Thursday 16 July 2020

बात तो लाख टके की कही गहलोत ने लेकिन ....



राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने भले ही ये कटाक्ष अपनी सत्ता के लिए खतरा बने हुए सचिन पायलट पर किया हो लेकिन उसमें सच्चाई है। यद्यपि उनकी टिप्पणी से कांग्रेस हायकमान नाराज बताया जाता है, परन्तु श्री पायलट के सन्दर्भ में उनका ये कहना गलत नहीं है कि इनकी रगड़ाई नहीं हुई, केंद्र में मंत्री बन गये। यदि रगड़ाई हुई होती तो और अच्छा काम करते। गहलोत जी ने लगे हाथ ये भी कह दिया कि सोने की छुरी खाने के लिए नहीं होती, अच्छी अंग्रेजी बोलने और स्मार्ट दिखने मात्र से कुछ नहीं होता। हालाँकि ये सब उन्होंने तब कहा जब सचिन को उपमुख्यमंत्री और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष पद से हटा दिया गया। निश्चित तौर पर ये एक व्यक्ति विशेष को लक्ष्य बनाकर कसा गया तंज है, किन्तु इसमें भारतीय राजनीति की वह कड़वी हकीकत छिपी हुई है जिसने लोकतंत्र में नव सामन्तवाद की नींव डाल दी। इसकी शुरुवात कब और किसने की ये तो शोध का विषय है लेकिन नेता पुत्रों और पुत्रियों के अलावा उनके कृपापात्रों का राजनीति में अचानक आकर छा जाना राजनीतिक पार्टियों के वैचारिक आधार और संगठनात्मक ढांचे को कमजोर करता है। श्री गहलोत ने खुद के चालीस वर्षीय राजनीतिक जीवन के हवाले से ये कहना चाहा कि वे परिश्रम करते हुए नीचे से ऊपर आये। उनका कथन पूरी तरह सही है लेकिन सवाल ये भी है कि उनके अपने बेटे वैभव की राजनीति में कितनी रगड़ाई हुई जिनको पिछले लोकसभा चुनाव में जोधपुर सीट से कांग्रेस टिकिट दी गई किन्तु वे बुरी तरह हार गए। बाद में उन्हें राजस्थान क्रिकेट एसो. का अध्यक्ष बनवाया गया जिसमें भी मुख्यमंत्री पिता का ही हाथ रहा। राजनीति में रगड़ाई से श्री गहलोत का आशय संगठन में निचले स्तर से उठते हुए ऊपर आने से है, पुरानी परम्परा यही थी। आजादी के आन्दोलन के समय छोटे कार्यकर्ता और बड़े नेता सभी जेल जाते थे। आजादी के बाद सत्ता और विपक्ष दोनों में ऐसे नेताओं की बहुतायत थी जिन्होंने सार्वजनिक जीवन में कठोर संघर्ष और नि:स्वार्थ सेवा के आधार पर अपनी जगह बनाई। लेकिन उसके बाद परिवारवाद का सिलसिला शुरू हुआ। फिर भी तत्कालीन बड़े नेताओं के वंशजों को भी सामाजिक एवं राजनीतिक कार्यों का थोड़ा ज्ञान तो होता था जो उन्हें आजादी के संघर्ष के दौरान उनके परिवार की भूमिका से प्राप्त हुआ किन्तु साठ के दशक के बाद से राजनीतिक परिदृश्य जिस तरह बदला उसने राजनीति को पारिवारिक व्यवसाय और उत्तराधिकार में बदल दिया। धीरे-धीरे राजनीति के भी कुछ राजघराने बन गये और युवराजों के साथ ही उनके इर्दगिर्द मंडराने वालों को भी राजनीतिक जागीरदारी बतौर दी जाने लगी। मप्र के पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ इसके सबसे अच्छे उदाहरण हैं जिन्हें 1980 में संजय गांधी की निकटता का लाभ मिला मप्र की छिंदवाड़ा सीट से उम्मीदवारी के रूप में। 1977 के लोकसभा चुनाव में जनता पार्टी की प्रचंड लहर में समूचा उत्तर भारत कांग्रेस विहीन हो गया था। यहाँ तक कि इंदिरा गांधी और संजय गांधी भी हार गए। तब भी छिंदवाड़ा में कांग्रेस के गार्गीशंकर मिश्रा जीते थे। इसलिए उसे सुरक्षित सीट मानकर कमलनाथ को वहां भेजा गया। 1980 से वे वहां ऐसे जमे कि छिंदवाड़ा और कमलनाथ समानार्थी बन बैठे। 2018 में उन्हें मप्र के मुख्यमंत्री बनने का अवसर भी मिल गया। 