Tuesday 21 July 2020

कोरोना के चरमोत्कर्ष में चुनाव के बारे में सोचना ही गलत



चुनाव आयोग ने गत दिवस मप्र विधान सभा के दो दर्जन उपचुनाव सितम्बर के अंत तक करवाने की बात कही। इनमें से कुछ सीटें ऐसी हैं जिन्हें रिक्त हुए पहले ही छह महीने बीत चुके हैं। आयोग अपने संवैधानिक दायित्व के निर्वहन के प्रति सजग और सक्रिय रहे ये बहुत ही अच्छी बात है। भारत के चुनाव आयोग की कार्यकुशलता पूरे विश्व में प्रसिद्ध है। विभिन्नता से भरे देश में जहाँ राजनीतिक और सामाजिक वातावरण प्रान्त दर प्रान्त बदल जाता है वहां चुनाव जैसी जटिल प्रक्रिया को सुचारू तरीके से पूरा कर लेना निश्चित रूप से प्रशंसनीय है। लेकिन मौजूदा हालातों में जब कोरोना नामक वायरस के कारण पूरी दुनिया ठहर सी गयी है तब चुनाव प्रक्रिया को कुछ समय के लिए टालना समय की मांग है। मप्र में कोरोना के तेजी से फ़ैलाव को देखते हुए दोबारा लॉक डाउन लागू करने पर विचार हो रहा है। कल ही राज्य सरकार ने दो दिन तक पूरे प्रदेश में साप्ताहिक लॉक डाउन की मंजूरी दी। प्रदेश के जिन अंचलों में उपचुनाव प्रस्तावित हैं वहां कोरोना के दर्जनों नए मामले रोज आने के कारण प्रशासन वैसे ही परेशान है। बड़ी संख्या में सरकारी कर्मचारी भी कोरोना की चपेट में आते जा रहे हैं। इसे देखते हुए ये निर्णय भी किया गया कि जिस दफ्तर में कोई भी संक्रमित पाया जाएगा उसे कुछ दिन तक बंद रखा जाए। ऐसे में यदि सितम्बर के अंत तक चुनाव आयोग उपचुनाव करवाने की बात कह रहा है तो राज्य सरकार के साथ सभी राजनीतिक दलों को मिलकर उससे आग्रह करना चाहिए कि वह स्थितियां सामान्य होने तक प्रतीक्षा करे। राष्ट्रीय स्तर पर भी देखें तो अक्टूबर-नवंबर में बिहार विधानसभा के चुनाव होने हैं। आयोग अपनी तैयारियों में जुटा हुआ है। जबकि राज्य में पहले कोरोना का विस्फोट हुआ और अब बाढ़ ने तबाही मचा दी है। राज्य में कोरोना जांच का कार्य जिस कछुआ चाल से चल रहा है उसकी वजह से हालात बेकाबू होने लगे हैं। मौतों का आंकड़ा भी लगातार ऊपर जा रहा है। आने वाले दिनों में बिहार और उसका पड़ोसी राज्य बंगाल कोरोना संक्रमण के मामले में देश में अग्रणी होने की तरफ  बढ़ रहे हैं। दोनों में घनी आबादी के बावजूद स्वास्थ्य सेवाएँ बहुत ही सामान्य स्तर की हैं। ऐसे में बिहार विधानसभा के चुनाव अक्टूबर-नवम्बर में करवाने का निर्णय किसी भी स्थिति में संभव नहीं लगता। इस बारे में सबसे प्रमुख बात ये है कि चुनाव आयोग राज्य के प्रशासनिक ढांचे के मार्फत ही समूची प्रक्रिया का संचालन करता है। निष्पक्षता बनाये रखने के लिए दूसरे राज्यों से पर्यवेक्षक और सुरक्षा बल भी बुलाये जाते हैं। सरकार का पूरा ध्यान चुनाव प्रबंधन पर केन्द्रित हो जाता है। ये सब देखते हुए मौजूदा हालातों में चुनाव का संचालन किसी तरह से व्यवहारिक नहीं कहा जाएगा। जहाँ तक बात संविधान के प्रावधानों का पालन करने की है तो आम जनता की जि़न्दगी की रक्षा कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है। संविधान जिन लोगों के लिए बना है क्या उनकी सुरक्षा और स्वास्थ्य महत्वपूर्ण नहीं है ? देश में कोरोना संक्रमण के सामुदायिक फैलाव का खतरा व्यक्त किया जा रहा है। लगभग 40 हजार नए मरीज रोज निकल रहे हैं। नए-नए हॉट स्पॉट सामने आ रहे हैं। टेस्टिंग की संख्या अपर्याप्त होने से भी संक्रमण को नियंत्रित करने में कठिनाई आ रही हैं। शहरों तक सीमित कोरोना कस्बों से होते हुए ग्रामीण क्षेत्रों तक भी जा पहुंचा हैं। चिकित्सा जगत इस बात को लेकर चिंतित है कि ग्रामीण अंचल में संक्रमण और बढ़ा तब हालत बेकाबू हो जाएंगे। समूचे परिदृश्य पर नजर दौड़ाने के बाद ये पक्के तौर पर मान लिया गया है कि अगस्त और सितम्बर में संक्रमण अपने चरमोत्कर्ष पर होगा और ऐसे में सरकारी अमला जन स्वास्थ्य से ध्यान हटाकर चुनाव प्रबंधन में लिप्त हो जाये, इससे बड़ा जनविरोधी काम दूसरा नहीं हो सकता। जो कर्मचारी चुनाव ड्यूटी में तैनात होंगे वे कोरोना से बचे रहेंगे इसकी कोई गारंटी नहीं दी जा सकती। ऐसे में बेहतर होगा केंद्र सरकार स्वास्थ्य आपातकाल के मद्देनजर चुनाव आयोग को तब तक के लिए चुनाव रोकने के लिये कहे जब तक कोरोना की वैक्सीन नहीं आ जाती। चूँकि दिसम्बर तक पूरी दुनिया में अनेक देश कोरोना वैक्सीन का उत्पादन करने की स्थिति में आ जायेंगे और भारत उसका बड़ा केंद्र होगा तब फिर चुनाव के बारे में सोचना उचित रहेगा। उल्लेखनीय है नेताओं द्वारा तो वर्चुअल रैली के माध्यम से प्रचार कर लिया जाएगा लेकिन मतदाता को तो मतदान केंद्र तक जाना ही होगा। लॉक डाउन हटते ही लोगो ने जिस तरह की लापरवाही का परिचय दिया उसे देखने के बाद चुनाव करवाना हजारों लोगों के जिंदगियों को खतरे में डालने से कम नहीं होगा।


-रवीन्द्र वाजपेयी

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