सर्वोच्च न्यायालय द्वारा मानहानि मामले में गत दिवस दिए फैसले को लेकर राजनीतिक हलचल होना स्वाभाविक है। गुजरात की अदालत ने कांग्रेस नेता राहुल गांधी को दो वर्ष की जो सजा सुनाई उसके कारण उनकी संसद सदस्यता समाप्त कर सरकारी आवास खाली करवा लिया गया , जो सामान्य प्रक्रिया है। लेकिन गांधी परिवार के साथ ऐसा कुछ होना अनोखा माना जाता है , इसलिए सवाल उठाया गया कि सदस्यता और आवास संबंधी फैसले इतनी शीघ्रता से क्यों लिए गए ? उच्च न्यायालय में भी जब श्री गांधी को सजा के विरुद्ध स्थगन न मिला तब वे सर्वोच्च न्यायालय गए जिसने गत दिवस उसको स्थगित करते हुए ये सवाल उठाया कि दो वर्ष की सजा ही क्यों दी गई ? यदि वह एक वर्ष 11 माह होती तब जेल जाने पर भी वे सांसद बने रहकर आगामी चुनाव लड़ सकते थे। सर्वोच्च न्यायालय ने ये टिप्पणी भी की कि 2 वर्ष की सजा देने से एक तरफ तो श्री गांधी सांसद रहने से वंचित हुए वहीं उनके निर्वाचन क्षेत्र वायनाड के मतदाता भी जन प्रतिनिधि विहीन हो गए। ये तो हुईं बौद्धिक बातें किंतु श्री गांधी की सजा स्थगित किए जाने को उनकी जीत बताने वाले इस बात को नजरंदाज कर रहे हैं कि जिस भाषण पर उन्हें सजा हुई उसे भी सर्वोच्च न्यायालय ने सही नहीं माना और नसीहत दी कि सार्वजनिक रूप से भाषण देते समय अपनी जुबान पर नियंत्रण रखना चाहिए। वैसे भी सर्वोच्च न्यायालय ने अंतरिम आदेश ही दिया है जिसमें श्री गांधी की अपील पर अंतिम निर्णय होने तक सजा स्थगित तो की गई किंतु रद्द नहीं हुई। इसका मतलब साफ है कि सर्वोच्च न्यायालय ने अभी उनको निर्दोष नहीं माना अपितु अस्थायी राहत दी है जिससे उनकी सदस्यता बहाल होने के साथ ही शासकीय आवास भी उन्हें वापस मिल जावेगा। बहरहाल श्री गांधी और कांग्रेस ही नहीं बल्कि विपक्षी गठबंधन के लिए ये आदेश संजीवनी की तरह है क्योंकि संसद सत्र के दौरान इसके आने से उनका हौसला बुलंद हुआ है। यदि अध्यक्ष ने तत्काल सदस्यता बहाल कर दी तब हो सकता है श्री गांधी अविश्वास प्रस्ताव पर होने वाली बहस में शरीक हो सकें। लेकिन इस निर्णय को अभूतपूर्व कहना अतिशयोक्ति होगी क्योंकि उनके पहले ऐसे ही मामले में एक लोकसभा सदस्य को 10 वर्ष की सजा होने पर उसकी सदस्यता खत्म कर दी गई और चुनाव आयोग ने उपचुनाव की तैयारी भी कर ली किंतु सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सजा स्थगित कर देने के बाद उक्त सांसद की सदस्यता बहाल हो गई। लेकिन राहुल चूंकि कांग्रेस के बड़े नेता हैं और अघोषित तौर पर प्रधानमंत्री पद के दावेदार भी , इसलिए उनकी सजा पर मिले स्थगन को पार्टी बड़ी जीत के तौर पर प्रचारित कर रही है । लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने उनकी सजा की अवधि को भले ज्यादा माना हो किंतु जिस कारण से वह दी गई उसे पूरी तरह गलत नहीं बताया ।और उनको बोलते समय मर्यादा का ध्यान रखने की समझाइश भी दे डाली । अन्यथा न्यायालय चाहता तो उन्हें निर्दोष घोषित कर देता। इस प्रकार अभी भी ये प्रकरण पूरी तरह खुला हुआ है क्योंकि केवल सजा पर स्थगन हुआ है जिसके कारण श्री गांधी सांसद बने रहेंगे और यदि जल्द फैसला न हुआ तब लोकसभा चुनाव भी लड़ सकेंगे । लेकिन यदि सर्वोच्च न्यायालय ने दोषी मानकर उनकी सजा कम कर दी तब उनको जेल जाना पड़ सकता है। जहां रहकर वे चुनाव भले लड़ लें लेकिन मैदानी राजनीति नहीं कर सकेंगे। हालांकि राहुल और कांग्रेस के लिए सर्वोच्च न्यायालय का आदेश निःसंदेह राहत लेकर आया किंतु बात यहीं पर समाप्त नहीं होती क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय ने ये टिप्पणी तो कर ही दी कि संदर्भित भाषण में उनका लहजा अच्छा नहीं था। सवाल ये है कि क्या न्यायालय के इस कथन को हमारे नेता गंभीरता से लेंगे कि सार्वजनिक जीवन में बोलने से पूर्व सावधानी की अपेक्षा की जाती है। इस दायरे में केवल श्री गांधी ही नहीं वरन सभी राजनीतिक दलों के वे नेता आते हैं जिन्हें विवादित टिप्पणियां करने का शौक है और दूसरों का अपमान कर वे खुश होते हैं। ऐसे नेताओं पर उनकी पार्टियां जब नियंत्रण नहीं लगातीं तब ये लगता है कि उन्हें ऐसा बोलने हेतु अधिकृत किया गया है। इस बारे में वामपंथियों की छवि कुछ बेहतर है जो मुद्दों तक सीमित रहते हुए व्यक्तिगत कटाक्षों से परहेज करते हैं। भाजपा वैसे तो अपने अनुशासन के लिए प्रसिद्ध है किंतु उसके भी कुछ नेताओं के बयान शालीनता के विरुद्ध होते हैं। क्षेत्रीय दलों में तो विवादित बयानबाजी करने वाले ढेरों हैं। स्मरणीय है कुछ समय पहले तक श्री गांधी अपने भाषणों में स्वातंत्र्य वीर सावरकर के बारे में अनर्गल बोला करते थे जिस पर महाराष्ट्र में कांग्रेस की सहयोगी शिवसेना (उद्धव गुट) को भी आपत्ति होती थी। बाद में शरद पवार के दबाव में आकर उन्होंने सावरकर जी के बारे में बोलने से परहेज किया किंतु जो बोल गए उस पर खेद न जताकर अपनी हठधर्मिता भी दिखाई। अभी श्री गांधी पर मानहानि के और भी मुकदमे लंबित हैं । ऐसे ही प्रकरण अन्य राजनीतिक नेताओं पर भी हैं। आजकल तो संसद के भीतर भी शब्दों की मर्यादा तार - तार करने का चलन है। इसके कारण राजनीति और राजनेताओं की प्रतिष्ठा घट रही है किंतु ऐसा लगता है शालीनता की जगह उद्दंडता ने ले ली है। ये प्रवृत्ति किसी भी दृष्टि से अच्छी नहीं कही जा सकती। लोकतंत्र सभ्य समाज में ही फलता - फूलता है। उस दृष्टि से मौजूदा माहौल चिंता पैदा करने वाला है।
- रवीन्द्र वाजपेयी
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