2019 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने अपने बेटे नकुल नाथ को वहां से लोकसभा चुनाव जितवा दिया। श्री गहलोत द्वारा जिस रगड़ाई को मापदंड बनाने की बात कही उसमें कमलनाथ और नकुलनाथ कितने फिट बैठते हैं ये विश्लेषण का विषय है। उनके कारण उस अंचल के न जाने कितने प्रतिभावान कांग्रेसी जमीन से उपर नहीं उठ सके। ये तो महज एक उदहारण है। सचिन पायलट या वैभव गहलोत ही अकेले ऐसे नेता नहीं हैं जिन्हें बिना रगड़ाई के राजनीति में महत्व मिल गया हो। ज्योतिरादित्य सिंधिया, जितिन प्रसाद, मिलिंद देवड़ा और प्रिय दत्त जैसे चेहरे भी तो बिना रगड़ाई के चमक उठे। और अब तो राजनीति में वंशवाद रूपी अमर बेल को रोपने वाली कांग्रेस ही अकेले उसकी पोषक नहीं रही। राहुल और प्रियंका को लेकर परिवारवाद का रोना रोने वाले दूसरे दलों में भी तो कमोबेश यही आलम है। उमर अब्दुल्ला, सुखबीर बादल, भूपिंदर हुड्डा, कुलदीप विश्नोई, अभय चौटाला, अनुराग ठाकुर, अजय माकन, अखिलेश यादव, पंकज सिंह, दुष्यंत सिंह, राजवीर सिंह, तेजस्वी यादव, चिराग पासवान, संदीप दीक्षित, अभिषेक सिंह, हेमंत सोरेन, नवीन पटनायक, अभिजीत मुखर्जी, अशोक चव्हाण, आदित्य ठाकरे, कुमारस्वामी, जगनमोहन रेड्डी, कनिमोझी, स्टालिन जैसे और भी नाम हैं जिन्हें बिना रगड़ाई किये राजनीति में पैराशूट से उतार दिया गया। भले ही बाद में इनमें से कुछ ने अपनी मेहनत और योग्यता से मुकाम बनाया जिनमें नवीन पटनायक सबसे ज्यादा उल्लेखनीय हैं। लेकिन राजनीति का ककहरा पढ़े बिना ही इनमें से अधिकतर को स्नातक और किसी-किसी को तो डाक्टरेट की मानद उपाधि तक दे दी गयी। यद्यपि इस दौर में भी अनेक ऐसे नेता हैं जिन्होंने अपनी औलादों या अन्य परिजनों को सियासत से दूर रखा। इनमें लालकृष्ण आडवाणी, डा. मुरलीमनोहर जोशी, डा. मनमोहन सिंह, नीतीश कुमार और शरद यादव उल्लेखनीय हैं वरना राजनीति विशद्ध पारिवारिक पेशा बनकर रह गयी है। राजीव गांधी ने अरुण नेहरु और अरुण सिंह जैसे कार्पोरेट संस्कृति के अपने यारों को सरकार का हिस्सा बनाया। श्री नेहरू तो बाद में भी सक्रिय रहे लेकिन अरुण सिंह गुमनामी में डूब गये। नेहरू-गांधी परिवार में घरेलू कर्मचारी की हैसियत वाले आर के धवन और माखनलाल फोतेदार सत्ता प्रतिष्ठान में जिस ऊंचाई तक पहुंचा दिए गये वह केवल उनके दरबारी होने का पुरुस्कार था। आजकल टीवी पर राजनीतिक पार्टियों के अनेक ऐसे प्रवक्ता नजर आने लगे हैं जिनका कोई जमीनी आधार नहीं है। उस दृष्टि से श्री गहलोत ने रगड़ाई वाला जो मुद्दा उठाया वह पूरी तरह से समयोचित है। लेकिन उनका बयान उनकी पार्टी के आला नेताओं को ही रास नहीं आने की जानकारी है क्योंकि पार्टी के शीर्ष नेतृत्व में जमे नेताओं में से अधिकतर ने बिना रगड़ाई वाले अपने परिजनों और कृपापात्रों को ऊंची छलांग लगवा दी। गांधी परिवार के सदस्यों ने तो शिखर पर आने के लिए नीचे से चढ़ाई करने के बजाय हेलीकाप्टर का सहारा लिया ही लेकिन केवल कांग्रेस ही क्यों बाकी लगभग सभी पार्टियों में संघर्ष की आग में तपे बिना रेडीमेड नेताओं की लम्बी जमात है। वामपंथी पार्टियाँ हालाँकि अभी अपवाद बनी हुई हैं लेकिन वहां भी वैचारिक भटकाव की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। अतीत में अमिताभ बच्चन द्वारा हेमवतीनंदन बहुगुणा और गोविंदा द्वारा राम नाइक जैसे नेताओं को हराना भारतीय राजनीति की सबसे बड़ी विडम्बनाओं में से एक है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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