Tuesday 10 December 2019

महंगा सौदा : विचार की कीमत पर सरकार



महाराष्ट्र में जोर का झटका धीरे से खा चुकी भाजपा को कर्नाटक विधानसभा की 15 सीटों के उपचुनावों के परिणामों से जबर्दस्त राहत मिली होगी। 12 सीटों पर उसके प्रत्याशी जीत गए वहीं जीता हुआ एक निर्दलीय उसका बागी है। कांग्रेस को मात्र दो सीटें मिलीं जबकि देवगौड़ा परिवार की पार्टी जनता दल (एस) का फट्टा साफ हो गया। ये उपचुनाव कांग्रेस और जनता दल (एस) से टूटकर आये विधायकों की सदस्यता रद्द होने के कारण हुए थे। इन सभी को भाजपा ने टिकिट दे दी। चुनाव परिणाम के बाद मुख्यमंत्री येदियुरप्पा ने जीते हुए 12 में से 11 विधायकों को मंत्री बनाये जाने का ऐलान कर दिया। इन नतीजों ने कर्नाटक में छाई राजनीतिक अस्थिरता दूर कर दी। येदियुरप्पा सरकार के पास अब पर्याप्त बहुमत हो गया है। भाजपा विरोधी जो गठबंधन विधानसभा चुनाव के बाद कांग्रेस और जनता दल (एस) ने मिलकर बनाया था वह अपने ही अंतर्विरोधों में छिन्न - भिन्न हो गया। आजकल दोनों ही दल एक दूसरे को दोषी ठहराने में जुटे हैं। सही बात तो ये है कि कांग्रेस के पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धारमैया जनता दल (एस) के नेता कुमारस्वामी को मुख्यमंत्री बनाने के पक्ष में नहीं थे किन्तु सोनिया गांधी ने भाजपा को किसी भी कीमत पर रोकने के लिए उनकी ताजपोशी करवा दी। कुछ महीनों तक तो इसे भाजपा की बड़ी शिकस्त के तौर पर देखा गया लेकिन लोकसभा चुनाव में भाजपा को मिली शानदार जीत ने इस गठबंधन की जड़ें खोद दीं। इसमें दो राय नहीं कि भाजपा ने कुमारस्वामी सरकार को गिराने के लिये जो कुछ भी किया वह नैतिकता के लिहाज से किसी भी तरह से उचित नहीं कहा जा सकता था क्योंकि जो विधायक कांग्रेस और जनता दल (एस) को छोड़कर आये वे भाजपा के सिद्धांतों के प्रति आकृष्ट तो थे नहीं। कुमारस्वामी सरकार में मंत्री पद नहीं मिलने से नाराज होकर भाजपा के साथ सौदेबाजी के चलते वे पाला बदलकर आ गये। चूँकि भाजपा के लिए भी सत्ता हासिल करना प्रमुख मिशन बन गया है इसलिये उसके दरवाजे सभी के लिए खोल दिए गए हैं। बीते दिनों महाराष्ट्र में देवेन्द्र फडऩवीस द्वारा एनसीपी के भ्रष्ट नेता कहे जाने वाले अजीत पवार के साथ आनन फानन में सरकार बनाने का जो प्रयोग किया गया उसके बाद ये पूरी तरह से स्पष्ट हो गया कि किसी भी तरह से सत्ता हासिल करने से भाजपा को परहेज नहीं रहा। लेकिन राजनीति नामक खेल के प्रचलित नियमों में अनुचित कुछ नहीं रहा इसलिए भाजपा को भी अपराधी होने से मुक्ति मिल जाती है। अब सवाल ये है कि क्या कांग्रेस से आये 11 विधायकों को मंत्री बना दिए जाने से पार्टी के भीतर असंतोष नहीं बढ़ेगा? यूँ भी सभी दलबदलुओं को टिकिट दिए जाने से पार्टी कार्यकर्ताओं में नाराजगी थी। महाराष्ट्र और हरियाणा में भी भाजपा ने अपने पुराने विधायकों और मंत्रियों की टिकिटें काटकर नए नवेले लोगों को उपकृत किया जिसका नुकसान भी उसे उठाना पड़ा। 2014 के बाद भाजपा ने अपना प्रभावक्षेत्र निश्चित रूप से राष्ट्रव्यापी बना लिया। यहाँ तक कि पूर्वोत्तर के लगभग सभी राज्यों में पार्टी की दमदार उपस्थिति महसूस की जाने लगी। त्रिपुरा से सीपीएम को उखाड़ फेंकने के साथ ही बंगाल में डेढ़ दर्जन से ज्यादा लोकसभा सीटें जीतना साधारण उपलब्धि नहीं कही जा सकती। बावजूद इसके ये कहना गलत नहीं होगा कि भाजपा का विकास भी हारमोन का इंजेक्शन लगाकर रातों-रात बढ़ाई गई लौकी जैसा ही है जो स्वादरहित होने के साथ शरीर को नुकसान भी पहुंचाती है। दरअसल 2014 में मिली ऐतिहासिक सफलता के बाद भाजपा के दिमाग आसमान पर चढ़े जिसके कारण वह अपने मूल आधार से कटने लगी। यही वजह है कि उसके परम्परागत गढ़ दिल्ली मप्र, राजस्थान, छत्तीसगढ़ एक - एक कर उसके हाथ से निकल गए और हाल ही में महाराष्ट्र में भी वह गच्चा खा गयी। गुजरात में उसे फीकी जीत मिली वहीं हरियाणा में भी उसे बहुमत नहीं मिलने पर गठबंधन करना पड़ा। कर्नाटक में उपचुनावों के नतीजों से भले ही महाराष्ट्र का गम कुछ कम हो गया हो लेकिन इसे सैद्धांतिक जीत मान लेना सच्चाई से आँखें चुराने जैसा ही होगा। यूँ भी येदियुरप्पा की छवि भ्रष्ट नेता की है जो जेल तक जा चुके हैं। अतीत में भाजपा ने उन्हें बाहर का रास्ता भी दिखा दिया था लेकिन जातिगत समीकरणों के कारण उन्हें मजबूरन वापिस लाकर मुख्यमंत्री पद का दावेदार बनाना पड़ा। हालाँकि उन्होंने अपनी राजनीतिक ताकत और उपयोगिता दोनों साबित कर दीं। कर्नाटक में कांग्रेस और जनता दल (एस) की सरकार को गिराना येदियुरप्पा के ही बस की बात थी लेकिन उसके लिए भाजपा को जो भी करना पड़ा उससे उसका वैचारिक पक्ष कमजोर हुआ है। इसके पहले पूर्वोत्तर के राज्यों सहित गोवा में भी वह ऐसा कर चुकी है। लेकिन सत्ता की इस अंधी दौड़ में वह कहने को तो बहुत कुछ हासिल कर रही है लेकिन जो उसे खोना पड़ रहा है उसका मूल्य सत्ता से कई गुना ज्यादा है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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