प. बंगाल में संपन्न पंचायत चुनाव में सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस को भारी बहुमत मिला । लगभग 65 फीसदी सीटें जीतकर उसने अपनी पकड़ साबित कर दी। हालांकि उच्च न्यायालय ने परिणामों को अंतिम रूप दिए जाने के पहले चुनाव आयोग द्वारा हिंसा की घटनाओं संबंधी रिपोर्ट का संज्ञान लेने की बात कही है और ये भी पूछा है कि मतदान के दिन हजारों केंद्रों पर गड़बड़ी की शिकायतों के बाद केवल 600 केंद्रों पर ही दोबारा मतदान क्यों करवाया गया ? लेकिन सभी जानते हैं कि ऐसे मामलों में जो जीता वही सिकंदर, वाली बात ही लागू होती है। प. बंगाल को जानने वालों के लिए ये परिणाम अचंभा नहीं हैं। एक दौर था जब वाम मोर्चे को ऐसी ही जीत मिला करती थी। उस समय मार्क्सवादी आतंक के साए में चुनाव होते थे । लेकिन ताजा चुनाव परिणामों में कुछ ऐसे संकेत भी छिपे हुए हैं जो भावी राजनीति को दिशा देने वाले हो सकते हैं । अव्वल तो ये कि ममता को चुनौती देने की हैसियत कांग्रेस और वामपंथी खो चुके हैं और उनकी जगह भाजपा ने ले ली है जो विधानसभा चुनाव की तरह से ही त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव में 15 से 20 फीसदी सीटें जीतकर तृणमूल कांग्रेस का विकल्प बनने की स्थिति में आ गई है। कांग्रेस तथा वामपंथी मिलकर भी उससे बहुत पीछे हैं। एक बात और काबिले गौर है कि 2018 की अपेक्षा तृणमूल द्वारा जीती सीटों की संख्या में कुछ कमी आई वहीं भाजपा के अलावा कांग्रेस - वामपंथी गठबंधन की शक्ति में भी मामूली ही सही किंतु वृद्धि तो हुई है।सबसे ज्यादा चौंकाने वाली बात रही अनेक मुस्लिम इलाकों में क्षेत्रीय मुस्लिम दल को मिली सफलता । इससे तृणमूल की दिक्कतें बढ़ सकती हैं। वहीं भाजपा के लिए भी चिंता का विषय है कि दार्जिलिंग अंचल में गोरखा संगठन ने बाजी मार ली जहां की लोकसभा सीट पर भाजपा काफी समय से काबिज है। खास बात ये भी है कि 2018 में जहां तृणमूल के तकरीबन 35 फीसदी प्रत्याशी निर्विरोध जीते वहीं इस बार वह संख्या घटकर आधे से भी कम रह गई। संभवतः हिंसा में वृद्धि का एक कारण ये भी है। खुश होने का कारण तो कांग्रेस और वामदलों के पास भी है जिनकी ताकत में हल्की सी बढ़ोतरी हुई है परंतु मुख्य विपक्षी बनने की उनकी चाहत फिर अधूरी रह गई । ये साफ हो गया है कि राज्य में भाजपा के पांव से जमते जा रहे हैं। इस चुनाव को 2024 की रिहर्सल मानना तो जल्दबाजी है क्योंकि पूरा मुकाबला ममता के इर्द - गिर्द ही घूमता रहा। विपक्ष जो भी कहे लेकिन आज की स्थिति में सुश्री बैनर्जी के पास वैसी ही ताकत है जैसी कभी स्व.ज्योति बसु के साथ थी। लेकिन लोकसभा चुनाव के नतीजे भी ऐसे हों ये जरूरी नहीं क्योंकि तब प्रचार में राष्ट्रीय नेताओं की मौजूदगी रहेगी। और फिर चुनाव पर्यवेक्षकों के अलावा सुरक्षा बल भी स्थानीय नहीं होंगे। इसीलिए 2018 के पंचायत चुनाव के बाद 2019 में लोकसभा के मुकाबले में भाजपा ने जबरदस्त सफलता हासिल की जबकि उसके तीन विधायक ही थे जो मौजूदा स्थिति में बढ़कर 70 के करीब हैं । इस चुनाव का सीधा - सादा फलितार्थ यही है कि राज्य में अब भाजपा दूसरी सबसे बड़ी पार्टी है ।हालांकि उसके पास कद्दावर प्रादेशिक नेताओं का अभाव है। उसका अपना कैडर बाहरी नेताओं के आने से काफी उपेक्षित हुआ है। ममता का साथ छोड़कर आए नेताओं में सुवेंदु अधिकारी ने जरूर हिम्मत दिखाई है । नंदीग्राम में उनको हराने के बाद उनका कद और ऊंचा हुआ और भाजपा ने भी नेता प्रतिपक्ष बनाकर उनका महत्व बढ़ाया । पंचायत चुनाव में भी उन्होंने नंदीग्राम में भाजपा का दबदबा बनाए रखा। यद्यपि उन्हें ममता की टक्कर का नहीं माना जा सकता । फिर भी पार्टी का मानना है लोकसभा चुनाव के समीकरण अलग होंगे क्योंकि ममता यदि प्रधानमंत्री का चेहरा नहीं बनाई जातीं तब उनके लिए पंचायत जैसे परिणाम दोहराना आसान नहीं होगा और कर्नाटक की तरह ही मुस्लिम मतदाताओं का एक वर्ग ममता से छिटककर कांग्रेस के साथ आ सकता है। विपक्ष की जो बैठक 17-18 जुलाई को बेंगलुरु में होने जा रही है उसमें कांग्रेस और वामदल , पंचायत चुनाव के मुद्दे पर ममता को किस तरह घेरते हैं , इस पर काफी कुछ निर्भर करेगा क्योंकि अब तक के रवैये के अनुसार वे लोकसभा चुनाव में एक भी सीट किसी के लिए छोड़ने राजी नहीं हैं। लेकिन तृणमूल यदि कांग्रेस और वामदलों के साथ सीटों का बंटवारा करने सहमत हो गई तब भाजपा के लिए 2019 जैसी सुखद स्थिति बनना कठिन होगा। हालांकि उसके लिए ये भी कम उपलब्धि नहीं है कि उस प.बंगाल में तृणमूल के बाद दूसरी पार्टी बन गई , जहां 10 साल पहले उसके लिए सांसद - विधायक तो क्या पार्षद जितवाना भी सपने देखने जैसा था।
- रवीन्द्र वाजपेयी
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