Tuesday 17 December 2019

जामिया मिलिया : छात्रों के कन्धों का इस्तेमाल



महात्मा गांधी ने स्वाधीनता संग्राम के दौरान अनेक बार अपने आन्दोलन को हिंसा होने पर स्थगित कर दिया था। गत दिवस सर्वोच्च न्यायालय ने भी दिल्ली के जामिया मिलिया इस्लामिया विवि में पुलिस द्वारा की गई कार्रवाई के विरुद्ध प्रस्तुत याचिका को सुनने से इंकार करते हुए साफ कह दिया कि पहले हिंसा रोको। उल्लेखनीय है नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में उक्त संस्थान में छात्रों द्वारा किये जा रहे आन्दोलन के दौरान हिंसा होने लगी। सार्वजानिक संपत्ति की तोडफ़ोड़ के साथ वाहन भी जलाये गये। दिल्ली पुलिस ने परिसर में घुसकर उपद्रवी तत्वों पर कार्रवाई की जिससे छात्र और भड़क गए। कांग्रेस सहित विपक्षी पार्टियां छात्रों के समर्थन में कूद पड़ीं। प्रियंका गांधी तो इंडिया गेट पर धरने पर बैठ गईं। याचिका पर विचार करने के लिए दी गईं दलीलों पर प्रधान न्यायाधीश ने गुस्सा व्यक्त करते हुए कहा कि सार्वजानिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने और बसों को जलाए जाने जैसी घटनाएं रोके बिना न्यायालय सुनवाई नहीं करेगा। यद्यपि अदालत ने ये भी कहा कि वह ये फैसला नहीं कर रही कि कौन सही और कौन गलत है। जामिया मिलिया दिल्ली का सुप्रसिद्ध शिक्षण संस्थान है। इस केन्द्रीय विवि को गुणवत्ता के आधार पर काफी बेहतर श्रेणी प्राप्त है। इसकी स्थापना यूं तो अलीगढ़ में हुई किन्तु कालान्तर में इसे दिल्ली स्थानांतरित कर दिया गया। हालांकि इसका मुस्लिम स्वरूप बरकरार रखा गया। पूर्व राष्ट्रपति स्व. डा. जाकिर हुसैन भी इसके उपकुलपति रहे थे। दिल्ली स्थित जेएनयू की तरह यह संस्थान उतना विवादास्पद नहीं रहा किन्तु बीते कुछ सालों से यहां भी वामपंथी तेवर नजर आने लगे हैं जिसकी बानगी ताजा उपद्रवों से मिली। कुलपति ने ये आरोप लगा दिया कि पुलिस ने बिना अनुमति परिसर में प्रवेश किया और छात्रों की पिटाई कर डाली। इसके बाद अलीगढ़ मुस्लिम विवि में भी विरोध प्रदर्शन शुरू हो गया और देखते-देखते देश के कई शहरों में छात्र जामिया मिलिया के छात्रों के समर्थन में आन्दोलनरत हो उठे। प्रश्न ये है कि उक्त विवि के छात्रों को नागरिकता संशोधन कानून से ऐसी क्या परेशानी हो गयी कि वे हिंसक आन्दोलन पर उतर आये। ये बात सही है कि दिल्ली पुलिस ने परिसर में घुसकर तोडफ़ोड़ और आगजनी करने वाले छात्रों पर बलप्रयोग किया किन्तु किसी कानून का विरोध करते हुए इस तरह की गतिविधि में शामिल लोग महज ये कहकर सहानुभूति के पात्र नहीं बन सकते कि वे छात्र हैं। पुलिस पर पत्थर फेंकते हुए छात्रों की भीड़ के चित्र सार्वजानिक हो चुके हैं। विवि परिसर में इतने पत्थर किसके द्वारा और क्यों लाये गए इस बात का उत्तर भी कुलपति को देना चाहिए। समूची घटना से ये तो पता चलता ही है कि छात्रों की आड़ में असामाजिक तत्वों ने अपना खेल दिखा दिया। आज हुई गिरफ्तारियां इसका प्रमाण हैं। जिस तरह से अलीगढ़ मुस्लिम विवि में इसकी त्वरित प्रतिक्रिया हुई वह भी सवाल