Friday 4 August 2023

ज्ञानवापी : होगा तो वही जो अदालत तय करेगी लेकिन .....



यदि सर्वोच्च न्यायालय ने रोक न लगाई तो अलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले के अनुसार एएसआई ( भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ) वाराणसी स्थित ज्ञानवापी मस्जिद का वैज्ञानिक सर्वे करेगा। उच्च न्यायालय ने मुस्लिम पक्ष द्वारा खुदाई से  ढांचे को होने वाले नुकसान की आशंका जताए जाने पर एएसआई को निर्देश दिया कि सर्वे के अत्याधुनिक तरीके अपनाए जाएं जिससे इमारत को किसी तरह की क्षति न पहुंचे। एएसआई ने भी अदालत को आश्वस्त किया है कि आजकल बिना फर्श खोदे या दीवारों की ऊपरी परत को खुरचे भी भीतरी जानकारी हासिल करना संभव है। उल्लेखनीय है अयोध्या में खुदाई इसलिए हुई थी क्योंकि विवादित स्थल पर कोई इमारत नहीं थी। उस दृष्टि से अलाहाबाद उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश प्रीतिंकर दिवाकर का निर्णय सच्चाई को जानने की  दिशा में महत्वपूर्ण साबित होगा। उन्होंने कहा भी कि न्याय हित में यह जरूरी है।  सर्वोच्च न्यायालय भी संभवतः इस पर रोक नहीं लगाएगा क्योंकि उच्च न्यायालय ने ढांचे को नुकसान पहुंचाए बिना सर्वे के लिए कहा है। हालांकि अब तक जो भी तथ्य सामने आए हैं वे इस बात की तरफ इशारा करते हैं कि ज्ञानवापी मस्जिद काशी विश्वनाथ मंदिर परिसर का ही एक हिस्सा है जिस पर मुगल काल में जबरन कब्जा कर मस्जिद खड़ी कर दी गई। कुछ समय पहले जब वजू खाने में शिवलिंग होने की बात सामने आई तब भी दीवारों और स्तंभों पर हिंदू धार्मिक प्रतीकों की बात उजागर हुई थी। देश - विदेश के अनेक पुरातत्व विशेषज्ञों और इतिहासकारों ने भी इस बात को माना है कि ज्ञानवापी ,  विश्वनाथ मंदिर के हिस्से में ही बनाई गई और ऐतिहासिक शिवलिंग भी इसके नीचे दबा हो सकता है। एक नंदी प्रतिमा भी है जो मस्जिद की तरफ मुंह करते हुए खड़ी है जिसके आधार पर हिंदू पक्ष का दावा है कि भीतर शिव लिंग है। बहरहाल चूंकि न्यायालय के आदेशानुसार सर्वे होगा और उसमें मस्जिद के ढांचे को क्षति न पहुंचे इसकी सावधानी रखी जाएगी तब एतराज करने की बजाय मुस्लिम पक्ष को  सहयोग करना चाहिए । ज्ञानवापी के अलावा मथुरा की शाही मस्जिद का मामला भी  ऐसा ही है। ये दोनों हिंदुओं की  आस्था के  बड़े केंद्र हैं। इनको लेकर दोनों पक्षों के बीच विवाद बना रहे तो ये भावी पीढ़ियों के लिए भी तकलीफदेह होगा। होना तो ये चाहिए था कि स्वाधीनता प्राप्त करने के बाद एक निश्चित समयावधि में ऐसे सभी मामलों को सुलझा लिया होता जिससे कि व्यर्थ के तनाव न पैदा होते। उस समय देश की बागडोर जिनके हाथों थी ,  उनकी बात को कोई नहीं टालता । लेकिन उन्होंने इसकी जरूरत नहीं समझी और दूसरी बातों में उलझे रहे। दरअसल अल्पसंख्यकों को खुश करने के फेर में तमाम ऐसे फैसले टाले जाते रहे जो देश के दूरगामी हितों के लिए आवश्यक थे। संदर्भित धर्मस्थलों के बारे में भी ऐसा ही हुआ। उल्लेखनीय है जिस अयोध्या विवाद के लिए भाजपा और विश्व हिन्दू परिषद को कसूरवार ठहराया जाता है वह तो स्व .