थे कि उनकी मूर्ति के साथ ही वे अपनी मूर्ति भी लगवाएं। यदि मायावती बसपा कार्यालय या अपने घर में स्व. कांशीराम और अपनी मूर्ति पत्थर तो क्या सोने की बनवाकर उसमें हीरे जवाहरात जड़वा देतीं तब उसकी आलोचना उतनी नहीं होती लेकिन मुख्यमंत्री रहते हुए वैसा करने का कोई औचित्य नहीं था जो सरासर फिजूलखर्ची से भी बढ़कर तो अय्याशी कही जायेगी। श्री गोगोई की टिप्पणी से देश भर में सत्ताधारी पार्टियों द्वारा अपने नेताओं को महिमामण्डित करने के लिए बनाए जाने वाले स्मारकों को लेकर बहस चल पड़ी है। जहाँ तक बात सरदार पटेल की विशाल प्रतिमा पर हुए 3 हजार करोड़ का सवाल है तो वह बेहद दूरदृष्टि भरा निर्णय था जिसके सुपरिणाम मूर्ति का अनावरण होते ही आने भी लगे। बड़ी संख्या में पर्यटकों के आने से लाखों रु. प्रतिदिन का शुल्क आने के साथ ही निकटवर्ती क्षेत्रों की आर्थिक समृद्धि का रास्ता भी खुल गया। और फिर सरदार का जो योगदान इस देश के प्रति था उसके लिहाज से वह एक तरह का कृतज्ञता ज्ञापन ही था किंतु मायावती ने जीते जी जो धृष्टता की वह संकुचित सोच और अमरत्व खरीदने का भौंड़ा प्रयास था। बात निकली है ो फिर और भी परतें खुलने लगीं। मसलन स्व. जवाहरलाल नेहरू और उनकी बेटी स्व. इंदिरा गांधी के अपनी ही सरकार द्वारा खुद को भारत रत्न से अलंकृत किये जाने के फैसले की जो आलोचना दबी जुबान होती थी वह अब खुलकर होने लगी है और इसमें  बुराई नहीं है। हमारे देश में एक ही परिवार के लोगों की स्मृति को अक्षुण्ण रखने के लिए जिस तरह की दरियादिली दिखाई गई वह किसी छिपी नहीं है। जब तक एक ही पार्टी का एकाधिकार था तब तक किसी की हिम्मत नहीं पड़ी लेकिन जबसे देश का राजनीतिक माहौल सर्वदलीय हुआ तबसे इस बारे में संज्ञान लिया जाने लगा है। जिन विभूतियों ने देश और समाज के लिए वाकई नि:स्वार्थ भाव से योगदान दिया उनकी स्मृति को सुरक्षित रखना कर्तव्य की श्रेणी में आता है। विभिन्न क्षेत्रों में उत्कृष्ट कृत्य करने वालों को सरकारी सम्मान से अलंकृत करना भी सभ्य समाज का लक्ष्ण है किंतु जो शासक जीते जी खुद को महिमामंडित करने के लिए सरकारी खजाने को लुटाए उसकी अनुमति नहीं दी जा सकती। उस दृष्टि से प्रधान न्यायाधीश श्री गोगोई ने जो स्पष्टवादिता दिखाई उसे केवल मायावती तक ही सीमित न रखते हुए व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए क्योंकि जिस नेता या महापुरुष की मूर्ति जनता के हृदय में होती है उसी की प्रतिमा के समक्ष आदर से सिर झुकता है वरना तो कौए और अन्य पक्षी उनके सिर पर बैठकर क्या करते हैं ये भी आते-जाते हर कोई देख सकता है। 2 अप्रैल को श्री गोगोई क्या फैसला देते हैं ये तो वे ही जानते होंगे लेकिन उन्होंने ठहरे हुए पानी को हिलाने का जो काम किया उसके लिए वे प्रशंसा के हकदार तो हैं ही।

-रवीन्द्र वाजपेयी

No comments:

Post a Comment