Monday 30 January 2023

यात्रा के बाद क्या विपक्षी छत्रप राहुल का नेतृत्व स्वीकार करेंगे



कांग्रेस नेता राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा का गत दिवस श्रीनगर में  समापन हो गया। कन्याकुमारी से कश्मीर तक की यह यात्रा विभिन्न राज्यों से गुजरी। इसमें केवल राजस्थान में ही कांग्रेस की पूर्ण सत्ता है। तमिलनाडु, केरल , कर्नाटक , तेलंगाना , महाराष्ट्र , मध्यप्रदेश, राजस्थान ,  उ प्र , दिल्ली, हरियाणा , पंजाब से होती हुई वह अपने गंतव्य श्रीनगर पहुंची। यात्रा में  उनके साथ  विभिन्न राज्यों से चुने गए कांग्रेस कार्यकर्ता  अंत तक शामिल रहे जो उल्लेखनीय है। यात्रा की समाप्ति सकुशल हुई ये राहत का विषय है क्योंकि  पंजाब और जम्मू कश्मीर सुरक्षा की दृष्टि से बेहद संवेदनशील थे । गैर कांग्रेसी राज्यों में भी यात्रा की सुरक्षा का अच्छा ध्यान रखा गया । हालांकि इक्का दुक्का दुखद घटनाएं हुईं । कांग्रेस के एक सांसद पैदल चलते हृदयाघात से चल बसे तो पंजाब और कश्मीर में सुरक्षा प्रबंध थोड़े गड़बड़ाए भी। कांग्रेस ने इस यात्रा को  आंदोलन का नाम दिया था जिसका मकसद घृणा और धार्मिक उन्माद मिटाकर लोगों को विभाजनकारी राजनीति के विरुद्ध एकजुट करना बताया गया। इसके साथ ही श्री गांधी जिस क्षेत्र से गुजरते वहां की स्थानीय समस्या पर भी लोगों से बात करते हुए अपना दृष्टिकोण रखते। धीरे धीरे उनकी टी शर्ट और बढ़ती दाढ़ी भी चर्चा में आने लगी। उत्तर भारत की सर्दी में भी वे टी शर्ट पहने रहे।  खबर है अब गुजरात से असम तक भारत जोड़ो यात्रा का दूसरा चरण निकाला जावेगा। अपने इस प्रयास में श्री गांधी की पहली सफलता तो ये कही जायेगी कि उन्होंने कांग्रेस के भीतर नेतृत्व को लेकर व्याप्त अनिश्चितता पूरी तरह खत्म करते हुए यह स्थापित कर दिया कि वे ही पार्टी के चेहरे हैं और   गांधी परिवार की विरासत के एकमात्र हकदार भी। जो लोग कुछ समय से उनकी बहिन प्रियंका वाड्रा को उनसे ज्यादा सक्षम साबित कर रहे थे उनकी बोलती इस यात्रा ने बंद कर रखी है। दूसरी बात ये कि राहुल उस आरोप से बरी हो गए  कि वे चांदी का चम्मच लेकर पैदा हुए राजकुमार हैं इसलिए उनका जनता से न संपर्क है और न ही संवाद। पूरी यात्रा उन्होंने पैदल की और निर्धारित दूरी प्रतिदिन तय करते हुए अपनी प्रतिबद्धता और शारीरिक क्षमता प्रदर्शित  की। लेकिन भारत जोड़ो का नाम सार्थक करने में वे कितने सफल रहे इसका आकलन आने वाले कुछ दिनों तक राजनीतिक विश्लेषकों को व्यस्त रखेगा। ये अनुमान शुरू में लगाया जा रहा था कि श्री गांधी इस यात्रा के जरिए समूचे विपक्ष को अपने साथ लाकर 2024 के लोकसभा चुनाव हेतु भाजपा के विरोध में मोर्चे को आकार दे सकेंगे किंतु कुछ फिल्मी हस्तियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के अलावा केवल शिवसेना के आदित्य ठाकरे और अंत में उमर अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती के कोई बड़ा विपक्षी चेहरा उनके साथ न चला और न ही अपना समर्थन भेजा। शरद पवार , ममता बैनर्जी , के. चंद्रशेखर राव, अरविंद केजरीवाल , सुखबीर सिंह बादल  , ओमप्रकाश चौटाला , नीतीश कुमार , अखिलेश यादव , मायावती , जैसे  नेताओं ने यात्रा को अनदेखा कर दिया। ऐसा लगता है बीच बीच में श्री गांधी का ये कहना उक्त नेताओं को नहीं पचा कि कांग्रेस को धुरी बनाकर ही अगले लोकसभा चुनाव में विपक्षी एकता होनी चाहिए। यात्रा के समाचार माध्यम प्रभारी जयराम रमेश ने अनेक अवसरों पर दोहराया भी कि कांग्रेस को सभी राज्यों में अपनी ताकत पर लड़ने की तैयारी करनी चाहिए। हालांकि पूरी यात्रा के दौरान राहुल ने भाजपा और रास्वसंघ की आलोचना में कोई कसर नहीं छोड़ी। साथ ही हिंदू धर्मस्थलों पर जाकर  भाजपा को चिढ़ाने के अलावा  पौराणिक  प्रसंगों का उल्लेख कर अपने को अध्ययनशील प्रमाणित करने का प्रयास भी किया। फिर भी क्या पांडवों ने नोट बंदी की थी और क्या उन्होंने जीएसटी लगाया जैसे मुद्दे छेड़कर वे हंसी का पात्र भी बने।  