Thursday 17 August 2023

पहाड़ों को भी शांति और आराम की जरूरत है




पहाड़ों को हौसलों का प्रतीक कहा जाता है। उनकी चोटी तक पहुंचने की इच्छा पर्वतारोहियों के अलावा रोमांच प्रेमी पर्यटकों में भी देखी जाती है। अनेक धार्मिक स्थल पहाड़ों में स्थित होने से श्रद्धालुओं को आकर्षित करते हैं। ग्रीष्म काल में मैदानी इलाके के तापमान से बचने पहाड़ों पर बसे हिल स्टेशनों में भी सैलानियों की भीड़ नजर आती है। प्रकृति प्रेमियों , साहित्यकारों , कलाकारों और छायाकारों में  भी पहाड़ों के प्रति दीवानगी होती है। कोलाहल से दूर किसी पर्वतीय स्थल पर कुछ दिन व्यतीत करना  मानसिक शांति के साथ - साथ स्वास्थ्य के लिए भी लाभदायक माना जाता है। एक समय था जब पहाड़ों में ऋषि - मुनि तपस्या करने जाते थे। जड़ी - बूटियों के खजाने भी पर्वतीय क्षेत्रों में होते थे। और फिर हिमालय से सदा नीरा बड़ी - बड़ी नदियां निकलती हैं। कश्मीर घाटी में बसे श्रीनगर में मुगल बादशाहों द्वारा विकसित उद्यान पर्यटकों से भरे रहते हैं। लद्दाख और अरुणाचल  के भव्य बौद्ध मठ भी पर्वतों के धार्मिक महत्व को साबित करते हैं। ब्रिटिश राज में देश भर में हिल स्टेशन के रूप में पर्वतीय क्षेत्रों का विकास हुआ । वहां तक जाने के लिए  सड़कें और रेल मार्ग भी बने। शिमला को तो अंग्रेजों ने देश के ग्रीष्मकालीन राजधानी बना रखा था। हालांकि आजादी के बाद भी पर्यटन केंद्रों के रूप में तीर्थस्थलों के अलावा अन्य पर्वतीय स्थानों को विकसित किया गया। गौरतलब है बीते कुछ दशकों में मध्यमवर्गीय पर्यटक बढ़ने से पर्वतीय क्षेत्रों में बेतहाशा भीड़ होने लगी है। विकास के तौर पर  सड़कों और पुलों आदि का निर्माण भी बड़ी मात्रा हुआ जिनके  लिए वृक्षों की कटाई और पहाड़ों की छटाई भी व्यापक तौर पर की गई । उत्तराखंड में टिहरी बांध जैसी परियोजना भी बनी । पनबिजली संयंत्रों के लिए नदियों के पानी को घुमाने सुरंगें बनाई गईं। इन सबका दुष्परिणाम धीरे - धीरे आने लगा । भूस्खलन , भूकंप , ग्लेशियरों का सिकुड़ना  आदि लक्षणों के जरिए प्रकृति ने चेतावनी देने का क्रम जारी रखा किंतु विवेकहीन विकास के साथ ही आमोद - प्रमोद के उद्देश्य से किए जाने वाले पर्यटन ने उन संकेतों के प्रति उपेक्षाभाव प्रदर्शित किया । यही कारण है कि  उत्तराखंड , हिमाचल प्रदेश और जम्मू कश्मीर के जिन क्षेत्रों में मानवीय आवाजाही ज्यादा होती  हैं वहां पर्यावरण का संतुलन गड़बड़ा गया । पर्वतों  को क्षति पहुंचाए जाने से उनकी आधारभूत संरचना को जो नुकसान हुआ उसकी वजह से  प्राकृतिक आपदाएं जल्दी - जल्दी आने लगी हैं। ताजा उदाहरण हिमाचल का है जहां कुछ दिनों के भीतर ही सैकड़ों लोग  जान गंवा बैठे। उत्तराखंड में भी पहाड़ों के धसकने की घटनाएं लगातार सुनाई दे रही हैं। यद्यपि इस साल अति वृष्टि को भी इसके लिए जिम्मेदार माना जा रहा है।लेकिन  ये बात भी स्वीकार करनी होगी कि पहाड़ों को भीतर से कमजोर कर दिए जाने के कारण ही अब वे अति वृष्टि अथवा भूकंप के मामूली झटके झेलने में असमर्थ होते जा रहे हैं। ये देखते हुए हिमाचल की मौजूदा स्थिति को तात्कालिक संकट मान लेना बड़ी भूल होगी। यही स्थिति उत्तराखंड की है। वहां भी चार धाम यात्रा में जिस तरह रुकावट आती रही वह इस बात को इंगित करती है कि पहाड़ पर मानवीय गतिविधियों का बोझ कम किया जाना चाहिए। वाहनों की आवाजाही सुलभ करने के लिए बनाई गई  बारहमासी सड़कें भी भूस्खलन के कारण बार - बार अवरुद्ध हो जाती हैं। इन्हें बनाने में भले ही कितनी  भी तकनीकी कुशलता दिखाई गई किंतु ये भूल जाना निरी मूर्खता है कि प्रकृति को बांधकर रखा जा सकता है। बीते वर्ष अमरनाथ में जल सैलाब आया था। केदारनाथ में हो चुकी त्रासदी के दंश तो आज तलक ताजा हैं। दुख इस बात का है कि हर दुर्घटना के बाद प्रकृति और पर्यावरण  सुरक्षा की बातें तो बहुत होती हैं लेकिन जो सुधार होना चाहिए उनकी तरफ ध्यान नहीं दिया जाता । सही बात तो ये है कि पहाड़ों को भी शांति के साथ आराम चाहिए। हम अपने आनंद के लिए उनके निकट जाते हैं किंतु अपने गैर जिम्मेदाराना आचरण के चलते उन्हें दुखी कर आते हैं। इसी कारण  उनकी सहनशक्ति जवाब देने लगी है। कभी - कभी तो लगता है कोरोना काल के दौरान देश भर में लगाए गए लॉक डाउन की तरह साल में कुछ समय तक वहां भी आवाजाही पर नियंत्रण लगाया जावे। उत्तराखंड में स्थित तीर्थस्थलों के साथ हिमाचल प्रदेश और जम्मू कश्मीर के पर्यटन स्थलों में भी  तीर्थयात्रियों और पर्यटकों की संख्या सीमित करना जरूरी हो गया है। उल्लेखनीय है लद्दाख में बीते कुछ दशकों के भीतर जिस तरह से  पर्यटकों की भीड़ उमड़ रही है और लेह से आगे जाकर नुब्रा घाटी जैसे इलाकों तक सैलानी जाने लगे हैं उसकी वजह से वहां के जिम्मेदार लोग चिंतित हैं। उत्तराखंड की स्थिति तो ये है कि पहाड़ों के बदलते मौसम और बिगड़ते मिजाज  के चलते बड़ी संख्या में गांव खाली होते जा रहे हैं। स्थिति और न बिगड़े इस हेतु गंभीर चिंतन आवश्यक है। बेहतर हो बिना समय गंवाए  पहाड़ों के क्रोध को शांत करने का उपाय तलाश लिया जाए वरना जिन मुसीबतों से हिमाचल प्रदेश इन दिनों जूझ रहा है वैसी ही समूचे हिमालय क्षेत्र में नजर आएगी जिससे होने वाली तबाही की कल्पना ही भयभीत कर देती है।

- रवीन्द्र वाजपेयी 


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