कल सुबह से देर रात तक खबरों में छाया रहा विकास दुबे आज सुबह से फिर खबर बना हुआ है। लेकिन बीते 24 घंटों में फर्क ये पड़ा कि कल वह जीवित था लेकिन आज मृतकों की सूची में शामिल हो गया। उज्जैन के महाकाल मन्दिर प्रांगण में उसकी नाटकीय गिरफ्तारी या प्रायोजित सरेंडर की दास्तान अभी बेनकाब हुई ही नहीं थी कि सुबह-सुबह खबर आ गई कि सड़क मार्ग से उसे ले जाते समय कानपुर के समीप पुलिस वाहन पलट गया। उसके बाद विकास दुबे ने पुलिस वाले की पिस्तौल छीनकर भागने की कोशिश की और उस दौरान उसका काम तमाम कर दिया गया, जिसे पुलिसिया भाषा में एनकाऊंटर कहा जाता है। इस तरह बीते 24 घंटे से चले आ रहे नाटकीय घटनाक्रम का फिल्मी अंत हो गया। कल दिन भर जो उप्र पुलिस अपनी नाकामी के लिए दोषारोपित होती रही आज वह दूसरे कारणों से कठघरे में है। विकास कौन था और उसका अपराध क्या था ये बताने की जरूरत नहीं रही। समाचार माध्यमों ने उसकी पूरी कर्मपत्री पहले ही खोलकर रख दी थी। इसलिए उसके मरने का शायद ही किसी को अफसोस हो। उलटे जिन 8 पुलिस वालों की उसने हत्या की थी उनमें से कुछ के परिवारजन तो टीवी चैनल पर उप्र पुलिस और योगी सरकार को धन्यवाद देते दिखाई दिए। समाज का बड़ा वर्ग ऐसा है जो देश की लचर न्याय प्रणाली के मद्देनजर अपराधियों के इस तरह से खात्मे की तरफदारी करता है। स्मरणीय है गत 6 दिसम्बर 2019 को हैदराबाद में एक महिला पशु चिकित्सक के साथ दरिंदगी करने वाले चार बलात्कारियों को भी सुबह-सुबह मौका ए वारदात पर ले जाकर घटनाक्रम की जांच के दौरान उन सभी को पुलिस से हथियार छीनकर भागने के बाद एनकाऊंटर कर दिया गया था। ज्योंही उसकी खबर फैली पूरे देश से हैदराबाद पुलिस को बधाइयां दी गईं। यद्यपि एक वर्ग ऐसा भी था जिसने पुलिस कार्रवाई को साजिश बताते हुए घटना की सत्यता पर संदेह जताया। ऐसे लोगों का कहना था कि पुलिस को यदि इस तरह की स्वछंदता दे दी गई तब वह न्यायपालिका के कार्यक्षेत्र में अतिक्रमण करने लगेगी। हालांकि ये बात भी पूरी तरह सच है कि किसी भी अपराधी को उसके किये की सजा मिलने में इतना लंबा समय लगता है कि अपराध करने वाले बेख़ौफ़ हो जाते हैं। सख्त सजा देने वाले न्ययाधीश भी निष्पक्षता दिखाने के लिए अपराधी को बचाव के इतने अवसर देते हैं कि आम जनता को गुस्सा आने लगता है। आतंकवादी याकूब मेमन और निर्भया काण्ड के बलात्कारी दरिंदों की फांसी टलवाने के लिए जिस तरह देर रात देश का सर्वोच्च न्यायालय खोलकर सुनवाई की गयी उससे भले ही न्यायपालिका ने न्यायशास्त्र के इस सिद्धांत का पालन किया हो कि चाहे सौ अपराधी छूट जाएं किन्तु किसी बेगुनाह को सजा नहीं मिलनी चाहिए। लेकिन उसी न्यायशास्त्र से ही ये बात भी निकलकर आई कि न्याय में विलम्ब उससे इंकार करना है। उस लिहाज से विकास दुबे की मौत समाज के बड़े वर्ग को जहां राहत पहुंचा रही है वहीं ये कहने वाले भी बड़ी संख्या में है कि एनकाऊंटर के नाम पर पुलिस अपने ही पापों पर पर्दा डाल देती है। ये स्थिति दरअसल समाज में व्याप्त उस स्थिति को स्पष्ट करती है जिसमें एक अपराधी को पहले तो संरक्षण देते हुए महिमामंडित किया जाता है लेकिन ज्योंही वह शासन और प्रशासन के लिए बोझ बनता है, उसे रास्ते से हटा दिया जाता है। 