Saturday 11 July 2020

श्मसान में पति की लाश के पास खड़ी पत्नी का साक्षात्कार ? पत्रकारिता के मौलिक सिद्धांतों का अंतिम संस्कार !





वर्ष 2002 में जुलाई महीने की 28 तारीख थी | एक दिन पहले उस समय के उपराष्ट्रपति कृष्णकांत का निधन हो गया था | उनके दिल्ली स्थित आवास पर विशिष्ट जनों का आना - जाना लगा था | अंतिम यात्रा की तैयारियां चल रही थीं | अखबारी संवाददाताओं के अलावा  टीवी चैनलों के रिपोर्टर आँखों देखा हाल देश और दुनिया तक पहुँचाने के लिए कैमरामैन के साथ जुटे थे । और वहां आती  जा रही  विशिष्ट हस्तियों द्वारा  दिवंगत उपराष्ट्रपति के प्रति व्यक्त की जा रही श्रद्धांजलि को प्रसारित करते जा रहे थे | इसी दौरान एक चैनल के एंकर ने स्टूडियो से अपने रिपोर्टर को कहा जरा हमारे दर्शकों  को ये भी दिखलाइये कि वहां का माहौल कैसा है ? और रिपोर्टर ने भी कैमरा घुमा - घुमाकर उदास चेहरे दिखलाते हुए बताया कि सभी लोग ग़मगीन हैं | 
बात आई - गई हो गई | 

लेकिन उसके बाद जनसत्ता नामक अखबार के प्रधान संपादक स्व. प्रभाष जोशी ने अपने साप्ताहिक  स्तंभ कागद कारे में उक्त टीवी चैनल के एंकर की जबरदस्त खिंचाई करते हुए कटाक्ष किया कि जिस घर में किसी की लाश रखी हो और अंतिम यात्रा की तैयारियां चल रही हों वहां का माहौल कैसा होगा , ये भी क्या पूछने की चीज है ?  प्रभाष जी किसी  भी विषय पर अपनी  बात बहुत ही दबंगी से रखते थे | उस दौर में अखबार और टीवी समाचार चैनलों में वर्चस्व की लड़ाई शुरू हो चुकी थी | ऐसे में प्रथम दृष्टया ये माना गया कि जोशी जी ने उस बहाने टीवी पत्रकारिता पर प्रहार किया जो कि व्यावसायिक प्रतिद्वन्दिता का  हिस्सा कहा जा सकता था | लेकिन कालान्तर में ये बात खुलकर सामने आ गई कि टीवी पत्रकारिता के आने के बाद समाचारों के संकलन और प्रस्तुतीकरण में दायित्वबोध  और सम्वेदनशीलता का अभाव होने लगा है | सबसे पहले और केवल हमारे चैनल या पत्र में  जैसे दावों के बीच समाचार को भी बाजार की वस्तु बना दिया गया है |

ये कहना भी गलत नहीं  होगा कि जिस तरह  फिल्म निर्माता बॉक्स आफिस पर हिट होने के लिए फिल्म में अश्लीलता , हिंसा और सनसनी का सहारा लेते हैं , उसी तरह अब समाचार माध्यम विशेष रूप से टीवी समाचार चैनल भी समाचार के जरिये अपनी टीआरपी बढ़ाने का प्रयास करने लगे हैं | देखा - सीखी अख़बार जगत के भी सरोकार बदलते जा रहे हैं |

गत दिवस इसका एक और उदाहरण सामने आया | हुआ यूं कि कानपुर के कुख्यात गुंडे विकास दुबे की एनकाउंटर में हुई मौत के बाद उसका अंतिम संस्कार हो रहा था | श्मसान भूमि में विकास की पत्नी भी मौजूद थी | पत्रकारगण भी वहां फोटोग्राफरों के साथ जा पहुंचे | विकास दुबे के मारे जाने के बाद उसका क्रियाकर्म विशुद्ध पारिवारिक विधि थी | यदि वह कोई विशिष्ट व्यक्ति  होता जिसकी  अंत्येष्ठि राजकीय सम्मान के साथ हो रही होती तब वह समाचार की दृष्टि से महत्वपूर्ण था  | लेकिन न जाने किस उद्देश्य से समाचार जगत के लोग श्मसान भूमि में अंतिम संस्कार वाली  जगह पर झुण्ड बनाकर खड़े हो गये | जब विकास की  पत्नी ने उनसे जाने के लिए कहा तब उसे  सामने आकर अपनी शिकायत बताने जैसी बातें कही गईं , जिस पर वह बिफर उठी  और उसके बाद उसने तेज आवाज में जमकर खरी - खोटी सुनाई जिसमें अनेक ऐसी बातें हैं जिनका उल्लेख  शोभा  नहीं  देता |  वैसे  विभिन्न चैनलों पर उसके वीडियो मौजूद हैं |