इसी तरह बात बात में ये कहना कि वे भाजपा और संघ से नफरत नहीं करते और फिर उन्हीं के विरुद्ध पूरी यात्रा को केंद्रित रखना विरोधाभासी लगा। यात्रा के जरिए श्री गांधी की पप्पू वाली छवि को बदलने का प्रयास भी सुनियोजित तरीके से किया गया किंतु पूरी सतर्कता के बावजूद वे अनेक अवसरों पर पुरानी गलतियां दोहराने से बाज नहीं आए । भले ही कांग्रेस इस यात्रा के पीछे की सोच को किसी भी रूप में पेश करे लेकिन इसका उद्देश्य श्री गांधी को प्रधानमंत्री के समकक्ष खड़ा करते हुए शेष विपक्ष को उनका नेतृत्व स्वीकार करने हेतु बाध्य करना ही था । लेकिन अब ये कहना गलत नहीं होगा कि विपक्ष के छोटे से हिस्से को छोड़ बाकी छत्रपों ने इस यात्रा को जरा भी तवज्जो नहीं दी। और तो और इसी बीच कांग्रेस के अनेक प्रादेशिक नेता पार्टी छोड़ गए। राजस्थान में अशोक गहलोत और सचिन पायलट को यात्रा के दौरान युद्धविराम हेतु राजी किया गया किंतु ज्योंही श्री गांधी ने राजस्थान छोड़ा दोनों में टकराव होने लगा। दरअसल यात्रा की शुरुआत में ही अपशकुन हो गया जब श्री गहलोत द्वारा गांधी परिवार की मंशा ठुकराते हुए कांग्रेस अध्यक्ष बनने से   इंकार  के साथ ही राजस्थान की गद्दी श्री पायलट को सौंपने  से मना करते हुए केंद्रीय पर्यवेक्षकों को बेइज्जत कर लौटा दिया। उसके बावजूद जब मुख्यमंत्री समर्थित विधायकों के विरुद्ध कोई कार्रवाई नहीं हुई तो अजय माकन ने महामंत्री पद छोड़ दिया। और भी ऐसी घटनाएं इस दौरान हुईं जब पार्टी नेतृत्व विशेष रूप से गांधी परिवार असहाय नजर आया । संभवतः यही देखकर गैर भाजपाई  विपक्ष के नेताओं ने यात्रा से दूरी बनाकर चलने का रास्ता चुना। हालांकि  राहुल राष्ट्रीय नेता के रूप में अपनी जगह बनाने में काफी हद तक सफल रहे जो उन्हें दूसरे विपक्षी नेताओं से कुछ ऊपर रखने में सहायक होगी । दिग्विजय सिंह द्वारा सर्जिकल स्ट्राइक पर संदेह व्यक्त किए जाने पर बिना देर किए उनकी बात का विरोध कर देना इसका प्रमाण था । लेकिन ये भी उतना ही सही है कि ममता, अखिलेश और केसीआर जैसे क्षेत्रीय छत्रप उनकी रहनुमाई शायद ही स्वीकार करेंगे क्योंकि कांग्रेस उनके राज्य में अपना हिस्सा मांगे बिना नहीं रहेगी जो उन्हें स्वीकार्य नहीं होगा। बावजूद इसके इतना कहा जा सकता है कि श्री गांधी ने कांग्रेस में सक्रियता बढ़ा दी है । जिस उत्साह से पार्टीजन उनकी यात्रा से जुड़े उसकी वजह से जी 23 नामक असंतुष्ट गुट पूरी तरह नेपथ्य में धकेल दिया गया। अध्यक्ष के चुनाव में मल्लिकार्जुन खड़गे की शशि थरूर पर बड़ी जीत ने भी गांधी परिवार के वर्चस्व को साबित कर दिया किंतु यात्रा के समापन के ठीक पहले केरल के कद्दावर नेता और गांधी परिवार के करीबी ए.के.एंटोनी के बेटे का कांग्रेस छोड़ना भावी खतरों की तरफ इशारा भी है। बहरहाल श्रीनगर में राष्ट्रध्वज फहराकर लौटे राहुल निश्चित रूप पहले से ज्यादा आत्मविश्वास से भरे होंगे । लेकिन इसका कितना लाभ कांग्रेस को मिलेगा ये इसी वर्ष होने जा रहे विधानसभा चुनाव के नतीजों से स्पष्ट हो जाएगा।

रवीन्द्र वाजपेयी 

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