पं.जवाहरलाल नेहरू और स्व. पं. गोविंद वल्लभ पंत के रहते ही शुरू हो चुका था किंतु उसे साधारण मुकदमा मानकर अदालती दायरे में छोड़ दिया गया।   दशकों बाद जब  ये मुद्दा राजनीतिक बना तब जाकर लोगों की नींद खुली। यदि शुरू में ही मुस्लिम पक्ष को ये समझाइश सभी बड़े नेता देते कि वे इतिहास में हुई ज्यादतियों को स्वीकार कर भविष्य में शांति और सद्भाव का  वातावरण बनाने में सहयोग दें तो अब तक बहुत कुछ ठीक हो गया होता । लेकिन दुर्भाग्य ये रहा कि दूसरों पर राजनीतिक लाभ उठाने का आरोप लगाने वाले राजनीतिक नेता खुद वोटों के लालच में  फंस गए। किसी भी सुव्यवस्थित देश में अल्पसंख्यकों के हितों की सुरक्षा एक मानवीय जरूरत है।  भारत का संविधान इसकी गारंटी देता है। लेकिन क्या कारण था जो हमारे संविधान निर्माताओं ने संविधान की प्रस्तावना में धर्म निरपेक्ष (सेकुलर) शब्द नहीं जोड़ा और 1976 में जब पूरा विपक्ष जेल में था तब स्व. इंदिरा गांधी ने संविधान संशोधन करते हुए सेकुलर शब्द को प्रस्तावना का हिस्सा बनाया। इसका आशय ये लगाया जा  सकता है कि स्वाधीनता संग्राम में शामिल रहे  तमाम तत्कालीन नेताओं को सेकुलर होने का ढिंढोरा पीटने की जरूरत महसूस नहीं हुई । लेकिन इंदिरा जी का दौर आते - आते वैसा करना जरूरी हो गया और फिर ज्यादातर पार्टियों ने धर्म निरपेक्षता का लबादा ओढ़ लिया। कहने की जरूरत नहीं है कि कांग्रेस को ही इसका सबसे ज्यादा नुकसान हुआ और मुस्लिम मतों पर उसका एकाधिकार धीरे - धीरे घटता चला गया । जिससे उ.प्र, बिहार और प. बंगाल जैसे राज्यों में उसकी दयनीय स्थिति  हो गई जहां मुस्लिम आबादी 20 से 30 फीसदी तक है। कहने का आशय ये है कि मुस्लिम तुष्टीकरण भी अब चुनाव जीतने का  औजार नहीं रह गया । ये कहना भी गलत न होगा कि  भाजपा को सर्वोच्च शिखर तक पहुंचाने में इन तथाकथित धर्मनिरपेक्षतावादियों का ही योगदान है जो मुसलमानों के खैरख्वाह बने रहने का दिखावा करने के साथ ही हनुमान गढ़ी से प्रचार शुरू करते हैं और मंदिर मठों में जाकर मत्था टेकते हैं। मुसलमानों को चाहिए वे इस दोहरे रवैए से खुद को दूर करें। ज्ञानवापी का प्रकरण चूंकि अदालत की निगरानी में है इसलिए उसका फैसला तो अब वहीं से होना ठीक रहेगा किंतु मुस्लिम पक्ष को इस बारे में जय - पराजय के भाव से ऊपर उठकर आगे आना चहिए। आज के हालात में मुसलमान नेतृत्व विहीन हो गए हैं । केवल भाजपा को हराने के उद्देश्य से कभी इसके तो कभी उसके पीछे घूमते रहने से अपना महत्व खो बैठे हैं। यदि मुस्लिम कौम अपनी तरक्की चाहती है तो उसे शिक्षा जैसे क्षेत्र में आगे बढ़ने पर ध्यान देना चाहिए। धर्मनिरपेक्षता के नाम पर उनका राजनीतिक दोहन तो खूब हुआ किंतु सामाजिक और आर्थिक स्तर पर वह पिछड़ गई । ज्ञानवापी एक अवसर है उस पिछड़ेपन को दूर करने की दिशा में कदम उठाने का । वरना वही होगा जो अब तक उनके साथ होता आया है अर्थात वे वोट बैंक बने रहकर भी बदहाली में जीने मजबूर रहेंगे।


- रवीन्द्र वाजपेयी 


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