Friday 17 July 2020

न्याय की देवी को काली पट्टी और मी लॉर्ड को चश्मे के 50 हजार मुंशी प्रेमचन्द के पंच परमेश्वर याद आ गये





देश में विधायिका और  कार्यपालिका में बैठे कथित जनसेवकों द्वारा सरकार के पैसों पर किये जाने ऐश के बारे में जनता की आवाज तो नक्कारखाने में तूती समान होकर रह जाती है | जिन्हें जनता के बारे में सोचना  और कुछ करना चाहिये वे नेता और नौकरशाह आज भी अंग्रेजों के दौर वाली ठसक दिखाने से बाज नहीं आते | इसीलिये देश के भविष्य के लिए चिंतित हर जिम्मेदार नागरिक न्यायपालिका की तरफ बड़ी ही  उम्मीद से निहारता है | और ये कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि न्यायापालिका ने देश हित में अनेक ऐतिहासिक फैसले सुनाकर लोकतांत्रिक मर्यादाओं  और मूल्यों की रक्षा की | अमूमन  देखा गया है कि कार्यपालिका और विधायिका जिन पेचीदा मामलों अथवा विवादों को छूने से भी कतराती हैं  न्यायपालिका साहस दिखाते हुए उनका हल निकाल देती है |

ये भी  संतोष  और सौभाग्य का विषय है कि संसद और विधानसभा के फैसलों को मानने से इंकार करने की जुर्रत करने वाले भी न्यायपालिका के अप्रिय लगने वाले फैसलों को  सिर झुकाकर मंजूर कर लेते  हैं  | 

अयोध्या की राम जन्मभूमि का विवाद सुलझाने की हिम्मत न देश की संसद की हुई और न ही किसी प्रधानमंत्री ने इसे हल करने का  साहस जुटाया  | राष्ट्रीय  राजनीति को गहराई  तक प्रभावित करने वाले उक्त मुद्दे पर जिस तरह का भावनात्मक ध्रुवीकरण हुआ उसके बाद राजनीतिक समाधान की सभी संभावनाएं खत्म हो चुकी थीं |  लेकिन राजनीतिक पार्टियों के अलावा धार्मिक संगठन और साधु -संत , मुल्ला - मौलवी सभी  ने एक स्वर से कह दिया कि  सर्वोच्च न्यायालय जो फैसला देगा उसे सभी स्वीकार कर लेंगे और हुआ भी यही |

लेकिन न्यायपालिका के प्रति बिना शर्त सम्मान में तब कमी आती है जब कतिपय आचरण और क्रियाकलाप उसके श्रेष्ठि भाव का परिचय देते हैं | न्यायपालिका में निचले स्तर पर तो भ्रष्टाचार है ही किन्तु जब उच्च स्तर पर भी उसकी जानकारी  आती है तब दुःख के साथ चिंता  भी होने लगती है | बाहर के लोग आरोप लगायें  तो बात नजरअंदाज भी की जा सकती है लेकिन जब न्यायपालिका की सर्वोच्च आसंदी पर विराजमान माननीय एक दूसरे के  विरुद्ध मोर्चा  खोकर बैठ जाएँ तब ये सोचना पड़ता है कि पानी सिर से ऊपर आने को है | उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश ने तो सर्वोच्च न्यायालय के  न्यायाधीशों तक के विरुद्ध मनमर्जी से आदेश पारित कर दिए | बाद में वे फरार हो गये और चेन्नई में पकड़े गए |

खैर , ये सब तो समाज में आये चारित्रिक  पतन या बदलाव के कारण सामान्य प्रतीत होने लगा है | आखिर न्यायाधीश भी तो इसी समाज और न्यायिक व्यवस्था से आते हैं जहाँ भ्रष्टाचार को शिष्टाचार मानकर आंखें मूँद लेने की प्रवृत्ति हावी हो चुकी है | और यही वजह है कि न्यायाधीश की कुर्सी पर आसीन मान्यवर भी  राजनेताओं की तरह राजसी ठाठ - बाट की अपेक्षा करने से बाज नहीं आते | उनके पद की गरिमा और महत्व को देखते हुए उन्हें अच्छा वेतन- भत्ते , आवास , नौकर - चाकर , सुरक्षा , चिकित्सा आदि मिलना जरूरी है | सेवा निवृत्ति के बाद भी उन्हें  शासकीय अधिकारियों जैसी या उससे अधिक सुविधाएं मिलना भी काफ़ी हद तक ठीक ही है | न्यायाधीशों की शान में गुस्ताखी करने की हिम्मत अच्छे - अच्छों की नहीं  पड़ती | यहाँ तक कि छुटभैये नेता से लेकर देश के प्रधानमंत्री तक की बखिया उधेड़ने वाले समाचार माध्यम भी , मी लॉर्ड की  बात आते ही दायें - बाएं होने लगते हैं |

