Friday 11 August 2023

अंग्रेजों द्वारा बनाई दंड व्यवस्था और न्याय प्रणाली में सुधार जरूरी


गृह मंत्री अमित शाह ने गत दिवस लोकसभा में अंगेजी राज में बनाए गए अनेक कानून खत्म करने के साथ ही कुछ का स्वरूप बदलने संबंधी जो विधेयक किए वे निश्चित रूप से समय की मांग हैं। देश में कानून को लागू करने के अलावा न्यायालयीन प्रक्रिया की वर्तमान स्थिति बेहद निराशाजनक है। मसलन किसी को गिरफ्तार करने के बाद अपराधिक प्रकरण का निराकरण कितने समय के भीतर किया जाएगा इसकी कोई सीमा नहीं है। गृह मंत्री द्वारा प्रस्तुत विधेयक के मुताबिक ट्रायल कोर्ट को तीन साल के भीतर हर फैसला करना होगा। राजद्रोह अब देशद्रोह होगा । भारतीय दंड संहिता में 511 से कम होकर 356 धाराएं बचेंगी और सैकड़ों बदली जायेंगी । कुछ को समाप्त करने के साथ ही कुछ नई शामिल होंगी। छोटे अपराधों के लिए जेल भेजने के बजाय दंड स्वरूप सामुदायिक सेवा का प्रावधान रचनात्मक सोच है। इसी तरह मॉब लिंचिंग , लव जिहाद जैसे मामलों में कड़ी सजा का प्रावधान भी अपेक्षित कदम है। देश में कहीं भी प्राथमिकी दर्ज करवाने के अलावा अन्य कुछ प्रस्ताव उक्त विधेयकों में हैं जिनके पारित होने के बाद अदालतों में लंबित प्रकरणों का बोझ कम तो होगा ही आरोपित व्यक्ति को भी अनिश्चितता से राहत मिलेगी। बकौल गृहमंत्री ये विधेयक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा पिछले स्वाधीनता दिवस पर लाल किले से गुलामी की निशानियों को खत्म करने सम्बन्धी घोषणा के परिप्रेक्ष्य में पेश किए गए। चूंकि संसद का सत्र समाप्त होने के चार दिन बाद ही स्वाधीनता दिवस है इसलिए सरकार को जल्दबाजी में ये काम करना पड़ा। हालांकि यदि गृह मंत्री सत्र की शुरुआत में इसे पेश कर देते तब वह लोकसभा से पारित होने के बाद राज्यसभा द्वारा भी स्वीकृत कर दिया गया होता। अब इसके लिए शीतकालीन सत्र तक इंतजार करना होगा। बहरहाल देर आए दुरुस्त आए की तर्ज पर इस पहल का स्वागत किया जाना चाहिए । आजदी के बाद अंग्रेजों द्वारा लागू किए ज्यादातर दीवानी और फौजदारी कानूनों को यथावत स्वीकार कर लिया गया। यद्यपि समय - समय पर उनमें कुछ सुधार और संशोधन भी किए जाते रहे किंतु उनका मूल ढांचा ब्रिटिश राज की यादें दिलाता रहा। न्यायालयीन कार्यप्रणाली पर भी औपनिवेशिक काल की छाप साफ नजर आती है। पेशी दर पेशी की संस्कृति ने न्यायपालिका की जो नकारात्मक छवि बनाई उसके कारण लोकतंत्र की सार्थकता पर भी प्रश्नचिन्ह लगते हैं। राजद्रोह शब्द अपने आप में राजतंत्र का एहसास करवाने वाला है। किसी अपराधिक मामले पर अंतिम फैसला होते - होते कुछ लोगों की जिंदगी का लंबा समय गुजर जाता है। ये धारणा भी काफी मजबूती के साथ उभरी है कि निर्दोष व्यक्ति व्यवस्था में खामियों के चलते जेल में सड़ता रहता है वहीं अपराधी प्रवृत्ति के लोग छुट्टा घूमते हैं। न्याय को सस्ता और सुलभ बनाने के तमाम दावे भी हवा - हवाई होकर रह गए हैं। एक जैसे मामले में किसी को तो तत्काल जमानत दे दी जाती है वहीं दूसरा महज इसलिए उससे वंचित रह जाता है क्योंकि उसके पास महंगे वकील की फीस चुकाने की हैसियत नहीं है। कुछ समय पूर्व सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश के सामने राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और तत्कालीन कानून मंत्री किरण रिजुजू ने कहा कि न्यायाधीश वकील का चेहरा देखकर फैसला करते हैं । लेकिन मी लॉर्ड सफाई में कुछ नहीं बोल सके। ऐसे में ये जरूरी हो गया है कि दंड प्रक्रिया के साथ ही अदालती व्यवस्था में भी आमूल परिवर्तन हो। अनुपयोगी पड़े कालातीत हो चुके कानूनों को अंतिम विदाई देकर उनके दुरुपयोग को रोका जा सकेगा । इसके अलावा अभियोजन पक्ष भी कानूनों की भीड़ में भटकने से बचेगा। न्यायालयों द्वारा समय सीमा में प्रकरण का निपटारा करने की व्यवस्था इन विधेयकों में सबसे अच्छी बात है। अन्यथा सजा का फैसला होने तक आरोपी बरसों - बरस जेल में रहने मजबूर रहता है। कुल मिलाकर जो विधेयक गत दिवस लोकसभा में पेश हुए इनके बारे में राजनीतिक दलों को संसद के अगले सत्र के पूर्व ही अपनी राय बना लेनी चाहिए जिससे इनको पारित करने में अनावश्यक विलंब न हो। इस बारे में ये बात सोचने वाली है कि न्याय को सस्ता करना है तो प्रकरण के निपटारे में देर को खत्म करना होगा क्योंकि वह जितना लंबा खींचता है वकील और अन्य खर्चे बढ़ते ही जाते हैं। अदालतों को नामी - गिरामी वकीलों की बजाय पक्षकार की सहूलियत पर भी ध्यान देना चाहिए। वैसे अभी इस क्षेत्र में और भी सुधारों की जरूरत है किंतु याद रखने वाली बात है कि किसी भी बड़े सफर की शुरुआत छोटे से कदम से ही होती है। गृह मंत्री श्री शाह द्वारा गत दिवस लोकसभा में पेश किए गए विधेयक भी व्यवस्था परिवर्तन की राह पर बढ़ाये कदम हैं जो आशान्वित करते हैं। ऐसे मामलों में राजनीति न हो तो ये देश हित में होगा।

- रवीन्द्र वाजपेयी 

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