Monday 27 July 2020

राज्यपाल और विधानसभा अध्यक्ष के अधिकारों को स्पष्ट करे सर्वोच्च न्यायालय




राजस्थान का राजनीतिक संकट शुरू तो हुआ था सचिन पायलट और अशोक गहलोत के बीच अहं की टकराहट से किन्तु बाद में भाजपा विरुद्ध कांग्रेस से होते हुए पहले विधानसभा अध्यक्ष तथा उच्च न्यायालय और अब मुख्यमंत्री और राज्यपाल के अधिकारों पर आकर केन्द्रित हो गया। बात सर्वोच्च न्यायालय तक भी जा पहुँची जो आज सुनवाई कर रहा है। मुख्यमंत्री द्वारा विधानसभा का सत्र बुलाने संबंधी अनुरोध पर राज्यपाल कलराज मिश्र की ना-नुकुर पहली नजर में तो समझ से परे है। पहले अनुरोध पर उन्होंने अल्प सूचना पर सत्र आहूत करने पर एतराज जताते हुए विश्वास मत की जरूरत को ही नकार दिया। श्री गहलोत ने फिर एक और पत्र देकर कोरोना पर विचार हेतु 31 जुलाई को सत्र बुलाने संबंधी  चिट्ठी भेजकर राज्यपाल द्वारा उठाई गयी आपात्तियों की गुंजाईश खत्म कर दी। इस खेल में एक गलती कांग्रेस से ये हो गई कि उसने सचिन पायलट के साथ गए बागी विधायकों की सदस्यता रद्द करने संबंधी कारण बताओ नोटिस विधानसभा अध्यक्ष सीपी जोशी से इस आधार पर जारी करवा दिया कि वे पार्टी व्हिप के बाद भी कांग्रेस विधायक दल की बैठक में शामिल नहीं हुए थे। विधायकों ने नोटिस का जवाब देने की बजाय उसकी वैधानिकता को अदालत में ये कहते हुए चुनौती दी कि व्हिप केवल सदन में उपस्थिति और मतदान के लिए लागू होता है। राजस्थान उच्च न्यायालय द्वारा नोटिस के क्रियान्वयन पर स्थगन के बाद अध्यक्ष ने अपने अधिकार क्षेत्र में न्यायालयीन हस्तक्षेप को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दे डाली। जब वहाँ से भी तात्कालिक राहत नहीं मिली तब श्री गहलोत ने बहुमत साबित करने हेतु सत्र बुलाने का अनुरोध राज्यपाल से किया जिसे ठुकरा दिया गया। उसके बाद दूसरा पत्र विगत दिवस भेजा गया जिसमें विश्वास मत का कोई उल्लेख नहीं है। लेकिन मुख्यमंत्री की मंशा स्पष्ट है। यदि सत्र आयोजित हुआ तब कांग्रेस व्हिप जारी करेगी जिसका उल्लंघन करने पर पायलट गुट के बागी विधायकों की सदस्यता आसानी से रद्द हो जायेगी। सदन में अपना बहुमत साबित करने के बाद मुख्यमंत्री सुरक्षित हो जायेंगे और बगावत का धुआं निकल जायेगा। हो सकता है राज्यपाल भी सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का इंतजार कर रहे हों। हॉलांकि उन्हें मुख्यमंत्री द्वारा विधानसभा का सत्र बुलाने संबंधी अनुरोध को टांगकर रखने का अधिकार भले ही हो लेकिन संदर्भित प्रकरण में उसका औचित्य स्पष्ट नहीं होता। यद्यपि श्री गहलोत ने एक मूर्खता और कर दी। उनका ये बयान बहुत ही आपत्तिजनक था कि जनता आकर राजभवन घेर ले तो वे जिम्मेदार नहीं होंगे। राज्य सरकार का मुखिया यदि राजभवन की सुरक्षा से मुकर जाए तो ये संवैधानिक मशीनरी के ठप्प होने का प्रमाण है। हॉलांकि बाद में कांग्रेस को उसकी गलती का एहसास हो गया, तभी उसने देश भर में राजभवन के सामने विरोध प्रदर्शन का फैसला करते समय राजस्थान के राजभवन को छोड़ दिया। लेकिन जहाँ तक बात राज्यपाल की है तो जिस तरह विधानसभा अध्यक्ष श्री जोशी ने खुद को कांग्रेस का हितचिन्तक साबित कर दिया ठीक वैसे ही राज्यपाल श्री मिश्र भी सतही तौर पर तो भाजपा की तरफदारी करते दिखाई दिए। ये बड़े ही दुर्भाग्य की बात है कि विधानसभा अध्यक्षों द्वारा एक तरफ तो अपनी शक्तियों को असीमित बताकर उनमें दखलंदाजी पर ऐतराज जताया जाता है लेकिन विधायकों के योग्यता संबंधी फैसलों पर उनकी कार्रवाई सदैव सत्ता पक्ष के इशारे पर चलती है। इस मामले में कांग्रेस और भाजपा ही नहीं बाकी दल भी बराबर के दोषी हैं। इसी तरह राज्यपाल के पद की गरिमा और निष्पक्षता पूरी तरह संदेहास्पद हो गई है। सवाल केवल राजस्थान के वर्तमान राज्यपाल का नहीं बल्कि दूसरे राज्यों के महामहिम किसी भी ऐसी स्थिति में केंद्र में बैठी सरकार के इशारे पर काम करते हैं। बीते वर्ष महाराष्ट्र में राजनीतिक अनिश्चितता के बीच राज्यपाल द्वारा सुबह-सुबह देवेन्द्र फड़नवीस और अजीत पवार को शपथ दिलाने जैसी जो कार्रवाई की गई वह लोकतंत्र का मजाक था। केंद्र द्वारा भी भोर के समय राष्ट्रपति शासन हटाये जाने जैसी हरकत घोर आपत्तिजनक थी। लेकिन कांग्रेस ने खुद लम्बे समय तक ऐसा ही किया इसलिए वह ऐसे मामलों में ज्यादा बोलते समय अपराधबोध से ग्रसित हो जाती है। राजस्थान का ये गतिरोध कहाँ जाकर खत्म होता है इसका सभी को इंतजार है। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय को चाहिए वह इस घटनाक्रम को आधार बनाकर राज्यपाल और विधानसभा अध्यक्ष के अधिकारों और कर्तव्यों के साथ ही दलबदल कानून में रह गये उन छिद्रों के बारे में भी अपनी राय दे जिनकी वजह से चुने हुए जनप्रतिनिधि भी बाजारवादी व्यवस्था के हिस्से बनकर बिकाऊ माल की तरह जा बैठते हैं। यद्यपि ऐसे मामलों में सर्वोच्च न्यायालय के सामने भी कुछ लक्ष्मण रेखाएं होती हैं लेकिन कम से कम वह टिप्पणियों के माध्यम से सरकार और संसद को इशारे तो कर सकता है। और फिर वह संविधान का संरक्षक होने के साथ ही उसका व्याख्याकार भी तो है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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