Friday 10 July 2020

सियासी शतरंज के बड़े मोहरे बचाने पैदल की कुर्बानी विकास के संरक्षकों का पर्दाफाश भी जरूरी




कोरोना को लेकर जो सरकारी विज्ञापन हम सभी को मोबाईल फोन पर जबरन सुनना पड़ता  है उसमें  एक पंक्ति है हमें बीमारी से लड़ना है बीमार से  नहीं | निश्चित रूप से इसमें एक सन्देश छिपा हुआ है | बीते दो दिनों तक  ये देश कोरोना और चीन जैसी समस्याओं से परे हटकर कानपुर वाले विकास दुबे की  जीवनगाथा सुनने में  उलझा रहा | 9 दिन पहले कानपुर के चौबेपुर थाने से पुलिस की एक टुकड़ी विकास को पकड़ने रात के समय  उसके गांव स्थित घर पहुँची  | थाने में बैठे उसके शुभचिंतक ने इसकी सूचना पहले ही उसे दे दी जिसके  कारण विकास ने भी जबरदस्त मोर्चेबंदी कर  डाली | पुलिस टुकड़ी उसे पकड़ने में कामयाब हो पाती उसके पहले ही उसके 8 लोगों को विकास के घर से चली  गोलियों ने भूनकर रख दिया और वह खुद भाग निकला | उप्र की पूरी पुलिस उसे ढूंढती रह गई | उसके कुछ सह्योगियों को मार भी गिराया गया  | विकास अतीत में भी हत्याएं  करता रहा था किन्तु गवाहों के अभाव में बचता गया | शासन और प्रशासन किसी भी  दल का रहा हो लेकिन विकास के हौसले निरन्तर विकसित होते गये | वह भाजपा और  बसपा से होते हुए वर्तमान में सपा से जुड़ा बताया जा रहा था  | और प्रशासन में तो उसका दखल नीचे से लेकर ऊपर तक था ही | वरना 2001 में एक मंत्री स्तर के व्यक्ति की पुलिस थाने में हत्या करने के बाद वह 19 साल तक जीवित न बना रहता | इस दौरान उसका हृदय परिवर्तन हो गया हो ऐसा नहीं था | दर्जनों अपराधिक प्रकरणों में वह आरोपी था | बीच - बीच में जेल आना - जाना भी लगा रहा | वह और उसकी पत्नी स्थानीय निकाय के चुनाव में भी जीते |

उस रात पुलिस का दल उसके घर आया तब विकास चाहता  तो पहले ही निकल भागता किन्तु जब थाने में ही उसके खैरख्वांह बैठे रहे तब उसका हौसला बुलंद होना स्वाभाविक था | लेकिन यहीं वह गलती कर बैठा | एक साथ आठ पुलिस वालों की  नृशंस हत्या की वजह से उप्र सरकार  पर जो चौतरफा हमले हुए उनके बाद विकास दुबे को मिलने वाले राजनीतिक संरक्षण पर सवाल उठने के अलावा  दिवंगत थाना प्रभारी द्वारा कुछ समय पूर्व उच्च अधिकारी को लिखी गई चिट्ठी का हल्ला मच जाने से पुलिस महकमे को भी विकास से नजदीकी नुकसान का सौदा लगने लगी | और आखिर में  वही हुआ जिसकी  जानकारी आज सुबह - सुबह मिली |

उज्जैन में पकड़े जाने के बाद कानपुर लाये जाने के दौरान कुछ किलोमीटर पहले हुए एक नाटकीय घटनाक्रम में विकास का अंत हो गया | उसके बाद से पुलिस की कार्रवाई संदेह और सवालों के घेरे  में आ गई है | पुलिस चाहे गर्म तवे  पर बैठकर भी  ये कहे कि विकास भागने की कोशिश में मारा गया , तब भी कोई विश्वास नहीं  करेगा क्योंकि खाकी वर्दी वालों की विश्वसनीयता इस देश में सबसे निचले स्तर पर मानी  जाती है | विकास ने यदि 8 साधारण लोगों की हत्या की  होती तब वह शायद इस तरह न मारा जाता |

उप्र पुलिस उसको इस तरह निपटा देगी ये मानने वाले 99 फीसदी रहे होंगे | इसलिए जब सुबह खबर आई तो किसी को आश्चर्य नहीं हुआ | और तो और अधिकतर लोग खुश भी हुए | यद्यपि एक वर्ग विशेष है जिसे पुलिस का ये तरीका रास नहीं आया | उसे भय है कि पुलिस को ऐसा करने की छूट मिल गयी तो वह एक तरह से स्वयंभू न्यायपालिका बन सकती है , जो बेहद खतरनाक होगा | और ऐसा सोचना  काफी हद तक सही भी है | लेकिन अनेक लोगों ने इस घटना के संदर्भ में  न्यायपालिका की अक्षमता पर भी निशाना साधा |  

