Wednesday 25 December 2019

क्या ममता राज्यपाल से मंत्रियों को शपथ नहीं दिलवायेंगी



भारत एक संघीय गणराज्य है। इसके अंतर्गत देश का शासन केंद्र और प्रदेश का राज्य की चुनी हुई सरकार चलाती है। संविधान में दोनों के क्षेत्राधिकार का स्पष्ट वर्णन है। किस सरकार को किस विषय पर निर्णय लेने का अधिकार है वह भी सूची के रूप में पूरी तरह साफ है। इसके अलावा समवर्ती सूची भी है जिसमें उल्लिखित विषयों पर दोनों सरकारें कानून बना सकती हैं। संघीय सरकार के प्रतिनिधि के तौर पर राज्यपाल हर राज्य में नियुक्त किये जाते हैं जिनका दायित्व संविधान के दायरे में राज्य के शासन का संचालन करवाना है। हालाँकि इस पद को लेकर काफी विवाद रहा है। विशेष रूप से राष्ट्रपति शासन लगाने संबंधी सिफारिश पर राज्यपालों की भूमिका कठघरे में खड़ी की जाती रही है। उन्हें केंद्र का एजेंट कहने वाले भी कम नहीं है। चुनाव बाद जब किसी को बहुमत नहीं मिलता तब राज्यपाल की भूमिका बेहद निर्णायक हो जाती है। कर्नाटक, गोवा और हाल ही में महाराष्ट्र में राज्यपाल द्वारा अल्पमत सरकार को शपथ दिलवाने पर काफी उंगलियाँ उठी। अनेक क्षेत्रीय दलों द्वारा इस पद को ब्रिटिश राज का अवशेष मानकर खत्म कर देने की मांग भी की जाती रही। एक समय था जब इस पद पर अत्यंत योग्य व्यक्तियों की नियुक्ति की जाती थी किन्तु कालान्तर में महामहिम कहलाने वाले राज्यपालों के रूप में बुजुर्ग, बीमार और राजनीति से अनिवार्य सेवानिवृत्त किये जाने वाले नेताओं को पदस्थ किया जाने लगा। पूर्व नौकरशाहों, सैन्य अधिकारियों और पूर्व न्यायाधीशों को उपकृत करने के लिए भी राज्यपाल बना दिया जाता है। इस पद पर बैठे लोगों से अपेक्षा की जाती है कि वे दलगत राजनीति से उपर उठकर संवैधानिक प्रमुख की अपनी भूमिका का निष्पक्ष होकर निर्वहन करें। लेकिन ये कहने में कुछ भी गलत नहीं है कि अनेक राज्यपाल इस कसौटी पर खरे नहीं उतरते। इसीलिये उन्हें रबर स्टैम्प भी कहा जाता है। ऐसी ही धारणा राष्ट्रपति को लेकर भी है। पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद और उनके उत्तराधिकारी रहे डॉ. राधाकृष्णन के बाद डॉ. अब्दुल कलाम ही ऐसे रहे जो पूरी तरह से निर्विवाद रहने से सम्मान के पात्र बने। वैसे तो डॉ. जाकिर हुसैन, आर. वेंकटरमण और के.आर. नारायणन भी उच्च प्रतिभा संपन्न थे किन्तु वे भी सरकार की गलत बात पर उंगली उठाने का साहस नहीं कर सके। लेकिन इससे अलग हटकर एक दूसरा पहलू भी है जो संवैधानिक प्रमुख के सम्मान से जुड़ा हुआ है। चूंकि राष्ट्रपति या राज्यपाल पद पर आसीन अधिकतर व्यक्ति राजनीतिक पृष्ठभूमि से ही आते हैं इसलिए वैचारिक प्रतिबद्धता उनकी निष्पक्षता पर हावी हो जाती है। राष्ट्रपति बनने के पहले स्व. ज्ञानी जैल सिंह का एक बयान बड़ा ही चर्चित हुआ था जिसमें उन्होंने तत्कालीन प्रधानमन्त्री इंदिरा जी के कहने पर झाड़ू तक लगाने जैसी बात कही थी। इंदिरा जी की हत्या के बाद जब राजीव गांधी को शपथ दिलवाने की बात आई तब ज्ञानी जी ने बिना संसदीय दल का नेता चुने ही स्व. गांधी को प्रधानमन्त्री की शपथ दिलवा दी। ऐसे दर्जनों उदाहरण हैं जब राष्ट्रपति और राज्यपाल ने सरकार के गलत निर्णयों को भी आंख मूंदकर मंजूर किया। लेकिन हमारे देश में राजनीति और राजनेताओं का स्तर भी चूंकि गिरता चल गया इसलिए सर्वोच्च संवैधानिक पदों पर विराजमान होने वाले महानुभावों के आचरण में भी उसी अनुपात में गिरावट आती गई। ऐसे में जो राजनेता राष्ट्रपति अथवा राज्यपाल की आलोचना करते हैं उन्हें अपने गिरेबान में भी झांकना चाहिए। ताजा संदर्भ राष्ट्रपति और राज्यपाल के अपमान की कुछ घटनाएँ हैं जो संविधान और संघीय ढाँचे के लिहाज से चिंताजनक हैं। पुडुचेरी (पांडिचेरी) विवि