इसी संदर्भ में  बॉम्बे  उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को महाराष्ट्र सरकार के एक निर्णय के अंतर्गत  चश्मा बनवाने हेतु प्रतिवर्ष 50 हजार रु. की  राशि मंजूर किया जाना न सिर्फ आश्चर्यचकित  करने अपितु हंसने  को मजबूर करता है | उनकी  पत्नी और  आश्रित बच्चे भी इस व्यवस्था से लाभान्वित हो सकेंगे | इस बारे में पांच -  छः माह पहले तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश और मुख्य सचिव अजॉय मेहता के बीच चर्चा हुई थी | आजकल श्री मेहता मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के सलाहकार हैं |

सवाल ये नहीं है कि न्यायाधीशों की सेवा शर्तों के अनुसार उन्हें क्या मिलता है ? सवाल ये है कि महाराष्ट्र जैसे राज्य के मुख्य न्यायाधीश और मुख्य सचिव  के बीच चश्मे जैसी बेहद मामूली चीज के लिए राशि के निर्धारण पर चर्चा हुई और उस पर लम्बे विचार - विमर्श के बाद सरकार ने अंततः प्रस्ताव पारित कर  दिया | कोई न्यायाधीश और उसकी पत्नी  तथा बच्चे कौन सा चश्मा लगायें और उसकी  कीमत क्या हो ये  उनकी निजी पसंद का मामला है | उनका इलाज सरकारी खर्च पर हो और उन्हें विशिष्ट व्यक्ति के तौर पर तमाम सुविधाएं  और सम्मान हासिल हों इसमें भी किसी को आपत्ति नहीं है लेकिन चिकित्सा सुविधा के तहत  चश्मे की कीमत तय करने के लिए माननीय मुख्य न्यायाधीश को मुख्य सचिव के साथ बैठना पड़ा ये शोचनीय है |  

पता नहीं ये व्यवस्था बाकी उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय में भी है या नहीं  किन्तु राज्य की न्यायपालिका और नौकरशाही का मुखिया बैठकर न्याय व्यवस्था में सुधार जैसे किसी विषय पर चर्चा करते तो वह स्वागतयोग्य होती  | लेकिन महज एक चश्मे  की कीमत हेतु दो दिग्गजों ने अपना समय खर्च किया ये हमारी न्याय  व्यवस्था और शासन प्रणाली दोनों के लिए गम्भीर विमर्श का विषय होना चाहिए |

मेरा आशय न्यायपालिका का मखौल उड़ाना बिलकुल नहीं है लेकिन इस तरह के शासकीय निर्णयों और उनमें न्यायपालिका के शीर्ष पद पर बैठे व्यक्ति की सक्रिय भूमिका से यदि आम जनता के बीच न्यायपालिका की निरंतर खराब हो रही छवि और गिर जाए तो उसे अस्वाभाविक नहीं कहा जाना चाहिए | उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को मिलने वाला वेतन इतना कम नहीं है कि उन्हें अपने और पत्नी के साथ ही आश्रित बच्चों के लिए चश्मा जैसी मामूली चीज खरीदने के लिए सरकार का मुंह ताकना पड़े |और फिर प्रतिवर्ष 50 हजार रु. के चश्मा भत्ते की राशि का प्रावधान तो और चौंकाने वाला है | कल को ऐसी ही  सुविधा देश के सम्मानीय विधायक - सांसद  और उनके पीछे आला नौकरशाह भी हासिल करने लगें तब उनका  हाथ पकड़ने वाला कौन होगा ?

उल्लेखनीय है निःशुल्क नेत्र शिविरों में गरीबों के मोतियाबिंद ऑपरेशन हेतु सरकार तीन से चार हजार रु. प्रति मरीज बतौर अनुदान शिविर आयोजकों को देती है | उस आधार पर देखें तो बॉम्बे उच्च न्यायालय में तकरीबन 68 न्यायाधीश हैं | इसकी पीठ नागपुर , औरंगाबाद और गोवा  में है | साधारण बुद्धि वाला भी बता देगा कि इन न्यायाधीशों को चश्मा भत्ते के रूप में दी जाने वाली राशि से कितने गरीबों की आँख का मोतियाबिंद ठीक किया जा सकता है |

ऐसे समय में जब कोरोना  संकट के कारण   देश के सांसदों और  शासकीय कर्मियों के वेतन भत्ते कम कर दिए गए और सरकारी राजस्व गिर रहा है तब इस तरह के चश्मे भत्ते की स्वीकृति  आँखों में किरकिरी पैदा करने वाली है |

भारतीय फिल्मों में न्यायाधीश के  पीछे खड़ी न्याय की देवी रूपी प्रतिमा की आंख में पट्टी बांधी होती है | यदि यही स्थिति रही तो बड़ी बात नहीं आने वाले समय में न्याय की देवी की आँखों पर भी कोई ब्रांडेड चश्मा हो |

अनायास मुंशी प्रेमचंद की कालजयी  कहानी पंच परमेश्वर के अलगू चौधरी और जुम्मन शेख जैसे पंच याद आ गये जो किसी सरकारी सुविधा के मोहताज हुए बगैर लम्बी - लम्बी  तारीखें दिये बिना ऐसा न्याय करते थे जिसमें दूध का दूध और पानी का पानी हो जाता था |

लेकिन उनकी आँखों पर लोकलाज का चश्मा था , किसी सरकार का नहीं |

No comments:

Post a Comment