Thursday 26 January 2023

दायित्वबोध की अनुभूति के बिना अमृतकाल की कल्पना साकार नहीं हो सकेगी



आज भारत का गणतंत्र दिवस है। 26 जनवरी 1950 को देश का संविधान लागू हुआ था जिसके पश्चात हमारा देश पूर्ण सार्वभौमिक गणराज्य के रूप में विश्व मानचित्र पर उभरा। स्वाधीनता दिवस एक तरफ जहां हमें ब्रिटिश सत्ता से हजारों साल की गुलामी से मुक्ति का एहसास कराता है वही गणतंत्र दिवस हमें अपना राज्य अपनी मर्जी से चलाने की स्वाधीनता प्रदान करता है। लेकिन इसी के साथ ही यह हम सबके लिए दायित्व बोध का भी स्मरण दिवस है । हमें यह याद रखना चाहिए कि किसी भी देश या समाज को यदि सही मायने में विकसित और प्रतिष्ठित होना है तब उसे अनुशासन का पालन करना ही होता है । और इसीलिए प्रजातांत्रिक व्यवस्था में संविधान नामक व्यवस्था होती है जिसमें नागरिकों के अधिकारों के संरक्षण के साथ ही उनके कर्तव्यों अर्थात देश के कानून और व्यवस्था के पालन के प्रति उनकी प्रतिबद्धता का विवरण समाहित है। ये हम भारतवासियों का सौभाग्य है कि हमारे संविधान निर्माताओं ने लंबे विचार विमर्श के बाद जो संविधान हमें दिया वह न सिर्फ विश्व का सबसे बड़ा लिखित संविधान है अपितु मानव अधिकारों के संरक्षक के रुप में एक लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना का आधारस्तम्भ भी है। आजादी के 75 वर्ष का उत्सव मनाने के बाद ये गणतंत्र दिवस हमारे गणराज्य की सफलताओं और विफलताओं का आकलन करने का भी अवसर है। यद्यपि बीते 75 वर्ष में हमारे संविधान में अनेक संशोधन किए जा चुके हैं किंतु यह सुखद अनुभव है कि हमारे देश के राजनेताओं ने लोकतांत्रिक मर्यादाओं के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को कभी भी नहीं छोड़ा और यही कारण है कि बीते 72 वर्ष के बाद भी भारतीय संविधान की मूल आत्मा को  छेड़ने का दुस्साहस किसी ने नहीं किया । हालांकि एक अपवाद 1975 में श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा आपातकाल लगाए जाने का है जो संविधान की आत्मा पर गहरी चोट थी किंतु देश की जनता ने अपनी  जागरूकता व्यक्त करते हुए 2 साल से कम के समय में ही आपातकाल की धज्जियां उड़ा दीं । श्रीमती गांधी की सरकार तो गई ही लेकिन वे अपना स्वयं का चुनाव भी हार गईं। उसके बाद  संसद द्वारा इस बात की पुख्ता व्यवस्था की गई कि भविष्य में कोई भी सरकार या प्रधानमंत्री चाहे वह कितना भी शक्तिशाली क्यों न हो , संविधान में वर्णित संसदीय व्यवस्था को नष्ट करने और नागरिकों के मौलिक अधिकारों के हनन का दुस्साहस न कर सके। इसलिए बीते कुछ दशकों में जब राजनीतिक तौर पर देश में अनिश्चितता बनी रही तब भी संविधान के  मूलभूत ढांचे से छेड़छाड़ नहीं की जा सकी । लेकिन बीते कुछ समय से न्यायपालिका और विधायिका के बीच समन्वय की कमी जिस रूप में सामने आ रही है वह जिम्मेदार नागरिकों के लिए चिंता का विषय है। इसी के साथ ही केंद्र और राज्यों के बीच अधिकारों को लेकर टकराव भी अप्रिय स्थिति पैदा कर रहा है । जिसकी वजह से संघीय ढांचा डगमगाने की आशंका होने लगती है। भाषा के नाम पर  देश से अलग होने जैसी धमकी के अलावा केंद्रीय जांच एजेंसियों को राज्यों में प्रवेश से रोकने जैसी घटनाएं अच्छा उदाहरण नहीं कहा जा सकता।  संविधान निर्माताओं ने यद्यपि विधायिका , न्यायपालिका और कार्यपालिका के आधिकारों और कर्तव्यों का  न्यायसंगत निर्धारण तो किया ही , साथ ही साथ केंद्र और राज्यों के लिए भी मर्यादाऐं तय कर दी थीं। लेकिन ऐसा लगने लगा है कि हमारा गणतंत्र केवल अपने अधिकारों के लिए लड़ने का साधन बनकर रह गया है। और इस आपाधापी में हमारे जो कर्तव्य इस देश और संवैधानिक व्यवस्था के प्रति हैं उनके बारे में हम आंख मूंदे बैठे हैं। आज देश में जो कुछ नकारात्मक होता दिखता है उसके पीछे अधिकारों की  मारामारी ही है। जबकि 75 साल की आजादी के बाद हमें एक कर्तव्यनिष्ठ देश के रूप में अपनी पहिचान बनानी चाहिए थी। दुर्भाग्य से हमारे शासक वर्ग को जनता के सामने जो आदर्श पेश करना चाहिए थे उसमें वह चूक गया और उसकी देखा  सीखी समाज की मानसिकता पर अधिकारों को प्राप्त करने की जिद हावी हो गई। जिसके प्रभावस्वरूप दायित्वबोध का क्षरण होता चला गया। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने आजादी के अमृत महोत्सव से जिस अमृत काल के शुभारंभ की घोषणा की है वह युगदृष्टा महर्षि अरविंद और स्वामी विवेकानंद की उस भविष्यवाणी पर आधारित है जिसमें 21 वीं सदी को भारत के पुनरुत्थान का काल बताया गया था।चारों तरफ से आ रहे संकेत इसकी पुष्टि भी कर रहे हैं । लेकिन  उस मुकाम पर पहुंचने के लिए हमें अपने उन दायित्वों के प्रति गंभीर होना पड़ेगा जिनकी अपेक्षा हमारे संविधान निर्माताओं ने हमसे की थी। इस बारे में स्मरण रखने वाली बात ये है कि संविधान की शुरुआत "हम भारत के लोग" जैसे वाक्य से होती है और इसलिए उसकी पवित्रता की रक्षा हमारा दायित्व है।
गणतंत्र दिवस की हार्दिक बधाई।

रवीन्द्र वाजपेयी 

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