Monday 31 July 2023

म.प्र में आदिवासियों के नेतृत्व को उभरने नहीं दिया गया




म.प्र आदिवासी बहुल प्रदेश है। लगभग 47 विधानसभा सीटें तो अनु.जनजाति के लिए आरक्षित हैं किंतु इनके अलावा भी 25 से 30 सीटों पर हार -  जीत आदिवासियों पर निर्भर  हैं। 2018 में कांग्रेस ने 47 में से 30 सीटों पर जीत हासिल कर भाजपा का खेल बिगाड़ दिया था। इसीलिए इस बार वह आदिवासी क्षेत्रों में पूरी ताकत झोंक रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का शहडोल दौरा इसका सबूत है। दूसरी तरफ कांग्रेस भी पीछे नहीं है। राहुल गांधी भी आदिवासी बहुल क्षेत्र में आने वाले हैं। गत दिवस कांग्रेस ने इंदौर में आदिवासी सम्मेलन किया ।  इस अवसर पर प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ ने  मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान द्वारा आदिवासियों को जूते , चप्पल और छाता देने की घोषणा पर कटाक्ष करते हुए कहा कि वे कोई भिखारी नहीं हैं। उसके साथ ही उन्होंने आदिवासी बहुल  अपने निर्वाचन क्षेत्र छिंदवाड़ा का उल्लेख कर दावा किया कि वहां आदिवासियों के लिए जो काम उन्होंने करवाए उन्हें बतौर मॉडल अपनाया जाना चाहिए। हालांकि नेताओं द्वारा चुनाव के मौसम में छोड़े जाने वाले बयानों के तीर तो चलते ही रहते हैं किंतु आदिवासियों को जूते , चप्पल और छाता देने की बात  पर व्यंग्य करने की कोई जरूरत नहीं थी। उल्टे श्री नाथ को इस बात पर अफसोस करना चाहिए था  आदिवासी समुदाय इतना पिछड़ा कैसे रह गया कि आजादी के 75 साल बाद भी उसे जूते , चप्पल और छाते देने की जरूरत पड़ रही है। यद्यपि ऐसा नहीं है कि आदिवासी क्षेत्रों में विकास का कोई कार्य नहीं हुआ। सड़कें , बिजली और पानी जैसी सुविधाएं वहां भी पहुंची हैं। शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी मूलभूत सुविधाओं की स्थिति भी पहले  से  सुधरी है और राजनीतिक दृष्टि से भी वे काफी जागरूक हुए जिसका प्रमाण उनके अपने सामाजिक और राजनीतिक संगठन बनना है। चुनाव में वे भाजपा और कांग्रेस जैसी पार्टियों के साथ सौदेबाजी करने लगे हैं।  सच्चाई ये है कि बड़ी पार्टियां आदिवासियों के मत तो बटोरना चाहती हैं किंतु उनके बीच नेतृत्व को उभारने के प्रति उदासीन हैं। कहने को केंद्र में अनेक आदिवासी मंत्री हुए । झारखंड में भी शिबू सोरेन ,बाबूलाल मरांडी , अर्जुन मुंडा और हेमंत सोरेन को मुख्यमंत्री बनने का अवसर मिला। छत्तीसगढ़ में अजीत जोगी को कमान मिली। लेकिन म.प्र में आदिवासी कांग्रेस नेता स्व.शिवभानु सिंह सोलंकी के पक्ष में बहुमत होते हुए भी  स्व.अर्जुन सिंह मुख्यमंत्री बनाए गए। कहने का आशय ये कि अनुसूचित जाति और अन्य पिछड़ा वर्ग के भीतर से तो नेतृत्व उभरा जिसके कारण केंद्र और राज्य दोनों में उस वर्ग का दबदबा है किंतु आदिवासी समुदाय इस मामले में पीछे रह गया। कमलनाथ को ही लें तो छिंदवाड़ा में अनेक आदिवासी विधायक बने  किंतु जब राजनीतिक उत्तराधिकार की बात आई तो श्री नाथ ने पहले पत्नी अलका नाथ और फिर बेटे नकुल नाथ को ही चुना। आज म.प्र में एक भी आदिवासी नेता ऐसा नहीं है जिसकी प्रादेशिक स्तर पकड़ हो। और इसका कारण है उनको दबाकर  रखा जाना ।  श्रीमती  द्रौपदी मुर्मू को जब राष्ट्रपति पद हेतु एनडीए द्वारा नामांकित किया तब होना तब ये अपेक्षित था कि सभी विपक्षी दल उनके निर्विरोध निर्वाचित होने का रास्ता प्रशस्त करते। हालांकि अनेक पार्टियां श्रीमती मुर्मु के साथ खड़ी हो गईं किंतु कांग्रेस ने यशवंत सिन्हा को समर्थन दे दिया। आजादी के अमृत महोत्सव के समय  यदि बेहद साधारण पृष्ठभूमि  से आई एक आदिवासी महिला सर्वसम्मत से राष्ट्रपति चुनी जाती तो वह सामाजिक समरसता का बेहतरीन उदाहरण होता। ऐसे ही अनेक वाकयों के कारण सीधे - सादे  और शांत कहे जाने   इस वर्ग की भावनाएं आहत होने लगीं जिसका लाभ  ईसाई मिशनरियों और नक्सलियों ने उठाते हुए उनके मन में विद्रोह के बीज बोए । भले ही सांस्कृतिक तौर पर आदिवासी समाज अपनी जड़ों से जुड़ा हुआ है किंतु धर्मांतरण के जरिए उसे मुख्यधारा से काटने का जो षडयंत्र आधी सदी से ज्यादा चला उसे कांग्रेस ही नहीं अपितु अन्य विपक्षी दलों खासकर वामपंथियों ने भी समर्थन और  संरक्षण प्रदान किया। यही वजह है कि इस समुदाय में भीतर - भीतर गुस्सा पनप रहा है। यद्यपि आरक्षण ने उनके आर्थिक , शैक्षणिक और सामाजिक उत्थान में काफी सहायता की किंतु उसकी भी अपनी सीमाएं हैं । और इसीलिए आज भी आदिवासी पिछड़ेपन के शिकार हैं। राजनीति के करीब आने से उनमें चैतन्यता तो आई किंतु सक्षम नेतृत्व के अभाव में आज भी वे पिछलग्गू बनने बाध्य हैं। ऐसे में श्री नाथ द्वारा  उनको जूते ,चप्पल और छाता जैसी चीज देने पर कटाक्ष करना राजनीतिक तौर पर साधारण बात है किंतु सदियों से जल , जंगल और जमीन से जुड़ा शांत और संयमी समाज यदि नंगे पांव चलने बाध्य है तो फिर उसका विद्रोही होना गलत नहीं है । और ये भी कि  उनके बीच असंतोष की आग सुलगाने का अवसर ईसाई मिशनरियों और नक्सलियों को  हमारी सामूहिक उदासीनता ने ही दिया है। आदिवासी क्षेत्रों के विकास के नाम पर बीते 75 साल में जितना धन खर्च हुआ उससे  वहां का पिछड़ापन पूरी तरह मिट जाना चाहिए था किंतु नेताओं और नौकरशाहों की संगामित्ती में हुई लूटमार से स्थिति में अपेक्षित सुधार नहीं हो सका। आजादी का अमृत महोत्सव मनाते समय यह स्थिति मन को कचोटती है।

- रवीन्द्र वाजपेयी 


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