Wednesday 22 July 2020

बिहार और असम में बाढ़ की समस्या स्थायी तो इलाज अस्थायी क्यों



वैसे ये कोई नई बात नहीं है । जिस तरह हर साल बरसात आती है उसी तरह बिहार और असम में बाढ़ का आना भी एक परंपरा है । इसका एक कारण तो अति वृष्टि होता है लेकिन दूसरा है नेपाल और तिब्बत से आने वाली नदियों में अतिरिक्त जल का प्रवाह  । इन दिनों भी दोनों राज्य बाढ़ की विभीषिका से जूझ रहे हैं । अनेक जिलों में दूर - दूर तक  केवल और केवल पानी ही दिखाई देता है । समाचार माध्यमों के जरिये जो चित्र देखने मिल रहे हैं वे भयावह होने के अलावा आपदा प्रबंधों का खोखलापन साबित करने के लिए पर्याप्त हैं । कहा जाता है कि इसके पीछे नेपाल और चीन का भारत विरोधी रवैया भी है ।  लेकिन बिहार और असम में बरसात के दौरान प्रति वर्ष पैदा होने वाले हालात से ये प्रश्न पैदा होता है कि क्या इस समस्या का कोई स्थायी हल नहीं  है ? बताने की जरूरत नहीं है कि बाढ़ की वजह से इन दोनों राज्यों के बड़े हिस्से में जनजीवन पूरी तरह अस्त - व्यस्त होने के साथ ही लोगों की घर - गृहस्थी बर्बाद हो जाती है । कच्चे मकान और झोपड़ी ही नहीं  पक्के  घरों में रह  रहे लोगों को भी खून के आंसू रोना पड़ते हैं । खेतों में पानी भरने से जहां अगली फसल का काम प्रभावित होता है वहीं उद्योग - व्यापार भी  चौपट होकर रह जाते हैं । राहत और पुनर्वास के काम में पूरा सरकारी अमला जुट जाता है । करोड़ों - अरबों रूपये खर्च होते हैं । जमकर राजनीति होती है और नेताओं के हवाई  सर्वेक्षण भी । विपक्ष सरकार पर आरोपों की बौछार करता है तो सत्ता में बैठे महानुभाव पिछली सरकारों पर जिम्मेदारी डालकर बच निकलने का प्रयास करते हैं । और इसी के चलते बरसात विदा हो जाती  है , जिसके बाद जैसे थे की स्थितियां बन जाती है । ये सिलसिला न जाने कब से चला आ रहा है । ये कहना तो गलत होगा कि केंद्र और राज्य सरकार्रों ने इस दिशा में कुछ भी नहीं किया किन्तु ये बात पूरी तरह सही है कि जितना होना चाहिये था उतना नहीं  किया जा सका । और जो हुआ वह भी बढ़ती आबादी के सामने कम ही है । लेकिन ऐसे में सवाल ये है कि हर  साल करोड़ों ही नहीं अरबों का  नुकसान होने के बाद भी  समस्या के स्थायी  समाधान के बारे के में क्यों नहीं  सोचा जाता और यदि सोचा भी गया तो फिर उस पर अमल क्यों नहीं  हुआ या कितना हुआ  ? इस तरह की प्राकृतिक आपदाएं दुनिया के लगभग सभी देशों में आती हैं । अमेरिका तक इनसे बच नहीं पाता । अति हिमपात , बाढ़ , समुद्री तूफ़ान , जंगलों की  आग जैसी विभीषिकाएँ गाहे - बगाहे वहां  आती रहती हैं । जन - धन की हानि के साथ ही समूची  व्यवस्था चरमरा जाती है किन्तु आपदा के जाते ही वहां भविष्य के लिए नए सिरे से उपाय किये जाते हैं । दुर्भाग्य से हमारे यहाँ  आपदा प्रबन्धन अभी भी चींटी की चाल से चलता देखा जा सकता है । बिहार और असम को एक बार छोड़ भी दें तो देश की व्यवसायिक राजधानी कही जाने वाली मुम्बई में प्रतिवर्ष बरसात के दौरान  जल भराव होता है जिससे मुम्बई ठहर जाती है । लेकिन इस समस्या को हल करने के मामले में ऐसा कुछ भी नहीं  किया जाता जिससे लगे कि महाराष्ट्र सरकार अथवा मुम्बई की  महानगरपालिका पिछली गलतियों से सबक लेकर भविष्य में उनकी पुनरावृत्ति  को रोकने के प्रति गंभीर और ईमानदार हो । जहां तक बिहार और असम की बात है तो ये समस्या चूँकि इनके साथ स्थायी तौर पर जुड़ी  है , तब बुद्धिमत्ता इसी में है कि समय रहते ही वहां राहत और पुनर्वास के इंतजाम किये जाने के साथ ही जलप्लावन से गम्भीर रूप से प्रभावित होने वाले स्थानों पर बसे लोगों को अपेक्षाकृत सुरक्षित जगह पर बसाने की तैयारी भी की जानी चाहिए । ये बात तो सही है कि गरीबों की  विशाल संख्या के लिए वैकल्पिक आवासीय व्यवस्था करना कोई खेल नहीं है किन्तु कभी न कभी तो ये करना ही पड़ेगा । इस काम में पैसा भी काफ़ी खर्च होगा लेकिन हर साल बाढ़ से निजी और सार्वजनिक सम्पति के नुकसान के साथ ही राहत और पुनर्वास पर सरकार जितना खर्च करती है वह सांप के निकल जाने के बाद लकीर पीटने जैसा है । बेहतर होगा प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के प्रति तदर्थवादी रवैया त्यागकर स्थायी  समाधान की दिशा में कदम बढ़ाये जाएं । दरअसल हमारे देश में आपदाएं भी नेताओं  और नौकरशाहों के लिए लाभ का सौदा होती हैं । शायद यही  वजह होगी उन्हें  साल दर  साल बनाये रखने में शासन और प्रशासन की रूचि बनी रहती है । स्व.राजीव गांधी भले  न रहे हों लेकिन उपर से चले 1 रुपये के नीचे आते तक घटते - घटते 15 पैसे रह जाने  की संस्कृति आज भी बदस्तूर जारी है ।

- रवीन्द्र वाजपेयी

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