में एक छात्रा ने राष्ट्रपति के हाथ से अपनी उपाधि और स्वर्णपदक लेने से मना कर दिया क्योंकि उन्होंने नागरिकता संशोधन विधेयक पर हस्ताक्षर कर उसे कानून बनवा दिया। दूसरा घटनाक्रम बंगाल का है जहां मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी और राज्यपाल जगदीप धनगड़ के बीच चल रहा शीतयुद्ध अब बेहूदगी तक आ पहुंचा है। हाल ही में राज्यपाल को विधानसभा भवन के भीतर  जाने तक से रोक दिया गया था। गत दिवस उन्हें जादवपुर विवि के दीक्षांत समारोह में जाने से रोका गया। छात्रों के साथ ही तृणमूल कर्मचारी संघ के लोगों ने महामहिम को विवि में जाने नहीं दिया जिसके बाद उनकी अनुपस्थिति में ही दीक्षांत समारोह संपन्न हुआ। राज्यपाल ने कुलपति की भूमिका पर भी सवाल उठाये जो छात्रों और कर्मचारियों को रोकने का प्रयास करने की बजाय दूर खड़े चुपचाप देखते रहे। उल्लेखनीय है सुश्री बैनर्जी और राज्यपाल के बीच जिस तरह की बयानबाजी चल रही है वह संघीय ढांचे के लिए चिंता का विषय है। राजनीतिक मतभेद अपनी जगह हो सकते हैं। संवैधानिक प्रमुख से असहमति रखने का भी अधिकार मुख्यमंत्री और प्रधानमन्त्री को है लेकिन उनके अपमान की कोशिश को प्रोत्साहन देना गलत परिपाटी है। 1996 में तत्कालीन राष्ट्रपति स्व. डॉ. शंकरदयाल शर्मा द्वारा स्व. अटलबिहारी वाजपेयी को सरकार बनाने हेतु निमन्त्रण दिए जाने पर रामविलास पासवान उनसे नाराज हो गए। 13 दिन बाद उस सरकार के पतन के बाद जब एचडी देवगौड़ा के नेतृत्व में दूसरी सरकार बनी और श्री पासवान ने उसमें मंत्री के तौर पर शपथ ली तब अपनी नाराजगी का प्रगटीकरण करते हुए उन्होंने राष्ट्रपति का अभिवादन करने की सौजन्यता तक नहीं दिखाई। जिसे लेकर वे आलोचना का पात्र भी बने। वैसे राष्ट्रपति और राज्यपाल की आलोचना असामान्य या आपत्तिजनक नहीं है लेकिन उनका अपमान एक तरह से संविधान का अनादर ही कहा जाएगा। संसद में पीठासीन अधिकारी के निर्णयों से विपक्ष रजामंद नहीं होता। शोर शराबा और बहिर्गमन भी आम बात है। लेकिन उनका बहिष्कार नहीं किया जा सकता। राष्ट्रपति के हाथ से उपाधि नहीं लेने वाली छात्रा कल को यदि प्रशासनिक या पुलिस अधिकारी बन जाए तब क्या वह उनके प्रति सम्मान व्यक्त करने से भी मना कर सकेगी? जादवपुर विवि तो यूँ भी दिल्ली के जेएनयू का दूसरा संस्करण कहा जाता है जहां के छात्र वामपंथी अराजकता के जरिये आतंक मचाये रखते हैं। राज्यपाल विवि के कुलाधिपति होते हैं और दीक्षांत समारोह सबसे महत्वपूर्ण आयोजन। उसमें राज्यपाल के आगमन को रोकने वाले छात्रों पर पुलिस ने क्या कार्रवाई की ये बड़ा सवाल है। ममता बैनर्जी के राजभवन से मतभेद अपनी जगह हैं लेकिन जहां संवैधानिक गरिमा की रक्षा का मामला हो वहां निजी या सियासी मनमुटाव अर्थहीन और अप्रासंगिक होकर रह जाता है। सुश्री बैनर्जी को इस बात का भी जवाब देना चाहिए कि अपने मंत्रीमंडल का विस्तार करते समय वे नए मंत्रियों को शपथ दिलवाने हेतु क्या राज्यपाल से अनुरोध नहीं करेंगीं। वैसे भी हमारे देश में सरकार का प्रमुख राष्ट्रपति अथवा राज्यपाल ही होता है। देश का वर्तमान राजनीतिक वातावरण जिस तरह से प्रतिशोध से परिपूर्ण हो चला है और उसके फलस्वरूप सौजन्यता और संवाद निरंतर घटते जा रहे हैं उसे देखते हुए संघीय ढांचे के लिए बड़ा खतरा उत्पन्न हो गया है। देश में राजनीतिक विभिन्नता होने से राज्य और केंद्र में परस्पर विरोधी विचारधाराओं की सत्ता है। ऐसे में जरूरी है सभी दल और उनके नेतागण संवैधानिक मर्यादाओं का पालन करें। राज्यों की स्वायतत्ता का अर्थ स्वेच्छाचारिता अथवा स्वच्छन्दता कतई नहीं हो सकता।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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