वैसे ये पहला अवसर नहीं है जब पुलिस पर एनकाउंटर को लेकर संदेह उत्पन्न हुआ हो | ऐसी अधिकतर घटनाओं को योजनाबद्ध माना जाता है | जांच भी होती है लेकिन नतीजा शून्य ही रहता आया है | और वैसा ही इस घटना के बारे में होना तय है | लेकिन पूरे देश में ये बात भी तेजी से उठ खड़ी हुई है कि  विकास के अपराधिक कारोबार को बढ़ावा देने वाले उसके अदृश्य  संरक्षक राजनीतिक नेता और अफसरों पर गाज कब गिरगी ? कोई  माने या न माने लेकिन दो दशक से भी ज्यादा समय से अपराध का इतना बड़ा जाल फैलाने के बाद भी उसका निडर होकर घूमना बगैर राजनीतिक और प्रशासनिक सरपरस्ती के  नामुमकिन था | योगी आदित्यनाथ की सरकार को विपक्षी दल एनकाउंटर की सरकार कहते रहे हैं | लेकिन बीते तीन साल में वह भी विकास दुबे को ठिकाने नहीं लगा सकी तो इसका साफ मतलब है कि उसे शासन - प्रशासन से अभयदान हासिल था |

सवाल ये है कि अपराधी गिरोहों का सफाया करने के दावों के बावजूद अपराध घटने की बजाय बढ़ते ही जा रहे हैं और इसका कारण ये है कि हमारा पूरा फोकस अपराधी को मिटाने पर टिक गया है जबकि प्रयास अपराधों की जड़ पर प्रहार करने का  होना चाहिए | जिस तरह कोरोना के विज्ञापन में बीमार के बजाय बीमारी से लड़ने की  समझाइश है उसी तरह अपराधी रूपी बीमार को रास्ते से हटाने से समस्या हल नहीं होने वाली | दरअसल अपराधी  होना भी  एक मानसिक स्थिति है | लेकिन विकास दुबे समान जहरीले पौधे को खाद पानी देकर वृक्ष बनाने वाली सोच को जब तक  समूल नष्ट नहीं किया जाता तब तक भविष्य में  अपराधियों के मारे जाने के बाद भी अपराधों की  नई फसल आती रहेगी |

विकास के पकड़े जाते ही पुलिस प्रशासन और राजनेताओं से उसके रिश्तों के खुलासे की चर्चा जोर पकड़ने लगी थी  और उसी के साथ उसके खात्मे के आशंका भी | और जैसे ही उसके मारे जाने की खबर आई वैसे ही उससे खुश होने वाले भी इस बात को लेकर निराशा से भर उठे कि एनकाउंटर में केवल विकास नहीं मारा गया बल्कि उसके साथ अपराधों को पाल - पोसकर रखने वाला नेता और नौकरशाहों का पूरा काला चिट्ठा भी  काल के गाल में समा गया | जहां तक विकास की बात है तो उसके मार दिए जाने से भले ही पुलिस ने अपने दावे के मुताबिक अपने 8 शहीदों की मौत का भरपूर बदला तो ले लिया किन्तु जिस तरह शतरंज के खेल में बादशाह और वजीर के साथ बाकी मोहरों को बचाने के लिए पैदल की बलि दे दी जाती है ठीक वैसे ही इस मामले में भी बड़े मोहरे बचा लिए गए |

 विकास भले ही कितना भी बड़ा सूरमा रहा हो लेकिन जब सरकारी व्यवस्था ने उसके सफाये की ठान ली तब उसे आसानी से ठिकाने लगा दिया गया | लेकिन असली सवाल तो ये है कि उप्र की पुलिस में इतना साहस तब जाकर ही क्यों आया जब उसे लगा कि विकास उसके साथ ही राज्य की राजनीति से जुड़े तमाम कद्दावर नेताओं के विनाश का कारण बनने जा रहा है |  इस घटना के बाद भी शासन , प्रशासन और राजनीति का अपराधियों से स्थायी गठबंधन समाप्त हो जायेगा , ये मान लेने से बड़ी मूर्खता दूसरी नहीं होगी | लेकिन यदि इस गठजोड़ का  बेरहमी से खात्मा नहीं  किया गया तो अपराध रूपी गाजर घास कभी मिटने का नाम नहीं लेगी |

विकास भले मारा जा चुका  हो लेकिन उसके मोबाईल में छिपे राज यदि सामने लाये जा सकें तो योगी सरकार को एक नये युग के सूत्रपात का श्रेय हासिल हो सकेगा | 

हालाँकि इसकी उम्मीद न के बराबर है |

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