2001 में पुलिस थाने के भीतर घुसकर उप्र सरकार में मंत्री का दर्जा प्राप्त नेता की हत्या करने के बाद विकास दुबे महज इसलिए बरी हो गया क्योंकि उस हत्या के प्रत्यक्षदर्शी पुलिस वालों ने अदालत में कुछ न देखने जैसे बयान दे डाले। मौजूदा प्रकरण में भी विकास को 8 पुलिस वालों की हत्या करते किसी ने नहीं देखा था। घटना के समय गाँव की बिजली बंद कर दी गई थी। उसको पकड़ने पुलिस टीम के जाने की पूर्व सूचना उसे थाने से ही मिल चुकी थी। मारे गए पुलिस वालों के शवों को पेट्रोल से जलाकार खाक करने की भी उसकी तैयारी थी। सवाल ये है कि 2001 में भाजपा के मंत्री पद का दर्जा प्राप्त नेता को थाने में घुसकर मारने के बाद निचली अदालत से जब उसे बरी किया गया तब उस फैसले के विरुद्ध अपील क्यों नहीं हुई? विकास को संरक्षण देने वालों में भाजपा, सपा और बसपा सभी के नेताओं के नाम आ रहे हैं। पुलिस और प्रशासन से उसका याराना तो साबित हो ही चुका है। ऐसे में जब किसी पुलिस अधिकारी ने उसकी गर्दन पर हाथ डालने की जुर्रत की तो विकास ने लाशें बिछा दीं। उप्र और बिहार में इस तरह के अपराधी भरे पड़े हैं। राजनेताओं के साथ ही वे पुलिस और प्रशासन के आला अधिकारियों से भी निकट सम्बन्ध रखते हैं जिसके पीछे आर्थिक हिस्सेदारी ही आधार होता है। विकास के सियासी हस्तियों और नौकरशाहों से रिश्तों की पोल खोलने का समय ज्योंहीं आया त्योंहीं उसका खात्मा हो गया। आज हुआ एनकाऊंटर सही था या सुनियोजित ये शायद ही पता चल सके क्योंकि हैदराबाद की तरह से ही यहाँ भी देखने वाले केवल पुलिस वाले ही थे। लेकिन उप्र की पुलिस इस आरोप से तो नहीं बच सकती कि विकास जबरदस्त नाकेबंदी के बाद भी कानपुर से निकलकर फरीदाबाद होते हुए मप्र के उज्जैन स्थित महाकाल मंदिर में दर्शनार्थी बनकर आ पहुंचा। उसकी गिरफ्तारी को लेकर भी संदेह बना रहा। एक बात तो सच है कि उप्र पुलिस के हत्थे चढ़ने पर अपना अंजाम मालूम होने के कारण ही उसने मप्र में गिरफ्तार होना पसन्द किया। लेकिन वह भूल गया कि अपराध की दुनिया का याराना भी स्वार्थों के आदान प्रदान पर निर्भर करता है। और हालिया घटनाक्रम के बाद वह शासन-प्रशासन के लिए खतरा बन गया था। इस तरह विकास की कहानी तो खत्म हो गई जिस पर अनेक फिल्म बनाने वालों ने पटकथा लिखना भी शुरू कर दिया होगा किन्तु हत्या के संदेहों में घिरी उसकी मौत से जहाँ अनेक कहानियां अनकही रह गईं वहीं कुछ नई कहानियों का जन्म भी हो सकता है। उप्र पुलिस विभाग के सैकड़ों लोग विकास से निकटता से जुड़े थे। उनकी जानकारी मिल चुकी है। कुछ तो गिरफ्तार भी हो चुके हैं। हो सकता है उनमें से कुछ कानून के शिकंजे में फंस भी जाएं किन्तु असली दोषी तो वे राजनेता हैं जो विकास जैसे मामूली गुंडे को अपराध की दुनिया का बादशाह बना देते है। उप्र की योगी सरकार ने तीन साल पहले सत्ता सँभालते ही दर्जनों अपराधियों के ठिकाने लगा दिया। बीते एक सप्ताह में विकास के अनेक सहयोगी भी चटका दिये गये। आम जनता में मुख्यमंत्री की दबंग छवि भी इस कारण से बनी किन्तु ये भी सही है कि योगी महाराज ने अभी तक अपराधियों को संरक्षण देने वाले एक भी राजनेता को सीखचों में नहीं पहुंचाया। और यही वजह रही कि विकास दुबे द्वारा किये गये हत्याकांड से लेकर आज उसकी मौत तक के समूचे घटनाक्रम में पुलिस और प्रशासन के तो कई चेहरे अनावृत्त होने को आ गये लेकिन नेता नामक प्राणी बचे हुए हैं। विकास जीवित रहता तो अनेक सफेदपोशों की असलियत सामने आ जाती। दरअसल विकास महज एक व्यक्ति नहीं अपितु एक प्रवृत्ति है जो हमारी शासन व्यवस्था पर पूरी तरह से हावी है। इसलिए जब तक जड़ों में मठा डालने जैसी बुद्धिमत्ता नहीं दिखाई जाती तब तक विकास जैसी नई टहनियां निकलती रहेंगीं। लेकिन सवाल ये है कि ये दुस्साहस करेगा कौन?
- रवीन्द्र वाजपेयी
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