मुझे लगता है उस महिला ने जो कहा , उस हालात में कोई दूसरा भी होता तो समाचार संकलन करने गए लोगों को हो सकता है उससे भी तीखी जुबान में झिड़कता | 

विकास दुबे को लेकर बीते दिनों जो भी घटनाक्रम घटित हुआ उसकी वजह से उप्र की योगी सरकार , राज्य की पुलिस - प्रशासन और  राजनीतिक बिरादरी तो सवालों के घेरे में है ही लेकिन अनायास समाचार माध्यम भी आलोचनाओं  का शिकार हो गये जिनके प्रतिनिधि अति उत्साह में  श्मसान पत्रकारिता करने जा पहुंचे और बेइज्जत होकर लौटे | विकास की  पत्नी से बातचीत कतई गलत नहीं थी |  परन्तु उसके लिए क्या इन्तेजार नहीं  किया जाना चाहिए था ?  ज्यादा न सही कम से कम उसके घर लौटने तक तो रुका ही जा सकता था |

गत वर्ष एक प्रसिद्ध टीवी चैनल की तेज तर्रार एंकर अपनी टीम लेकर पटना के एक बड़े  सरकारी अस्पताल के आईसीयू वार्ड में घुसकर वहां व्याप्त अव्यवस्था को लाइव दिखाते हुए एक चिकित्सा कर्मी से उलझ  गईं  | उसने कहा भी कि कृपया डाक्टर से बात करें लेकिन रिपोर्टर ने रौब झाड़ना जारी रखा | उल्लेखनीय है उस समय चमकी बुखार नामक संक्रामक बीमारी के कारण सैकड़ों मरीज वहां भर्ती थे | और बाहरी व्यक्ति का प्रवेश वर्जित था । बाद में उक्त रिपोर्टर की बिना अनुमति आईसीयू वार्ड में कैमरामैन सहित घुसने के लिए काफी आलोचना हुई |

लेकिन संभवतः  भारतीय पत्रकारिता में ये पहला उदाहरण होगा जब श्मसान भूमि में अपने पति की लाश के बगल में खड़ी उसकी पत्नी से अपेक्षा की  जा रही थी कि वह संवाददाताओं से मुखातिब होकर कैमरों के समक्ष  पति की  एनकाउंटर में हुई मौत के बारे में बतियाए | उसने गुस्से में उन सबको वहां  से जाने के लिए कहा भी किन्तु उसके बाद भी कोई टस से मस नहीं हुआ |

 
पत्रकारिता के अपने अनुभव और वरिष्ठों से मिले ज्ञान के आधार पर मुझे लगता है कि पत्रकारिता के भीतर घुस आई जबरिया मानसिकता का भी एनकाउंटर किया जाना जरूरी है | पैपराजी कहलाने  वाली  फ़ोटोग्राफ़रों की एक प्रजाति पूरी दुनिया में है | इनका काम विशिष्ट हस्तियों के निजी  जीवन में ताकझाँक करना होता है | टेनिस खिलाड़ी स्टेफी ग्राफ अपने बहुमंजिला निवास की छत पर बने स्वीमिंग पूल के किनारे कम कपड़ों में धूप  ले रही थी | पैपराजी समूह ने हेलीकाप्टर किराये पर लेकर उनके चित्र खींचकर महंगे दाम में बेचे |  कहा जाता है ब्रिटेन के युवराज चार्ल्स की पहली पत्नी डायना अपने पुरुष मित्र के साथ कार में जा रही थीं |  पैपराजी उसके पीछे अपनी कार दौड़ा रहे थे क्योंकि वह फोटो उनके लिए लिए सोने का अंडा होती | उनसे बचने की लिए डायना के ड्रायवर ने कार की गति बढ़ाई | नतीजा कार दुर्घटना और डायना के मित्र सहित मारे जाने के रूप में सामने आया | 

आज भारत में भी पैपराजी संस्कृति की पत्रकारिता ने  पदार्पण कर लिया है | जिसमें किसी की भी निजता में अतिक्रमण करना अपना अधिकार मान लिया जाता  है।

समय के   साथ वाकई बहुत कुछ बदलता है | मर्यादाएं भी नए सिरे से परिभाषित होती हैं | लेकिन पत्रकारिता के जो मौलिक सिद्धांत हैं उनको यदि तिलांजलि  दे दी गई तब वह अपनी उपयोगिता और सार्थकता दोनों खो बैठेगी | उसकी प्रतिष्ठा और विश्वसनीयता तो पहले से ही  सवालों के घेरे में आ चुकी हैं  | ऐसे में विकास दुबे के अंत्येष्ठि स्थल पर जाकर उसकी पत्नी से बात करने की कोशिश में जो फजीहत हुई वह रोजमर्रे की बात बनते देर नहीं लगेगी |

 बेहतर हो पत्रकारिता आत्मावलोकन करे कि  खुद को पेशेवर साबित करने के लिए किसी के शोक का व्यवसायीकरण करना कहाँ तक उचित है ?

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