Thursday 12 December 2019

एक वायदा अच्छे दिन का भी तो था



तीन तलाक, अनुच्छेद 370, राम मंदिर और अब नागरिकता संशोधन विधेयक पारित होने के बाद मोदी सरकार के पास ये कहने का भरपूर अवसर है कि उसने भाजपा के घोषणापत्र के उन परंपरागत वायदों को पूरा कर दिया जिन्हें लेकर उसे विपक्ष और जनता दोनों से उलाहने सुनने मिलते थे। यद्यपि अयोध्या मसला सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निपटाया गया लेकिन वह चूंकि हिंदुओं के पक्ष में गया इसलिए उसका राजनीतिक फायदा भाजपा के खाते में आया और हिंदुत्व की भावना को भी इस फैसले से काफी बल मिला किन्तु शेष तीनों विषय मोदी सरकार की उपलब्धि माने जाएंगे। सबसे बड़ी बात ये हुई कि विपक्ष द्वारा राज्यसभा में सरकार की राह में अवरोधक लगाने की रणनीति बुरी तरह बिखर गई। हालांकि बीते कुछ वर्षों में उच्च सदन में भाजपा और एनडीए की सदस्य संख्या खासी बढ़ गई लेकिन पूर्ण बहुमत में अभी भी कमी है। बावजूद उसके भाजपा का संसदीय प्रबंधन अपेक्षाकृत बेहतर रहा और वह कांग्रेस सहित शेष भाजपा विरोधी दलों की एकता में सेंध लगाने में कामयाब हो गई। नागरिकता संशोधन विधेयक दरअसल राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर में उत्पन्न विसंगतियों के कारण लाना पड़ा। इसका पूर्वोत्तर राज्यों में जिस तरह का विरोध हो रहा है उसे देखते हुए केंद्र सरकार को आने वाले समय में विकट हालातों का सामना करना पड़ सकता है। ये दांव यदि उल्टा पड़ा तो पूर्वोत्तर में भाजपा के रथ के पहिये फंस भी सकते हैं । लेकिन देश के बाकी हिस्सों में पार्टी अपने प्रतिबद्ध मतदाताओं को बांधे रखने में जरूर सफल होगी । विपक्ष भी ये नहीं कह सकेगा कि भाजपा चुनाव जीतने के लिए भावनात्मक मुद्दे उठाती है । लेकिन तस्वीर का दूसरा पहलू ये है कि अब मोदी सरकार को इस आरोप से खुद को बचाना होगा कि वह आर्थिक मोर्चे पर मिल रही विफलता पर पर्दा डालने के लिए विवादग्रस्त विषयों को छेड़कर देश का ध्यान भटकाती रहती है। समाज के एक बड़े वर्ग के अनुसार संसद में नागरिकता संशोधन विधेयक को जिस तरह पेश किया गया उसकी उतनी जरूरत नहीं थी। सरकार उसकी प्रतिक्रिया स्वरूप होने वाले उपद्रवों का पूर्वानुमान लगाने में भी विफल रही । ये भी कहा जा रहा है कि कश्मीर में शान्ति का दावा कसौटी पर पूरी तरह खरा उतरने के पहले ही मोदी सरकार ने पूर्वोत्तर में अलगाववाद के नए बीज बो दिये । हालांकि सरकार जिस तरह से अपने फैसले पर कायम रही उससे ये लगता है कि इस विधेयक को लेकर भी उसके मन में कश्मीर जैसी ही कोई न कोई कार्ययोजना है जिसकी वजह से वह पूर्वोत्तर में भड़क उठी हिंसा को लेकर जरा भी चिंतित नहीं है । हो सकता है उसका आत्मविश्वास ठोस तैयारी की वजह से हो किन्तु अब समय आ गया है जब केंद्र सरकार को आर्थिक मोर्चे पर छाई निराशा को दूर करने की परिणाममूलक कोशिशें करनी चाहिए। आर्थिक मंदी कहें या सुस्ती लेकिन वास्तविकता यही है कि कारोबारी जगत में जबरदस्त अनिश्चितता है । घटते उत्पादन और बढ़ती बेरोजगारी के आंकड़े जनचर्चा के विषय बनते जा रहे हैं । विकास दर को लेकर पेश की गई रंगीन तस्वीर के रंग फीके पडऩे लगे हैं । भाजपा के भीतर ही अर्थव्यवस्था को लेकर असंतोष और आलोचना महसूस की जा सकती है । वित्तमंत्री द्वारा दी जाने वाली सफाई मजाक का विषय बनने लगी है । प्रधानमंत्री तो यूं भी ऐसे मुद्दों पर कुछ बोलने से कतराते हैं । भाजपा के प्रवक्ता भी संतोषजनक जवाब देने की बजाय या तो कन्नी काट जाते हैं या फिर तथ्यहीन बातें कहकर अपनी, पार्टी और सरकार तीनों की भद्द पिटवा देते हैं । भावनात्मक मुद्दों को व्यापक राष्ट्रीय हितों से जोड़ने  की उसकी रणनीति अब तक निश्चित रूप से कारगर रही किन्तु आर्थिक मोर्चे को लंबे समय तक अनदेखा नहीं किया जा सकता । मौजूदा वित्तीय वर्ष समाप्ति की ओर है । नए बजट का खाका तैयार होने लगा है। जीएसटी की वसूली उम्मीद से कम होने के साथ ही राजकोषीय घाटा भी अनुमानों के बाहर जाने को मचल रहा है । विपक्ष के साथ ही अनेक राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक विशेषज्ञ और रेटिंग एजेंसियां भारतीय अर्थव्यवस्था के भविष्य को लेकर चिंताजनक भविष्यवाणी करते रहती हैं । ये कहने में कुछ भी गलत नहीं होगा कि भले ही सरकार कुछ भी कहती रहे लेकिन आम जनता भी आर्थिक स्थिति को लेकर आश्वस्त नहीं है । नोटबन्दी और जीएसटी की वजह से आई कारोबारी सुस्ती दूर होने का नाम ही नहीं ले रही। समूचा व्यापार, उद्योग और बैंकिंग जगत एक अजीबोगऱीब दहशत से गुजर रहा है। सरकार इस स्थिति से बेखबर या उदासीन है ये कहना तो गलत होगा लेकिन उसने जो उपाय किये वे जरूरत के मुताबिक अपर्याप्त थे या फिर माकूल नहीं रहे। हाल ही में वित्तमंत्री ने आगामी बजट में निजी आयकर की दरें घटाने के संकेत दबी जुबान में दिए थे। कारपोरेट कर में कमी के बाद से ये मांग उठने लगी थी कि आम जनता को भी तो कुछ राहत सीधे तौर पर मिले जिससे उसकी क्रय शक्ति बढऩे से बाजारों में मांग उठे। ऐसा होगा या कुछ और निर्णय लिए जाएंगे ये स्पष्ट नहीं है क्योंकि मोदी सरकार पूर्वानुमान लगाने के अवसर नहीं देती । खैर जो भी हो लेकिन कुछ न कुछ तो होना ही चाहिए क्योंकि शांतिकाल में आम इंसान की चिंता घर, परिवार और रोजी रोटी पर केंद्रित रहती है। बाजारवाद के इस दौर में केवल भावनाएं लंबे समय तक जनापेक्षाओं को दबाकर नहीं रख सकतीं। मोदी सरकार इस वास्तविकता को जितनी जल्दी समझ ले उतना बेहतर होगा। प्रधानमंत्री को ये भी याद रखना चाहिए कि उन्होंने एक वायदा अच्छे दिन आने का भी किया था।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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