Thursday 12 January 2023

झगड़े में संसद और न्यायपालिका दोनों की छवि खराब होगी



आम तौर पर उपराष्ट्रपति ज्यादा चर्चा में नहीं रहते | राज्यसभा के पदेन सभापति के अलावा वे कुछ सरकारी संस्थाओं के मुखिया भी  होते हैं | संवैधानिक ओहदे की वजह से विवादित  विषयों पर बोलने से भी वे परहेज करते हैं | राष्ट्रपति के रहते हुए वैसे भी उनकी भूमिका सीमित होती है और फिर संसदीय प्रजातंत्र में प्रधानमंत्री का चेहरा ही समूचे तंत्र में नजर आता है | लेकिन नए उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ अपने पूर्ववर्तियों से अलग दिखने  का संकेत दे रहे हैं | राज्यसभा की  आसंदी पर विराजमान होते ही उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय द्वारा राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग को असंवैधानिक बताते हुए न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए कालेजियम व्यवस्था को जारी रखने संबंधी फैसले पर जिस तरह निशाना साधा उससे लग गया कि वे महत्वपूर्ण मामलों में अपनी राय व्यक्त करने से पीछे नहीं हटेंगे | यद्यपि उनके उस वक्तव्य पर सर्वोच्च न्यायालय ने तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की किन्तु श्री धनखड़ उससे अविचलित रहते  हुए खुलकर अपने विचार व्यक्त करने में संकोच नहीं करते | इसका ताजा प्रमाण है जयपुर में पीठासीन अधिकारियों के सम्मेलन में उनका भाषण जिसमें उन्होंने विधायिका की सर्वोच्चता में न्यायपालिका  के हस्तक्षेप को गलत मानते हुए कहा कि वे इससे सहमत नहीं हैं कि संसद कानून बनाये और सर्वोच्च न्यायालय उसे रद्द कर दे | संसद द्वारा लिए गए फैसले की किसी अन्य संस्था द्वारा समीक्षा किये जाने पर सवाल उठाते हुए श्री धनखड़ ने पूछा कि क्या संसद द्वारा बनाया कानून तभी लागू माना जायेगा जब उस पर अदालत की मुहर लग जाए  ? उपराष्ट्रपति ने ये भी कहा कि संसद सर्वोच्च है जिसके बनाये गए कानूनों को अन्य संस्था द्वारा अमान्य करना प्रजातंत्र के लिए अच्छा नहीं है | उक्त सम्मलेन में देश भर से आये विधानसभा और विधान परिषदों के सभापतियों के अतिरिक्त लोकसभा अध्यक्ष और  राजस्थान के मुख्यमंत्री की उपस्थिति में विधायिका द्वारा पारित कानूनों पर अदालतों की दखलंदाजी पर खुलकर चर्चा हुई | अनेक वक्ताओं ने कहा कि अदालतों को मर्यादा के भीतर रहकर काम करना चाहिए | कुछ समय पहले जयपुर में ही मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और केन्द्रीय कानून मंत्री किरण रिजजू ने सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश के सामने कहा था कि अदालतें वकीलों का चेहरा देखकर फैसला सुनाती हैं | इस सबसे ऐसा लगता है कि विधायिका और न्यायपालिका के बीच चल रहा शीत युद्ध और त्तेज होगा | हालाँकि श्री रिजजू भी समय – समय पर न्यायपालिका की भूमिका पर टीका – टिप्पणी करते रहे हैं जिसका न्यायाधीशों ने बुरा भी माना | अब चूंकि बीड़ा उपराष्ट्रपति ने उठाया है इसलिए कहा जा सकता है कि आने वाले समय में न्यायपालिका , विधायिका और कुछ हद तक कार्यपालिका के बीच टकराव खुलकर सामने आयेगा | इसकी वजह एक तो कालेजियम द्वारा नए न्यायाधीशों की नियुक्ति हेतु भेजी गई सिफारिशों को केंद्र सरकार द्वारा लम्बे समय से लंबित रखा जाना है | और दूसरा ये कि सरकार राष्ट्रीय न्यायिक  आयोग संबंधी विधेयक दोबारा संसद में लाने के संकेत दे रही है जिससे न्यायपालिका और संसद के बीच रस्साकशी और तेज हो जायेगी | सबसे रोचक बात ये है उपराष्ट्रपति अग्रिम मोर्चे पर नजर आ रहे हैं जो कि राज्यसभा के सभापति के साथ ही  पेशे से अधिवक्ता होने के नाते दोहरी भूमिका में हैं | वैसे न्यायाधीशों की नियुक्ति संबंधी कालेजियम व्यवस्था के विरुद्ध अनेक बातें सामने आ चुकी हैं | न्यायपालिका के भीतर भी एक वर्ग है जिसे ये लगता है कि इस प्रणाली में अनेक विसंगतियां हैं | राजनीतिक क्षेत्र में भी न्यायिक नियुक्ति आयोग बनाये जाने पर आम तौर पर सहमति है | इसीलिये  सर्वोच्च न्यायालय द्वारा उसे रद्द किये जाने के बाद से संसद की सर्वोच्चता और न्यायपालिका द्वारा उसके निर्णयों को रद्द करने पर बहस चल रही है | गौरतलब है न्यायपालिका द्वारा अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर की जाने वाली टिप्पणियाँ भी  आलोचना का कारण बनती रही हैं | सुनवाई के दौरान अनेक न्यायाधीश ऐसी बातें कह जाते हैं जो  फैसलों या आदेशों में तो शामिल नहीं की जातीं किन्तु उनके कारण सरकार की स्थिति खराब होती है | हमारे देश में न्यायपालिका के प्रति सम्मान का जो भाव है उसके कारण उसकी आलोचना करते समय भी काफी सतर्कता बरती जाती है | लेकिन न्यायिक सक्रियता के अतिरेक से वह लिहाज टूट रहा हैं | ऐसे में  पीठासीन अधिकारियों के सम्मेलन में व्यक्त  भावनाओं का शुद्ध मन से  संज्ञान लिया जाना जरूरी है | विधायिका और न्यायपालिका के बीच नियन्त्रण और सन्तुलन होना चाहिए न कि टकराव क्योंकि उससे दोनों की छवि पर आंच आयेगी जो कि पहले  ही काफी खराब हो चुकी है |

रवीन्द्र वाजपेयी 


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