खड़े कर रही है। टीवी पर अनेक छात्रों ने ये स्वीकार किया कि कतिपय वामपंथी संगठन विवि की परीक्षा टलवाना चाहते थे और उसी उद्देश्य से नागरिकता संशोधन कानून के नाम पर ये हिंसा करवाई गई। सच्चाई जो भी हो लेकिन इतना तो सच है कि विवि परिसर में इस कानून के विरोध का कोई अर्थ नहीं था। वहां पढऩे वाले वाले छात्र इससे तनिक भी प्रभावित नहीं हो रहे हैं। न तो उनकी नागरिकता खतरे में है और न ही उन्हें कोई देश से निकाल रहा है। ऐसे में आन्दोलन इतना हिंसक कैसे हुआ ये गम्भीरता से सोचने वाली बात है। और फिर कांग्रेस ने जिस तत्परता से हिंसक आन्दोलन की निंदा करने की बजाय उलटे पुलिस पर आरोप लगाना शुरू कर दिया उससे ये संदेह और भी गहराता है कि छात्रों की हिंसा के पीछे राजनीतिक षडयंत्र काम कर रहा था। जामिया मिलिया के छात्र विवि परिसर के बाहर आकर जब बस को जलाने लगे तब पुलिस ने उन्हें रोककर परिसर में लौटाने की कोशिश की और उसके बाद उपद्रव होने पर फिर पिटाई हुई। इस घटना का सबसे चिंताजनक पहलू ये है कि इस्लामिया नाम जुड़ा होने के बावजूद जामिया मिलिया में अलीगढ़ मुस्लिम विवि जैसी कट्टरता और जेएनयू की तरह वामपंथी धारा नहीं थी। लेकिन ताजा आन्दोलन के बाद अब ये मान लेने में कुछ भी गलत नहीं होगा कि एक अच्छे भले शैक्षणिक संस्थान का माहौल खराब कर दिया गया। नागरिकता संशोधन कानून को लेकर जिस तरह का विरोध हो रहा है उसके पीछे अधिकतर वही लोग हैं जिन पर इस कानून का रत्ती भर भी असर नहीं होने वाला। कानून को मुस्लिम विरोधी बताने वालों के पास इस बात का कोई जवाब नहीं है कि देश का आम मुसलमान इसे लेकर सड़कों पर क्यों नहीं उतरा? चंद नेता ही इसे लेकर भड़काने वाली गतिविधियों को हवा दे रहे हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने हिंसा रोके बिना याचिका की सुनवाई नहीं करने की जो बात कही वह पूरी तरह सही है क्योंकि दबाव की इस राजनीति का अंत समय की मांग और जरूरत दोनों हैं। यूं भी हिंसा से किसी आन्दोलन का औचित्य खतरे में पड़ जाता है। असम में उक्त कानून का सबसे ज्यादा विरोध शुरू हुआ लेकिन उसके हिंसक होते ही आन्दोलन का नेतृत्व कर रहे प्रमुख संगठन ने उसे वापिस लेते हुए सर्वोच्च न्यायालय जाने का निर्णय लिया। देश के जिन हिस्सों में कानून के विरोध में प्रदर्शन आदि हो रहे हैं उनमें मुस्लिमों की संख्या कितनी है ये देखने वाली बात है। बेकार में धजी का सांप बनाकर चंद राजनीतिक नेताओं ने जो गलती की उसका लाभ उठाकर देश विरोधी ताकतें अपने षडय़ंत्र में कामयाब हो गईं। विदेशी नागरिकों पर केंद्रित कानून को मुस्लिम विरोधी बताकर उसका विरोध करने वाले ये भूल गए कि ऐसा करते हुए एक बार फिर वे हिन्दू धु्रवीकरण की परिस्थितियां बनाने में सहायक बन गए हैं। राजनीति अपनी जगह है किन्तु पढ़ाई-लिखाई कर रहे छात्रों के कंधों पर रखकर बन्दूक चलाने वालों को ये सोचना चाहिए कि अराजकता फैलाने वाले भी अंतत: उसी की चपेट में आ जाते हैं।

- रवीन्द्र वाजपेयी

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