Friday 6 December 2019

लगे हाथ पूर्व सांसदों की मुफ्तखोरी भी रोकी जाए



हालाँकि इतने बड़े देश की अर्थव्यवस्था में 17 करोड़ बहुत बड़ी रकम नहीं है लेकिन कुछ बातें ऐसी हैं जिनका सांकेतिक महत्व होता है। उस दृष्टि से संसद की कैंटीन में मिलने वाले भोजन पर दी जाने वाली रियायत खत्म करने का निर्णय आम जनता के मन को संतोष देने वाला है। संसद भवन की कैंटीन में केवल वर्तमान एवं पूर्व सांसद ही नहीं उनके साथ आये लोगों के अलावा संसद भवन में कार्यरत कर्मचारी भी भोजन, नाश्ता आदि ग्रहण करते हैं। वहां खाने की चीजें इतनी सस्ती हैं कि दातों तले उंगली दबाने मजबूर हो जाना पड़ता है। पहले तो इस तरफ  किसी का ध्यान नहीं गया लेकिन बीते कुछ सालों जब भी खाने-पीने की चीजें महंगी होतीं तब-तब संसद की कैंटीन का सस्ता भोजन आलोचना और ईष्र्या का विषय बन जाता। 2014 में मोदी सरकार आने के बाद कीमतें थोड़ी बढ़ाई गईं लेकिन उसके बाद भी इस कैंटीन में खाना बाजार के सस्ते से सस्ते रेस्टारेंट की अपेक्षा बेहद मामूली दाम पर उपलब्ध था। धीरे-धीरे सांसदों को भी जनता के मन में व्याप्त नाराजगी का एहसास हुआ और फिर एक समिति बनाकर इस रियायत को खत्म करने का विचार शुरू हुआ जो गत दिवस जाकर अंजाम पर पहुँच सका। 2 रूपये की चपाती और 5 रूपये की दाल आज के दौर में कल्पनातीत है लेकिन संसद की कैंटीन में इसी कीमत पर इनकी उपलब्धता निश्चित रूप से जनता को खलने वाली थी। चिकन करी और मटन करी जैसे मांसाहारी व्यंजन क्रमश: 50 और 45 रुपये में मिलना भी सपने देखने जैसा है। मात्र 5 रु. में बढिय़ा चाय और कॉफी भला दिल्ली की फुटपाथों पर खड़े ठेले पर भी नहीं मिलेगी। स्मरणीय है प्रधानमंत्री बनने के बाद एक बार नरेंद्र मोदी भी इस कैंटीन में खाना खाने जा पहुंचे थे और उन्होंने उसका बाकायदा भुगतान भी किया। शाकाहारी भोजन का उनका देयक मात्र 50-60 रु. ही बना। हो सकता है वे इस कैंटीन की सस्ती दरों को लेकर होने वाली आलोचना के मद्देनजर ही मुआयना करने गए हों। सच्चाई जो भी हो, बहरहाल गत दिवस तदाशय की खबरें आ गईं जिनके अनुसार संसद भवन की कैंटीन में मिलने वाला सस्ता भोजन अब सामान्य दरों पर ही उपलब्ध होगा। रेलवे द्वारा इस कैंटीन को होने वाले घाटे की आपूर्ति सरकार करती रही। हालाँकि जैसा कि पूर्व में कहा गया कि केवल सांसद ही नहीं बल्कि संसद भवन में कार्यरत कर्मचारी, अधिमान्य पत्रकार, संसद की कार्रवाई देखने आने वाले पासधारी भी इस कैंटीन के सस्ते भोजन का लाभ उठाते थे परन्तु आलोचना का केंद्र केवल सांसद ही बनते रहे। यद्यपि 1 जनवरी 2016 से इस कैंटीन में लागत खर्च पर भोजन सामग्री बेची जाने की व्यवस्था की गयी थी किन्तु उसके बाद भी जो दरें निर्धारित की गईं वे बहुत ही कम थीं। इस मामले का सबसे महत्वपूर्ण पहलू है हमारे देश में