Friday 20 December 2019

ममता की मांग मोहम्मद गौरी को बुलाने जैसी



इसमें दो राय नहीं है कि स्व. ज्योति बसु के बाद वर्तमान मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी बंगाल की सबसे लोकप्रिय ही नहीं ताकतवर नेता हैं। साधारण रहन-सहन और जुझारू स्वभाव की वजह से उनकी जनता के बीच जबर्दस्त पकड़ है । कांग्रेस भी अपने चरमोत्कर्ष के समय बंगाल के जिस वामपंथी लाल किले की एक ईंट तक नहीं हिला सकी उसे ममता ने अपने साहसपूर्ण संघर्ष से मिट्टी में मिला दिया । आज इस राज्य में वामपंथी तीसरे स्थान पर लुढ़क चुके हैं। भाजपा ने भले ही पिछले लोकसभा चुनाव में तृणमूल कांग्रेस को आश्चर्यचकित करते हुए डेढ़ दर्जन सीटें जीत लीं किन्तु उसे ये नहीं भूलना चाहिए कि  इस कामयाबी के पीछे सुश्री बैनर्जी का अथक परिश्रम ही था वरना भाजपा बंगाल में नगरनिगम पार्षद का चुनाव जीतने तक की स्थिति में नहीं थी । ममता ने पहले कांग्रेस और फिर वामपंथियों को जिस तरह से शिकस्त दी उससे उनका कद राष्ट्रीय राजनीति में भी बढ़ा। अटल  जी की सरकार में वे मंत्री  भी रहीं लेकिन अपने तुनुकमिजाजी स्वभाव के  कारण एनडीए से बाहर आ गईं। संभवत: उन्हें उसी समय ये खतरा महसूस होने लगा था कि भाजपा दबे पाँव उनके प्रभावक्षेत्र में घुसपैठ कर  रही है। उनका शक गलत भी नहीं था। भाजपा ने बांग्लादेशी घुसपैठियों के विरुद्ध काफी पहले से अभियान छेड़ रखा था। असम में तो इसके अच्छे परिणाम मिलने लगे परन्तु बंगाल में वह काफी मशक्कत के बाद भी पैर नहीं जमा सकी। लेकिन बीते कुछ सालों में उसने इस राज्य में जबर्दस्त पकड़ बनाई। पिछले विधानसभा चुनाव में यद्यपि उसे आशानुरूप सफलता नहीं मिली लेकिन उसके बाद हुए पंचायत चुनाव में उसने बंगाल के भीतरी इलाकों में अपना जनाधार प्रदर्शित करते हुए ममता के लिए चुनौती पेश कर दी । 2019 के लोकसभा चुनाव के पहले सुश्री बैनर्जी ने विपक्षी गठबंधन बनाकर भाजपा को रोकने की जबर्दस्त कोशिशें कीं। कोलकाता में हुई महारैली के जरिये विपक्षी एकता की सूत्रधार बनने का प्रमाण भी दिया। धुर विरोधी भी मोदी को हटाने के लिए उनके मंच पर आये। बात तो ममता के प्रधानमन्त्री बनने तक की होने लगी। उसके पहले  के पांच साल में केंद्र सरकार और भाजपा ने शारदा चिटफंड घोटाले की जाँच के जरिये ममता के किले में सेंध लगाने का दांव चलते हुए तृणमूल के  अनेक वरिष्ठ नेताओं को अपने पाले में खींच लिया । घोटाले में फंसे पार्टी के कुछ मंत्री, सांसद और विधायक जेल भी गये। सीबीआई की जाँच को लेकर ममता ने बागी अंदाज भी दिखाए। धीरे-धीरे  भाजपा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से उनके राजनीतिक मतभेद निजी शत्रुता की शक्ल ले बैठे । और उसके बाद से ममता की जुबान और कार्यशैली में कड़वाहट और बगावती अंदाज बढ़ता चला गया। संघीय ढांचे को खतरे के नाम पर उन्होंने बात-बात में केंद्र से टकराहट की स्थितियां उत्पन्न कीं। दरअसल भाजपा ने बंगाल से  बांग्लादेशी घुसपैठियों को निकाल बाहर करने की जो मांग बुलंद की उससे सुश्री बैनर्जी को घबराहट होने लगी। 27 फीसदी मुस्लिम आबादी वाले इस राज्य में बांग्लादेश से आये लाखों मुस्लिम मतदाता बन गये हैं और अनेक सीटों पर उनका समर्थन जिताऊ साबित होता है। भाजपा ने जब-जब इसके विरुद्ध आवाज उठाई तब-तब सुश्री बैनर्जी ने दहाड़ते हुए कहा कि एक भी मुस्लिम को बंगाल से भगाया नहीं जाएगा। लेकिन उस जिद ने राज्य में धार्मिक ध्रुवीकरण की स्थितियां बना दीं। ये कहना गलत नहीं होगा कि मुस्लिम तुष्टीकरण के मामले में उन्होंने कांग्रेस को भी पीछे छोड़ दिया। हालाँकि दुर्गा पंडालों को अनुदान देकर हिन्दुओं को  लुभाने की भी भरपूर कोशिश की किन्तु मुहर्रम की वजह से  दुर्गा विसर्जन पर रोक लगाने जैसे उनके फैसलों से हिन्दुओं में नाराजगी बढ़ती गई जिसका सीधा लाभ भाजपा ने उठा लिया। हालांकि ये कहना जल्दबाजी होगी कि आगामी विधानसभा चुनाव में भाजपा, ममता के किले को धराशायी कर ही देगी किन्तु हालिया विधानसभा उपचुनावों से एक बात साबित हो गयी कि भाजपा बंगाल में तृणमूल की निकटतम प्रतिद्वंदी बन गयी है।  यही वजह है कि सुश्री बैनर्जी ने पहले राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) और अब नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) के विरुद्ध मोर्चा खोलते हुए  ऐलान कर दिया कि वे बंगाल में इन्हें लागू नहीं होने देंगीं। इस कानून के विरुद्ध वे लगातार रैलियां भी कर रही हैं। चुनाव जीतने के लिए राजनीतिक दलों द्वारा तरह-तरह के नाटक और अन्य प्रपंच रचे जाते हैं परंतु गत दिवस ममता ने एक बेहद खतरनाक बयान देते हुए केंद्र सरकार को चुनौती दे डाली कि उसमें हिम्मत है तो वह एनआरसी और सीएए पर जनमत संग्रह करवा ले। और हारने पर प्रधानमंत्री स्तीफा दें। इसी के साथ उन्होंने ये मांग भी रख दी कि जनमत संग्रह की प्रक्रिया संरासंघ की निगरानी में हो। उनकी ये मांग भारत के घरेलू मामलों में अंतर्राष्ट्रीय हस्तक्षेप के दरवाजे खोल सकती है। जिससे सबसे ज्यादा लाभ पाकिस्तान उठाये तो आश्चर्य नहीं होगा। उल्लेखनीय है पाकिस्तान जम्मू-कश्मीर विवाद का फैसला संरासंघ की निगरानी में जनमत संग्रह के जरिये करवाने की जिद पर अड़ा हुआ है। लेकिन लम्बे समय तक कश्मीर में अपने पर्यवेक्षक रखने के बाद अंतत: संरासंघ ने कश्मीर विवाद को दोनों देशों के बीच का मसला मानकर अपने पर्यवेक्षक वापिस बुला लिए। अनुच्छेद 370 हटाते समय लोकसभा में हुई बहस के दौरान कांग्रेस दल के नेता अधीर रंजन चौधरी ने भी जब कश्मीर में संरासंघ की निगरानी का उल्लेख करते हुए  विश्व बिरादरी की विपरीत प्रतिक्रिया का अंदेशा जताया तब खुद सोनिया गांधी चौंक गईं । श्री चौधरी के उस बयान ने कांग्रेस की जबर्दस्त फजीहत करवाई थी । ममता तो उससे भी दो कदम आगे बढ़कर देश के अंदरूनी मामले में संरासंघ की निगरानी की मांग कर बैठीं जो देश की सार्वभौमिकता के लिए खतरा है । उनके इस बयान से देश के अंदरूनी हालातों को लेकर पाकिस्तान और चीन जैसे शत्रु देश भारत के विरुद्ध दुष्प्रचार से  बाज नहीं आयंगे । ममता एक राज्य की निर्वाचित मुख्यमंत्री हैं जिन्होंने भारत की प्रभुसत्ता की रक्षा की शपथ ली हुई है। अतीत में वे केंद्र में भी मंत्री रही हैं। राजनीति में विरोधी पक्ष की आलोचना करना गलत नहीं है। सैद्धांतिक और नीतिगत मतभेद भी स्वाभाविक हैं। लेकिन किसी विवादग्रस्त मुद्दे पर संरासंघ की निगरानी में जनमत संग्रह करवाने की मांग तो पृथ्वीराज चौहान से बदला लेने के लिए मोहम्मद गौरी को निमंत्रण देने जैसा है। आश्चर्य की बात है इन पंक्तियों के लिखे जाने तक किसी विपक्षी दल ने ममता के उक्त बयान की आलोचना करना तो दूर उससे असहमति तक नहीं जताई । यदि इस प्रवृत्ति को कड़ाई से नहीं दबाया गया तो बड़ी बात नहीं कल को ममता और उनकी देखासीखी कोई अन्य नेता चुनाव आयोग को दरकिनार रखते हुए संरासंघ की निगरानी में चुनाव करवाने जैसी  मांग करने लग जाए। ममता अपनी तमाम खूबियों के बाद भी अपने जिद्दी स्वभाव और सनकीपन के लिए कुख्यात हैं। लेकिन देश के आन्तरिक मामलों का अंतर्राष्ट्रीयकरण करने की कोशिश देशहित के विरुद्ध है। राष्ट्रपति और सर्वोच्च न्यायालय को इसका संज्ञान लेते हुए समुचित कदम उठाना चाहिए वरना भारत तेरे टुकड़े होंगे जैसे नारे गली-गली सुनाई देने लगेंगे। और इस ऐतिहासिक तथ्य को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि देश के विभाजन की शुरुवात बंगाल से ही हुई थी।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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