Friday 13 December 2019

काश, समय रहते इलाज कर लिया होता



समय पर इलाज नहीं होने से किस तरह छोटी सी फुंसी पहले फोड़ा और बाद में नासूर बन जाती है इसका ताजा उदहारण है पूर्वोत्तर की वर्तमान स्थिति। पहले राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर और अब नागरिकता संशोधन विधेयक के विरोध को लेकर देश के पूर्वी राज्यों में जिस बड़े पैमाने पर हिंसक आन्दोलन हो रहे हैं उन्हें तात्कालिक प्रतिक्रिया कहकर नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। आजादी के बाद से ही पूर्वोत्तर राज्यों में भाषा, संस्कृति और क्षेत्रीयता के नाम पर अलगाववाद के बीज बोये जाते रहे हैं। जनजातीय समुदायों के बाहुल्य वाले इस अंचल में सांस्कृतिक विविधता तो सदियों से ही थी लेकिन ब्रिटिश राज में वहां ईसाई मिशनरियों का जाल फैलता चला गया। स्वाधीन भारत में इस इलाके की संवेदनशीलता पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिए जाने की वजह से पूर्वोत्तर मुख्यधारा में शामिल होने से वंचित रह गया। म्यांमार (बर्मा) और बांग्ला देश (1971 से पहले पूर्वी पाकिस्तान) से घुसपैठिये लगातार सीमावर्ती राज्यों में आते गए। लेकिन सबसे ज्यादा प्रभावित हुआ असम। पूर्व राष्ट्रपति स्व. फखरुद्दीन अली अहमद जब असम की राजनीति में सक्रिय थे उस समय वहां काफी मुस्लिम घुसपैठिये आये जिन्हें सुनियोजित तरीके से नागरिकता दी जाती रही क्योंकि वे कांग्रेस के वोट बैंक माने जाते थे। सांस्कृतिक और भाषायी विविधता के साथ भौगोलिक संरचना की वजह से पूर्वोत्तर में नए-नए राज्य बनते गये। इसके पीछे भी अनेक कारण थे लेकिन दुर्भाग्यवश इन प्रदेशों में राष्ट्रीय राजनीति की मुख्यधारा की बजाय क्षेत्रीय दलों या ये कहें कि कबीला संस्कृति पर आधारित राजनीति का आधिपत्य बना रहा। ईसाई मिशनरियों के अलावा यहाँ चीन ने भी भारत विरोधी भावनाओँ को भड़काते हुए अशांति का माहौल बनाये रखा। पूर्वोत्तर के राज्यों की क्षेत्रीय पहिचान और सांस्कृतिक विशिष्टता बनाये रखने के लिए उन्हें जम्मू कश्मीर जैसे तरह-तरह के अनेक विशेषाधिकार भी दिए गए। इन राज्यों में अनेक सशस्त्र उग्रवादी संगठन भारत के विरुद्ध विद्रोह पर उतारू रहे जिसकी वजह से समूचा इलाका अशांत बना रहा। समय-समय पर अनेक समझौते भी केंद्र ने किये लेकिन ये कहने में कुछ भी गलत नहीं है कि जिस तरह से शेष भारत का तादात्म्य इस इलाके से नहीं कायम हो सका ठीक वैसी ही स्थिति इन राज्यों के लोगों की भी रही। प्राकृतिक सौन्दर्य और अपार वन संपदा से से भरपूर पूर्वोत्तर के अरुणाचल राज्य को तो चीन अपने नक्शे में दिखाने से भी बाज नहीं आता। लम्बे समय तक अशांत रहने के बावजूद पूर्वोत्तर राज्यों में भारतीय प्रभुसत्ता बनी रही तो उसका कारण हमारे सुरक्षा बल ही हैं। जहां तक बात वर्तमान समस्या की है तो इसकी शुरुवात 1971 में बांग्ला देश बनने के पहले तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान में हुए गृह युद्ध से उत्पन्न हुई जब बहुत बड़ी संख्या में शरणार्थी बनकर लाखों लोग सीमा पार करते हुए सीमावर्ती राज्यों में आ गए। सबसे ज्यादा प्रभावित हुआ असम। बांग्ला देश के निर्माण के बाद इंदिरा गांधी और शेख मुजीब के बीच समझौता हुआ जिसके अनुसार भारत में घुस आये शरणार्थियों को वापिस भेजा जाना तय हुआ। लेकिन मुजीब के तख्ता पलट के बाद वहां सत्ता में आये लोगों के भारत के साथ रिश्ते बिगड़ गए और शरणार्थी भारत में ही रह गये। हालाँकि उस समय उन्हें देश के विभिन्न हिस्सों में शिविर बनाकर रखा गया था किन्तु असम और बंगाल में वे बड़ी संख्या में जमे रहे और यहीं से असम का ऐतिहासिक छात्र आंदोलन शुरू हुआ। लंबे संघर्ष के बाद स्व. राजीव गांधी ने आन्दोलनकारियों के साथ नया समझौता करते हुए असम को शरणार्थियों के बोझ से मुक्ति देने का वायदा किया। उसके बाद वहां असम गण परिषद की सरकार बनी लेकिन बाद में डेढ़ दशक तक कांग्रेस सत्ता में रही। डा मनमोहन सिंह भी इसी राज्य से राज्यसभा के लिए चुने जाते रहे हैं लेकिन उस समझौते को अमल में लाने की दिशा में कोई ठोस प्रयास नहीं किये गए। और यदि किये भी गये होंगे तो उनका कोई असर जमीन पर तो नहीं दिखाई दिया। इस कारण से वहां जनसंख्या असंतुलन की स्थिति उत्पन्न होती गयी। अपनी राजनीतिक रोटी सेंकने के फेर में कांग्रेस और वामपंथियों ने बांग्ला देश से आये मुसलमानों को अपना वोटबैंक बना लिया। आज ममता बनर्जी भी उसी लाइन पर चल रही हैं। इस समस्या को लेकर सर्वोच्च न्यायालय के दखल पर नागरिकता रजिस्टर बनाया गया लेकिन उसके झमेले में फंसने के बाद केंद्र सरकार नया विधेयक लेकर आई जो अब कानून बन गया है। हालाँकि इसके अनुसार 2014 की निश्चित तिथि तक आये गैर मुस्लिम शरणार्थियों को नागरिकता देने का प्रावधान है लेकिन पूर्वोत्तर में ये आशंका व्याप्त है कि इस कानून के कारण अब नये सिरे से शरणार्थियों का रेला आना शुरू हो जाएगा। असम के अलावा अन्य राज्यों को अपनी भाषा और संस्कृति खतरे में पड़ती दिखाई दे रही है। विधेयक पारित होने के पहले ही बड़ा इलाका आन्दोलन की चपेट में आ चुका था। हलात बेहद तनावपूर्ण हैं। उनमें सुधार कैसे होगा ये कह पाना बेहद कठिन है। केंद्र सरकार आश्वासन दे रही है। प्रधानमंत्री गृहमंत्री भी ये समझा रहे हैं कि डरने की बात नहीं है। आगे क्या होगा ये कोई नहीं बता पा रहा। विपक्ष ने केंद्र सरकार को इसके लिए जिम्मेदार बताकर अपना पल्ला झाड़ लिया है। हिंसा का ये दौर लम्बा चलेगा या फिर जल्द ही शांति हो जायेगी ये फिलहाल कहना कठिन है। लेकिन इस विवाद से एक बात पुन: साबित हो गयी कि इस तरह की समस्याओं का हल जितनी जल्दी हो किया जाना चाहिए। पूर्वोत्तर में मोदी सरकार ने विकास की धारा बहाने के लिए कारगर कदम उठाये हैं। वहां का पर्यटन भी बढ़ा है लेकिन अचानक वहां अशांति का पुराना माहौल लौट आया। उम्मीद है जल्द ही हालात सामान्य होंगे और भ्रम तथा आशंकाएं दूर हो जायेंगीं किन्तु पूर्वोत्तर में अलगाववाद और घुसपैठ की समस्या का समय रहते समाधान न किये जाने की कितनी बड़ी कीमत देश ने चुकाई ये गम्भीर चिन्तन का विषय है। राष्ट्रीय विषयों पर राजनीति से उपर उठकर सोचने की प्रवृत्ति न जाने कब हमारे यहाँ विकसित होगी?

-रवीन्द्र वाजपेयी


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