चली आ रही वीआईपी संस्कृति। वाहनों पर बत्तियां लगाना बंद होने के बाद मोदी सरकार ने दिल्ली में सरकारी बंगला घेरे बैठे नेताओं पर भी शिकंजा कसा। सांसद नहीं रहने पर भी सरकारी फ्लैट या बंगला कब्जाए रहने की सुविधा छीन लिए जाने से सरकार का करोड़ों रु. बच गया। वरना नए सांसदों को आवास खाली नहीं होने के कारण पांच सितारा होटलों में ठहराया जाता था। हाल ही में गांधी परिवार की एसपीजी सुरक्षा खत्म किये जाने पर हुए विवाद में भी ये बात चर्चा में आई कि आखिर कब तक किसी व्यक्ति या परिवार को प्रधानमन्त्री स्तर की सुरक्षा दी जाए, जिस पर लाखों रु. रोज का खर्चा होता है। भारत में लोकतंत्र है जिसे जनता के द्वारा, जनता का और जनता के लिए शासन कहा जाता है। लेकिन बीते सात दशक के दौरान लोक और तन्त्र के बीच का अंतर लगातार बढ़ाया जाता रहा। ये अच्छी बात है कि जनप्रतिनिधियों को मिल रही सुविधाएँ अब जनचर्चा का विषय बनने लगी हैं। संसद की कैंटीन में मिलने वाले सस्ते भोजन पर मात्र 17 करोड़ की सब्सिडी से देश गरीब नहीं हो रहा था लेकिन इसके कारण आम जनता के मन में ये भाव जरुर पैदा होता था कि लोकशाही के इस दौर में भी राजा और प्रजा के बीच अंतर है। इसी तरह सांसदों के वेतन और भत्तों में चाहे जब की जाने वाली वृद्धि भी जनाक्रोश का बड़ा कारण बनती रही है। इसे लेकर भी मोदी सरकार ने व्यवस्था की है। अपने वेतन-भत्ते बढ़ाने में सांसदों द्वारा की जाने वाली मनमानी रोकने के लिए आयोग की व्यवस्था भी चर्चा में है। लुटियंस की बनाई दिल्ली के पुराने बंगले तोड़कर बहुमंजिला इमारतों में फ्लैट बनाकर सांसदों को उनमें रखने की शुरुवात भी हो चुकी है जिससे उनकी सुरक्षा और सुविधाओं पर होने वाला खर्च तो घटा ही, साथ ही बेशकीमती सरकारी जमीन भी खाली हो गई। मोदी सरकार ने सांसदों और मंत्रियों की सुख-सुविधाओं को घटाने लिए अनेक कदम उठाये हैं लेकिन पूर्व सांसदों को मिलने वाली पेंशन, मुफ्त रेल यात्रा पास और इलाज की जो सुविधा है उस पर भी विचार होना चाहिए। लम्बी समयावधि तक सांसद रहे व्यक्ति के पास यदि कमाई का कोई साधन न हो और उसने केवल जनसेवा में ही खुद को समर्पित कर रखा हो तब तो उसके शेष जीवन के लिए सरकार को सोचना चाहिए लेकिन जिनके पास आय के पर्याप्त साधन हों और जो सियासत के साथ ही किसी व्यवसाय से जुड़े हुए हों उनको जीवन भर दी जाने वाली मुफ्त सुविधाएँ सरासर गलत हैं। एक दिन भी सांसद रह जाने वाला उम्र भर सरकारी दामाद बनकर रहे ये लोकतंत्र का मजाक नहीं तो और क्या है ? संसद की कैंटीन में सस्ता भोजन बंद होने के बाद पूर्व सांसदों की मुफ़्तखोरी पर भी रोक लगाना जनापेक्षा है। उनकी देखासीखी पूर्व विधायकों के लिये भी जनता के कर की मोटी रकम मुफ्त लुटाई जाने लगी।

-रवीन्द्र वाजपेयी

No comments:

Post a Comment