Monday 16 January 2023

बजट में करों का बोझ कम हो : छोटे व्यापारी को भी मिले सामाजिक सुरक्षा



संसद का बजट सत्र आगामी 31 जनवरी से प्रारंभ होने जा रहा है और बजट तैयार करने की प्रक्रिया भी अंतिम दौर में है  | हालांकि उसका बड़ा हिस्सा तो तय हो चुका होगा लेकिन कर प्रस्ताव अंतिम  वक्त पर ही आकार लेते हैं क्योंकि वित्त मंत्रालय विभिन्न औद्योगिक – व्यापारिक संगठनों के प्रतिनिधि मंडलों से राय मशविरा करने के बाद ही निर्णय करता है | कर्मचारी जगत से भी इस बारे में सरकार को ढेर सारे सुझाव मिलते हैं | हालाँकि उसके तकनीकी पहलुओं से तो आम जनता को  सरोकार नहीं होता लेकिन कराधान संबंधी प्रस्ताव उसे सीधे प्रभावित करते हैं इसलिए उसकी रूचि ये जानने में ही होती है कि बजट से उसकी जेब भरेगी या और खाली होगी ?  हमारे देश में बजट  पर चुनावी राजनीति की छाया रहती है इसलिए ये उम्मीद की जा रही है कि इस वर्ष 10 राज्यों के चुनाव होने के साथ ही चूंकि 2024 के लोकसभा चुनाव के पूर्व केंद्र सरकार का ये आखिरी पूर्ण बजट होगा इसलिए आम जनता के लिए राहत का पिटारा खोला जा सकता है | जहाँ तक बात आयकर की है तो ये कहने में कुछ भी गलत नहीं है कि आबादी का बहुत ही छोटा हिस्सा उससे प्रभावित होता है लेकिन उपभोक्ता बाजार को ये तबका चूंकि प्रभावित करता है लिहाजा इसका ध्यान रखा जाना जरूरी है | और फिर इस वर्ग में कर्मचारियों की संख्या ज्यादा होने से जनमत पर भी ये असर डालता है | इसलिये उम्मीद लगाई जा रही है कि मोदी सरकार आयकर छूट के जरिये इसे राहत देगी | देश में दूसरे बड़े दबाव समूह के तौर पर किसान हैं | दो साल पहले चले लम्बे आन्दोलन के बाद सरकार ने किसानों के हित में अनेक निर्णय किये जिनमें समर्थन मूल्यों में वृद्धि प्रमुख थी | रही बात उद्योग जगत की तो सरकार किसी की भी हो उसके हितों की चिंता करती है क्योंकि अर्थव्यवस्था के पहिये को वही गति प्रदान करता है | लेकिन इन सबसे अलग हटकर बहुत बड़ी संख्या जनता के उस हिस्से की है जो स्वरोजगार से जुड़ा है या फिर निजी क्षेत्र में साधारण सी नौकरी करता है | व्यापारी वर्ग में भी ज्यादातर लघु और मध्यमवर्गीय ही हैं परन्तु  ये वर्ग चूंकि संगठित नहीं है इसलिए सरकार के कानों तक अपनी आवाज नहीं पहुंचा पाता | उस दृष्टि से प्रधानमंत्री द्वारा सबका साथ , सबका विकास और सबका विश्वास नामक जो नारा दिया गया उसकी झलक आगामी बजट में दिखाई देगी , ऐसी  उम्मीद सब कर रहे हैं  | एक बात और जो कचोटती है वह ये कि जिस सामाजिक सुरक्षा के नाम पर सरकारें अरबों खरबों खर्च करती हैं उससे व्यवसायी  समुदाय वंचित है | जीवन भर तरह – तरह के करों से सरकार का खजाना भरने वाले व्यापारी के साथ किसी भी प्रकार की अनहोनी हो जाने पर उसके परिवार वालों पर मुसीबत  का पहाड़ टूट पड़ता है | कोरोना के दौरान बड़ी संख्या में युवा व्यवसायी मृत्यु का शिकार