Tuesday 1 August 2023

संसद को बाधित कर अपना नुकसान कर रहा विपक्ष




संसद में काम नहीं हो रहा। हंगामे के कारण कार्रवाई लगातार स्थगित हो रही है। विपक्ष मणिपुर पर चर्चा चाहता है किंतु चर्चा किस नियम के अंतर्गत हो इस पर विवाद  है।  विपक्ष का आरोप है कि सरकार चर्चा से भाग रही है , वहीं सत्ता पक्ष का कहना  है कि उसकी रुचि चर्चा में नहीं अपितु हंगामा  करने के बहाने खोजना है। जैसा कि होता आया है दोनों पक्ष अपनी - अपनी बात पर अड़े हुए हैं । परिणाम स्वरूप प्रश्नकाल पूरा होते ही शोर -  शराबा शुरू  होने पर अध्यक्ष कार्रवाई स्थगित करने बाध्य हो जाते हैं। हालांकि ये कोई नई बात नहीं है। पिछले सत्रों में भी ऐसा होता आया है। यहां तक कि बजट जैसा महत्वपूर्ण सत्र भी ढंग से नहीं चला। राज्यों की विधानसभाओं में भी ऐसे  दृश्य आम हो चले हैं। हर सत्र के पहले सदन के पीठासीन अधिकारी सर्वदलीय बैठक आमंत्रित करते हैं। उसमें पूरे सत्र की कार्यसूची पर विमर्श होता है और सरकार के साथ ही विपक्षी दल भी सदन सुचारू रूप से चलाने पर सहमति दिखाते हैं । लेकिन  सत्र शुरू होते ही विवाद प्रारंभ हो जाता है। विपक्ष किसी न किसी मुद्दे पर सरकार को घेरना चाहता है वहीं  सरकार उसके हमले से  बचाव में लग जाती है। इस दौरान दोनों को इस बात की फिक्र नहीं रहती कि करोड़ों रुपए खर्च कर आयोजित किए जाने वाले सत्र का बहुमूल्य समय नष्ट हो रहा है। इस स्थिति के लिए दोनों ही पक्ष बराबर के दोषी हैं क्योंकि संसद में आज का सत्तापक्ष जब विरोध में हुआ करता था तब उसने भी अनेक सत्र हंगामे की बलि चढ़वाए थे। स्व. अरुण जेटली ने कहा भी था कि सदन को न चलने देना भी विरोध का तरीका है। जहां तक बात सत्ता पक्ष की है तो उसके लिए तो यही अच्छा है कि सदन में बहस  हो ही नहीं और वह हंगामे के दौरान ही  विधेयक वगैरह पारित करवाने के बाद मौका मिलते ही सत्रावसान की घोषणा करवा दे । लेकिन इससे विपक्ष को बहुत नुकसान होता है। वह जब किसी चीज की जिद लेकर बैठ जाता है तो सदन की कार्यवाही ठप्प हो जाती है जो सरकार के लिए तो  राहत भरा होता है। लेकिन सदन के जरिए जनता तक अपने विचार पहुंचाने का  अवसर  वह गंवा बैठता है। और यही गलती संसद के मौजूदा सत्र में भी उसके द्वारा दोहराई गई। मणिपुर पर चर्चा से सरकार ने इंकार तो किया नहीं परंतु प्रधानमंत्री के बयान पर अड़े रहने से चर्चा झमेले में फंसकर रह गई। रही बात किस नियम के अंतर्गत चर्चा हो , तो निश्चित तौर पर ये तय करना बहुमत प्राप्त सत्ता पक्ष के ही अधिकार में होता है । कांग्रेस जब सत्ता में रही तब उसने भी विपक्ष की हर मांग मान ली हो ऐसा नहीं था।  आज जब वह विपक्ष में है और वह भी बेहद दयनीय हालत में , तब उसके लिए सरकार को झुका पाना संभव नहीं रहा । और ऐसी स्थिति में उसके लिए फायदेमंद रहता यदि वह  सरकार की पसंद के नियमानुसार चर्चा पर पूरे विपक्ष को राजी कर लेती । ऐसे में वह सरकार को घेरकर अपनी बात रख सकती थी किंतु बीच में उसने ये कहते हुए अविश्वास प्रस्ताव  पेश कर दिया कि इसी बहाने वह प्रधानमंत्री को सदन में बोलने के लिए बाध्य कर सकेगी। अभी तक तो उसका ये दांव भी कारगर नहीं रहा क्योंकि मणिपुर को लेकर विपक्ष जो कहता आया है और सदन में भी कहेगा , वह सब सर्वोच्च न्यायालय में कहा और सुना जा रहा है। अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा में भी वही सब बातें उठेंगी जो सर्वोच्च न्यायालय में सरकार और याचिकाकर्ता द्वारा कही जा रही हैं । संसद में भी सत्ता पक्ष ये कहते हुए अनेक बातों को खुलासा करने से बचेगा कि मामला न्यायालय के विचाराधीन है। ये सब देखते हुए कहना गलत न होगा कि विपक्ष जोश में होश खोकर अपना नुकसान कर बैठा। उसे ये समझना चाहिए कि सरकार के पास लोकसभा में अच्छा - खासा बहुमत होने से उसे अविश्वास प्रस्ताव को लेकर कोई चिंता नहीं है। और कांग्रेस के सहयोगी तक इस बात से नाराज हो उठे कि प्रस्ताव पर उनसे सहमति नहीं ली गई । दिल्ली अध्यादेश पर भी विपक्ष में एक राय नहीं बन सकी। मणिपुर पर  चर्चा तो सत्र के पहले दिन ही हो सकती थी किंतु विपक्ष अपने ही बनाए जाल में फंसकर रह गया जिससे धीरे - धीरे मुद्दा ठंडा पड़ता जा रहा है। आगामी वर्ष लोकसभा चुनाव होने वाले हैं । इस सत्र के बाद संसद का एक शीतकालीन सत्र होगा और उसके बाद का बजट सत्र महज औपचारिकताओं और विदाई में बीत जायेगा । बजट भी अंतरिम ही पेश होगा जिस पर सरकार को घेरने की गुंजाइश ही नहीं रहेगी। ऐसे में विपक्ष को चाहिए,   इस सत्र के जितने भी दिन शेष हैं उनका समुचित उपयोग कर ले । वरना हो - हल्ले में ही पूरा समय बीत जाने के बाद  उसके हाथ कुछ नहीं लगेगा। रही बात अविश्वास प्रस्ताव की तो उसका हश्र चूंकि सबको पता है इसलिए उसके बारे लोगों  की ज्यादा रुचि रह भी नहीं गई है।

-रवीन्द्र वाजपेयी 


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