हुए जिससे उनके आश्रितों का भविष्य अंधकारमय हो गया | किसी व्यापारी की अचानक मृत्यु होने पर उसके परिजनों को किसी भी प्रकार की सामाजिक सुरक्षा न मिलना अनुचित है  | अपेक्षा है बजट में इस वर्ग के लिए ऐसी किसी योजना का समावेश होगा जिससे किसी अनहोनी के बाद  उसके परिजन किसी तरह मोहताज न हों | दुनिया की पाँचवीं  सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन चुके भारत में वर्तमान कर ढांचा  विकास के लिए ज्यादा से ज्यादा धन अर्जित करने के उद्देश्य पर टिका  है | पहले  टैक्स वसूलकर हाइवे बनाना और उसके बाद टोल टैक्स लगाकर उसकी कीमत वसूलना उसी सोच का प्रमाण  है | लोक कल्याणकारी राज्य में संपन्न वर्ग से कर लेकर वंचित वर्ग के उत्थान पर खर्च करने का चलन होता है | लेकिन हमारे देश की जो कर प्रणाली है उसमें गरीब व्यक्ति को भी  अप्रत्यक्ष तौर पर उन करों का भुगतान करना पड़ता है जो संपन्न वर्ग से अपेक्षित  हैं | कोरोना  काल में चूंकि अर्थव्यवस्था डगमगा गई थी जिसकी वजह से सरकार ने अनेक रियायतें बंद कर दीं | यद्यपि गरीबों को मुफ्त खाद्यान्न और निःशुल्क इलाज की सुविधा तो जारी है किन्तु रेल यात्रा में विभिन्न वर्गों को मिलने वाली छूट बंद है | विशेष तौर पर वरिष्ट नागरिकों के लिए तो ये सुविधा न्यायोचित है | इसी तरह पेट्रोल और डीजल की कीमतों में पेट्रोलियम कम्पनियों की मुनाफाखोरी घटाने पर इस बजट में ध्यान दिया जाना जरूरी है क्योंकि भले ही महंगाई के आंकड़ों पर सरकार कुछ भी कहे लेकिन कोरोना के दौरान  जो दाम बढ़े वे कम नहीं हुए | हालाँकि महंगाई में वैश्विक परिस्थितियों का भी योगदान  है लेकिन पेट्रोल - डीजल पर लगाये जाने वाले करों का औचित्य साबित करने का कोई आधार नहीं है | ऐसे में बजट से सबसे बड़ी अपेक्षा यही है कि उन पर लगाया जा रहा कर कम किया जाए जिससे जनता पर पड़ रहा बोझ घटने के कारण परिवहन खर्च में  कमी होने से चीजों के दाम गिरें | कुल मिलाकर आशय ये है कि सरकार को करों पहाड़ छोटा करते हुए आय बढ़ाने के सिद्धांत को अमल में लाना चाहिए | वर्तमान में करों की दरें सरकार के लिए भले ही लाभ का सौदा हों लेकिन उन्हें जनता पर बोझ  कहना गलत नहीं होगा | भारत की सड़कें अमेरिका जैसी  बनाने के फेर में उस जैसा भारी कराधान तब तक औचित्यपूर्ण नहीं है जब तक हमारे देश की  प्रति व्यक्ति औसत आय अमेरिका जैसी न हो जाये | हालाँकि ये मान लेना तो ख्याली पुलाव पकाने जैसा होगा कि करों के ढांचे में बहुत बड़ा बदलाव आगामी बजट में देखने मिलेगा लेकिन मोदी सरकार के पास ये अवसर है कर प्रणाली में सकारात्मक सुधार करने का | सरकार में बैठे लोगों को ये बताने की जरूरत नहीं है कि करों की ज्यादा दरें  उनकी चोरी और सरकारी तंत्र के भ्रष्टाचार को पालने – पोसने में मददगार होती हैं | 

रवीन्द्र वाजपेयी 

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